फिल्‍म रिव्‍यू : दिमाग के अंदर का डर ”फोबिया”

II उर्मिला कोरी II फ़िल्म: फोबिया निर्माता: सुनील लुल्ला,विक्की रजानी निर्देशक: पवन कृपलानी कलाकार: राधिका आप्टे रेटिंग: ढाई फ़िल्म ‘फोबिया’ अपने नाम के अनुरूप डर के बारे में बात करती है मगर किसी बाहरी डर नहीं बल्कि मस्तिष्क के भीतर के डर पर. भारतीय फिल्मों से अब तक यह विषय अछूता रहा है इसके लिए […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 27, 2016 3:16 PM

II उर्मिला कोरी II

फ़िल्म: फोबिया
निर्माता: सुनील लुल्ला,विक्की रजानी
निर्देशक: पवन कृपलानी
कलाकार: राधिका आप्टे
रेटिंग: ढाई
फ़िल्म ‘फोबिया’ अपने नाम के अनुरूप डर के बारे में बात करती है मगर किसी बाहरी डर नहीं बल्कि मस्तिष्क के भीतर के डर पर. भारतीय फिल्मों से अब तक यह विषय अछूता रहा है इसके लिए निर्देशक पवन कृपलानी बधाई के पात्र हैं जो उन्होंने इस विषय को चुना. ‘डर एट मॉल’ और ‘रागिनी एमएमएस’ जैसी हॉरर फिल्में बना चुके कृपलानी इस फ़िल्म में भूत प्रेत और उससे जुड़े टोटकों की हँसी भी उड़ाते हैं.
भूत प्रेत नहीं होते यह बात कई बार फ़िल्म में दोहराई गयी है. फ़िल्म की कहानी पेंटर महक (राधिका आप्टे)की है, जो एक पार्टी से देर रात लौटते हुए एक टैक्सी ड्राईवर की हवस का शिकार होने से अपने को बचा तो लेती हैं लेकिन एगोराफोबिया का शिकार हो जाती है. एगोराफोबिया एक मानसिक बीमारी जिस वजह से उसे घर से बाहर निकलने से डर लगने लगता है. भीड़ भरी जगह और नए चेहरों को देखते ही उसे घुटन होने लगती है.
ऐसे में महक अपने इस फोबिया को कम करने के लिए अपने एक दोस्त की मदद से एक नए फ्लैट में शिफ्ट होती है लेकिन वहां उसे एक और ही डर आ घेर लेता है. क्या है ये नया डर और क्या इन डर की अलग अलग वजहों से महक निकल पाएगी. यही फ़िल्म की कहानी है. फ़िल्म का विषय अलग है जो इसे रोचक बनाता है. लेकिन स्क्रिप्ट में थोड़ी खामी नज़र आती है. फ़िल्म का अप्रोच जब साइंटिफिक रखा गया है ऐसे में राधिका का किरदार जो घटने वाला है उसे पहले से कैसे देख चुकी होती है.
जिनके साथ ऐसा नहीं हुआ है. उनका ऐसी घटना पर विश्वास करना नामुमकिन सा है. एगोराफोबिया की बात करते हुए अचानक से महक की किरदार का भविष्य को देख लेने वाली बात समझ से परे लगती है. फिल्मों के कई दृश्यों में लगातार दोहराव भी सालते हैं. फ़िल्म की कहानी में इनदिनों समाज में बढ़ रहे बलात्कार की घटना को भी जोड़ा गया है. राधिका आप्टे के किरदार के ज़रिये ऐसी सोच रखने वाले लोगों के लिए बीमार बताया जाने वाला दृश्य अच्छा बन पड़ा है.
फ़िल्म में पेन्टिंग्स के साथ भी बहुत खूबसूरती से दृश्यों को जोड़ा गया है. एक्टिंग की बात करें तो राधिका आप्टे मानसिक रोगी के किरदार को अपने लुक और हाव भाव से सामने लाने में पूरी तरह से कामयाब हुईं हैं. फ़िल्म की यूएसपी उनके अभिनय को कहा जाए तो गलत न होगा. पूरी फ़िल्म में वह न सिर्फ बिना मेकअप के नज़र आई हैं बल्कि खुद कई दृश्यों में खुद को कुरूप दिखाने से भी हिचकी नहीं है, जो एक्टर की तौर पर उनके साहसी होने की गवाही देता है. सत्यदेव और फ़िल्म के अन्य पात्र कहानी के अनुरूप उनका साथ बखूबी देते हैं.
फ़िल्म का बैकग्राउंड स्कोर कहानी को गति देता है. फ़िल्म के संवाद औसत हैं मूल रूप से भावों को हाव भाव के ज़रिये ही दर्शाया गया है. फ़िल्म के दूसरे पक्ष सामान्य है. फ़िल्म का अलहदा विषय अगर इस फ़िल्म की खासियत है तो खामी भी है. अपने अलग विषय की वजह से यह खास वर्ग के दर्शकों की फ़िल्म बन जाती है विशेषकर मल्टीप्लेक्स ऑडिएंस की. अगर आप फिल्मों में थ्रिलर और हॉरर जॉनर के शौकीन हैं और उस में कुछ नया देखना चाहते हैं तो यह फ़िल्म आपके लिए हैं।यह फ़िल्म उस जॉनर में एक अलग रंग भरती है.

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