जानिये कैसी है फिल्म डिअर डैड

।। उर्मिला कोरी।। फ़िल्म डिअर डैड निर्देशक तनुज भ्रमर कलाकार अरविंद स्वामी, एकावल्ली खन्ना, हिमांशु शुक्ला रेटिंग दो रोजा और बॉम्बे जैसी फिल्मों का चेहरा अरविंद स्वामी नेएक अरसे बाद फिल्मों में इस फ़िल्म से वापसी की है. डिअर डैड अपने नाम की तरह एक पिता और पुत्र के रिश्ते की कहानी है. जिसमें गे […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 13, 2016 2:58 PM

।। उर्मिला कोरी।।

फ़िल्म डिअर डैड
निर्देशक तनुज भ्रमर
कलाकार अरविंद स्वामी, एकावल्ली खन्ना, हिमांशु शुक्ला
रेटिंग दो
रोजा और बॉम्बे जैसी फिल्मों का चेहरा अरविंद स्वामी नेएक अरसे बाद फिल्मों में इस फ़िल्म से वापसी की है. डिअर डैड अपने नाम की तरह एक पिता और पुत्र के रिश्ते की कहानी है. जिसमें गे के मुद्दे को सामने लाया गया है लेकिन फ़िल्म में इस सवेंदनशील मुद्दे को प्रभावी ढंग के साथ न्याय नहीं किया गया है. सिर्फ सतही तौर पर ही इस मुद्दे को छुआ गया है जो इस फ़िल्म को कमज़ोर बना देता है. फ़िल्म क्लाइमेक्स तक पहुँचते-पहुँचते तक मूल कहानी से भटकी हुई जान पड़ती है.
फ़िल्म की कहानी को दिल्ली से मसूरी तक की एक रोड जर्नी में बयां किया गया है. जब एक पिता अपने बेटे को बताता है कि वह उसकी माँ को तलाक देने जा रहा है क्योंकि वह गे है. बेटे की क्या होगी प्रतिक्रिया क्या वह अपने पिता को माफ़ करेगा. उनका पिता-पुत्र का रिश्ता बचा रह पायेगा. यही फ़िल्म की आगे की कहानी है. गूगल के इस जमाने में जब शिवम् टेक्नोलॉजी से इतना कनेक्ट है तो ऐसे में गे के लिए बाबा बंगाली के पास जाने की बात बचकानी लगती है.
अभिनय की बात करें तो फ़िल्म में अरविंद स्वामी अपने किरदार और उसके मनोभावनाओं के सबसे करीब रहे हैं. हिमांशु शुक्ला पर्दे पर सहज नज़र आते हैं लेकिन वह इमोशनल सीन्स में कमजोर दिखे हैं.अपने पिता के गे होने और माता-पिता के तलाक पर उनका रिएक्शन बहुत ही साधारण था. अमन उप्पल एक रियलिटी शो के स्टार के तौर पर अपने किरदार को बखूबी निभा गए हैं. फ़िल्म में दूसरे किरदारों को कहानी में ज़्यादा तवज्जो नहीं मिली है. दूसरे किरदारों की मनस्थिति को फ़िल्म में उस प्रभावी ढंग से नहीं लाया गया जितनी ज़रूरत थी.
संगीतकार अर्जुन, राघव औरउज्ज्वलने फ़िल्म की कहानी के अनुरूप ही संगीत दिया है. फ़िल्म केसंवाद औसत हैं. दिल्ली से मसूरी के दृश्य फ़िल्म की खूबसूरती को बढ़ाते हैं. कुल मिलाकर यह एक सिंपल फ़िल्म है. फ़िल्म का विषय जितना सशक्त था पर्दे पर उसकी प्रस्तुति उतनी ही कमज़ोर ढंग से हुई है.

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