उर्मिला कोरी
फिल्म: किशन बाबूराव हज़ारे
निर्माता: मनिंद्र जैन
निर्देशक: शशांक उदापुरकर
निर्देशक: शशांक उदापुरकर,तनिशा मुख़र्जी,गोविन्द नामदेव और अन्य
रेटिंग: डेढ़
किताबें हमारी ज़िन्दगी से दूर होती जा रही हैं शायद यही वजह है कि अब हम कुछ खास चर्चित और परिचित लोगों की ज़िन्दगी को किताबों में पढ़ने के बजाय सिनेमा के रुपहले परदे पर देखना पसंद कर रहे हैं. बायोपिक फिल्में इनदिनों इंडस्ट्री नया फार्मूला बन गयी हैं. इस नए ट्रेंड में समाजसेवी अन्ना हज़ारे का नाम भी जुड़ गया है.
इस फिल्म में अन्ना हज़ारे के सरहद पर सैनिक की भूमिका से लेकर रामलीला मैदान में देशहित के लिए अनशन करने वाले समाजसेवी की जर्नी को दिखाया गया है. फिल्म की कहानी की शुरुआत ही 2011 में रामलीला मैदान में अन्ना के अनशन वाली घटना से शुरू होती है. जब देश का हर आदमी अन्ना के साथ खड़ा था.
फिर कहानी फ्लैशबैक में जाती है और अन्ना के बचपन और एक सैनिक के तौर पर उनकी ज़िन्दगी को भी सामने लाती है. फिल्म के दूसरे भाग में कहानी रालेगांव के विकास पर ज़्यादा फोकस है. फिल्म के अंत में यह बात दिखाई गयी है कि सरहद पर जितने देश के शत्रु नहीं है उससे कहीं ज़्यादा देश के भीतर हैं जो करप्सन से इस देश को खोखला कर रहे हैं इसलिए हमें सोना नहीं जागना. यह बात भले सही है लेकिन जिस तरह से इसे फिल्म में लाया गया है.वह पूरी तरह से बोझिल है.
फिल्म की स्क्रीनप्ले लचर है. पूरी तरह से अन्ना पर ही फोकस. वन मैन आर्मी की तरह उन्हें दिखाया गया है. फिर चाहे सरहद पर सेना के तौर पर उनको लड़ते दिखाना या फिर अनशन. यह बात फिल्म को कमज़ोर कर जाती है. उनसे जुड़े लोग केजरीवाल ,प्रशांत भूषण सहित कोई भी पात्र को फिल्म में विस्तार से नहीं दिखाया गया है. प्रसिद्ध लोकपाल बिल को भी सरसरी तौर पर छुआ गया है.
केजरीवल और अन्ना की अनबन वाली घटना तक का फिल्म में कहीं जिक्र नहीं है. फिल्म में अन्ना के सिर्फ संत वाले पहलु का ही जिक्र हुआ है. दृश्यों के संयोजन में भी यही बात नज़र आई है. जब अन्ना को पकड़ने पुलिस आती है और पूरा गांव उनके साथ खड़ा होता है तो तो जलियावाला बाग की तरह उस सीन का ट्रीट मेन्ट अजीब सा लगता है. ऐसा ही दृश्य रालेगांव में शराब की फैक्ट्री वाला दृश्य है जिसमें वह मुम्बइया एक्शन हीरो के तौर पर नज़र आते हैं।यह बायोपिक फिल्म सिनेमा और मनोरंजन की कसौटी पर खरी नहीं उतरती है. सिर्फ महिमा मंडन का प्रयास लगती है.
अभिनय की बात करें तो लेखक और निर्देशक शशांक उदापुरकर ने फिल्म में अभिनय की भी जिम्मेदारी संभाली है. उन्होंने अन्ना के हाव भाव और बॉडी लेंग्वेज को परदे पर उतारा है लेकिन कई बार वह चूकते नज़र आये हैं खासकर भाषण वाले दृश्य में तनीषा परदे पर पत्रकार की भूमिका में औसत रही हैं.
गोविन्द नामदेव के न किरदार में नयापन था और न ही उनके अभिनय में. रजत छोटी सी भूमिका में नज़र आये हैं. फिल्म के संवाद किशन नाम है मेरा घिसे पिटे से लगते हैं. फिल्म का संगीत भी इसके कमज़ोर पहलु में से ही एक है. कुलमिलाकर यह फिल्म पूरी तरह से निराश करती है.