फिल्‍म रिव्‍यू: पुरानी परंपराओं की कमर तोड़ती राधिका आप्‍टे की ‘पार्च्ड”

II उर्मिला कोरी II फिल्म: पार्च्ड निर्माता: अजय देवगन फिल्म्स निर्देशक: लीना यादव कलाकार: तनिष्ठा मुखर्जी,राधिका आप्टे,सुरवीन चावला,राधिका आप्टे रेटिंग: तीन अब तक कई फिल्म फेस्टिवल्स में सराही जा चुकी ‘पार्च्ड’ फेस्टिवल सिनेमा का प्रतिनिधित्व करती है लेकिन फिल्म का यह लेबल अगर इसे सीमित दर्शकों के लिए बनाती है तो यह लेबल गलत होगा।. […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 23, 2016 4:31 PM

II उर्मिला कोरी II

फिल्म: पार्च्ड

निर्माता: अजय देवगन फिल्म्स

निर्देशक: लीना यादव

कलाकार: तनिष्ठा मुखर्जी,राधिका आप्टे,सुरवीन चावला,राधिका आप्टे

रेटिंग: तीन

अब तक कई फिल्म फेस्टिवल्स में सराही जा चुकी ‘पार्च्ड’ फेस्टिवल सिनेमा का प्रतिनिधित्व करती है लेकिन फिल्म का यह लेबल अगर इसे सीमित दर्शकों के लिए बनाती है तो यह लेबल गलत होगा।. यह उन सभी दर्शकों की फिल्म है जो यथार्थ के काफी करीब सिनेमा को देखना पसंद करते हैं.

फिल्म के अंत को छोड़ दे तो फिल्म हकीकत की जमीं झुलसी महिला ज़िन्दगी की कहानी है. फिल्म की शुरुआत के दूसरे ही दृश्य में दिखाया जाता है कि पंचों का फरमान है कि वह एक लड़की को उसका असली घर उसका ससुराल बताते हैं जबकि लड़की बोलती है कि अपने माँ के घर रहने में क्या बुराई है. वह ऐसे घर नहीं जाएगी जहाँ उसके ससुर और उसके देवर उसके साथ हर रात जबरदस्ती करते है.

वह गर्भ गिरा चुकी है. इसके बाद भी लड़की को ससुराल भेज दिया जाता है. इस दृश्य के साथ ही यह बात समझ आ जाती है कि यह फिल्म पुरुष और पुरुषों द्वारा बनाये गए समाज में लगातार शोषित होती महिलाओं की कहानी है. कहानी मूल रूप से तीन औरतें की हैं. रानी (तनिष्ठा चटर्जी) जिसका विवाहित जीवन बहुत तकलीफों में गुजरा. उसका पति हमेशा उसे छोड़ दूसरी औरतों के साथ रहा. वह छोटी उम्र में विधवा हो गयी है. अपनी सारी ख्वाइशों और ज़रूरतों को भूल वह परिवार के भरण-पोषण में लगी है. 17 साल के बेटा गुलाब उसकी दुनिया है.

वह गुलाब के लिए बहू लाकर सोच रही है कि उसके अब दुःख खत्म हो जायेंगे लेकिन आखिर उसका बेटा भी एक पुरुष ही है. वह एक महिला मन को कैसे समझेगा. रानी की एक पडोसी है लाजो (राधिका आप्टे) जो बाँझ होने की वजह से अपने शराबी पति से रोज़ प्रताड़ित होती है. उसको नहीं पता है कि बाँझ औरत नहीं आदमी भी हो सकता है. इन दोनों की एक सहेली है बिजली (सुरवीन चावला) जो एक वेश्या है. तीनों अपनी ज़िन्दगी में सच्चे प्यार को पाना चाहती है लेकिन तीनो को धोखा ही मिलता है क्योंकि वह पुरुषों पर जो अपनी ख़ुशी के लिए भरोसा करती हैं.

फिल्म भले ही बहुत सीरियस मुद्दे को छूती है लेकिन फिल्म में कई ऐसे दृश्य दिखाए गए हैं. जहाँ ये औरतें खुद की ख़ुशी छोटी छोटी चीज़ों में ढूंढ लेती हैं. वह दृश्य फिल्म के मूड को हल्का कर जाते हैं. फिल्म में महिलाएं अपनी सेक्सुअल फीलिंग्स पर खुलकर बात करती नज़र आती है. फिल्म मूल रूप से इसी विषय को छूती है. पुरुष प्रधान समाज में महिला को एक उपभोग की वस्तु समझने वाले नज़रिये पर सीधा हमला किया है यह फिल्म पुरुषों के द्वारा बनाये पुरानी परंपराओं को तोड़ खुद के लिए नियम बनाती औरतों कीकहानी है.

फिल्म का अंत थोड़ा यथार्थ से दूर लगता है यही बात फिल्म को कमज़ोर कर जाती है लेकिन हाँ फिल्म के अंत में यह बात लाजो का किरदार का कहना कि हमें तो सिलाई आती है. हम कहीं भी खुद का पेट पाल सकते हैं. महिलाओं की आत्मनिर्भरता ही उन्हें शोषण के खिलाफ लोहा लेने में मददगार होगी. इस बात को भी सामने ले आती है.

अभिनय की बात करें तो कलाकारों का सशक्त अभिनय इस फिल्म को ख़ास बना जाता है. तनिष्ठा, राधिका और सुरवीन अपने-अपने किरदारों में फिट रही हैं. अपने किरदारों के दर्द, ग़ुस्से और ख़ुशी सभी को इन्होंने बखूबी जिया है. फिल्म के संवाद कहानी और विषय के अनुरूप है. फिल्म की सिनेमेटोग्राफी अच्छी है। ग्रामीण जीवन को बखूबी उकेरा गया है संवाद भी कहानी को प्रभावी ढंग से सामने ले आते है.

कुलमिलाकर पार्च्ड ग्रामीण महिलाओं की ज़िन्दगी को सामने लाती हैं जहाँ फ़ोन और डिश टीवी भले ही पहुच गया हैं लेकिन दशकों पुरानी परम्पराओं की बेड़ियों में वह अब भी जकड़ी है. फिल्म के अंत पर थोड़ा काम किया जाता तो यह एक बेहतरीन फिल्म बन सकती थी

Next Article

Exit mobile version