II वसीम अकरम II
अदाकारी की दुनिया की अजीमतरीन शख्सियत ओम पुरी साब अब हमारे बीच नहीं रहे. दुआ है कि उनकी रूह को इंतेहाई सुकून मिले. उनकी शख्सीयत के बारे में तो ढेर सारी जानकारियां नेट पर मौजूद हैं, लेकिन मैं यहां उनसे हुई एक मुलाकात का जिक्र करना लाजिमी समझता हूं, क्योंकि जब भी अच्छे लोग हमारे बीच से गुजर जाते हैं, तो उनकी यादों के सिवा हमारे पर काफी-कुछ नहीं बचता. अचानक उनके जाने के बाद उनके साथ का वह छोटा सा लम्हा मेरी आंखों में तैरने लगा है और उस लम्हे को दर्ज करने के लिए मेरी उंगलियां कंप्यूटर के कीबोर्ड पर टपकने लगी हैं.
एक उम्दा कलाकार के तौर पर ओम पुरी साब से मेरी पहली मुलाकात तब हुई थी, जब उनकी पहली फिल्म ‘जाने भी दो यारों’ देखी. बिल्डर आहूजा के किरदार में ओम पुरी मुझे भा गये. लेकिन, दिसंबर 2012 में उनसे आमने-सामने मुलाकात तब हुई, जब पंजाबी थिएटर फेस्टिवल में पेश किये जानेवाले जावेद सिद्दीकी के नाटक ‘तेरी अमृता’ की तैयारियों के सिलसिले वे दिल्ली आये हुए थे. इस नाटक में दिव्या दत्ता भी मुख्य किरदार में थीं.
ओम पुरी के किरदार का नाम जुल्फिकार हैदर था और दिव्या दत्ता के किरदार का नाम अमृता निगम था. दिसंबर की सर्द शाम में मंडी हाउस के आसपास घूमते हुए उनसे एक इत्तेफाकन मुलाकात हुई थी. तकरीबन 25 साल बाद थिएटर की दुनिया में ओम पुरी ने वापसी की थी और नाटक ‘तेरी अमृता’ को लेकर वे बेहद खुश थे. मेरे आदाब पर जवाब के साथ हम लोग ऐसे बातें करने लगे जैसे हमारे बीच बरसों का याराना हो. तब सेल्फी का दौर शुरू ही हुआ था, लेकिन मेरे पास कैमरेवाला फोन नहीं था और न ही उनकी खनकदार बातों के बीच कोई तस्वीर लेने का ख्याल ही आया. उनके साथ तकरीबन आठ-दस लोग और थे.
तब 62-63 साल की उम्र रही होगी उनकी. गजब का था उनका बेबाकपन. गजब की थी उनकी सहजता. ठीक वैसे ही जैसे जब कभी हम घर जाते हैं, तो घर के बड़े-बुजुर्ग खैर-खैरियत पूछने के बाद बैठ कर दुनिया-जहान की बातें करने लगते हैं. अक्सर उन बातों में सहजता से भरी ढेर सारी चिंताएं होती हैं. उस वक्त ओम पुरी की मायूसी हिंदी थिएटर और उसके दर्शकों को लेकर थी.
उनकी मायूसी हिंदी नाटकों से हर आम व खास के जुड़ाव को लेकर थी. मैंने कहा कि दिल्ली में तो थिएटर खूब देखा जाता है, और काफी लोग अरसे से नाटकों का इंतजार करते रहते हैं. तब वे कहने लगे कि बंगाल में दिन भर मछली बेचने के बाद शाम को मच्छी वाला थिएटर देखने चला जाता है. क्या ऐसा दिल्ली में कहीं दिखता है? जाहिर है, ऐसा दिल्ली में नहीं दिखता. मैं चुप हो गया. मेरी थोड़ी देर की खामोशी के बाद वे खुद ही कहने लगे- हिंदी थिएटर को मूल पटकथा पर काम करना होगा, दूसरी जबानों के नाटकों को हिंदी में पेश करने से काम नहीं चलने वाला.
हम सब टहलते हुए फिरोज शाह रोड पर एक चाय की टपरी पर चाय पीने के लिए रुके. अमूमन दिल्ली में चाय वाले बैठने के लिए कोई बेंच नहीं रखते, क्योंकि दिल्ली खड़े-खड़े ही चाय सुड़कती है. ओम पुरी साब ने चाय वाले से प्लास्टिक वाला स्टूल मांगा और उस पर बैठ गये. उनकी इस सादगी में उनके एक महान अभिनेता होने का अभिमान कहीं नहीं था. जब चाय खौलने लगी तो उन्होंने चाय वाले से टोस मांगा. चाय वाले के पास टोस नहीं था, मटरी थी और बन मक्खन था.
ओम पुरी साब कहने लगे- जो मजा चाय के साथ टोस खाने में है, वह किसी और में नहीं. मैंने कहा कि दिल्ली वालों को छोले-भटूरे से फुरसत मिले तब तो वे चाय-टोस खायें, और जो चाय के शौकीन हैं भी, वे सिगरेट सुलगा लेते हैं. यह सुनकर सब हंसने लगे. गुलजार साब के साथ चाय और टोस खाने के किस्से काफी मशहूर थे. इसी तरह हम सबने खूब सारी बातें की. उन बातों में कहीं भी ऐसा नहीं लग रहा था कि हम हिंदी सिनेमा के एक बड़े अदाकार से बात कर रहे थे.
ऐसा लग रहा था जैसे हम अपने एक बुजुर्ग दोस्त से बात कर रहे थे, जो हम सबमें अपनी नौजवानी देख रहा हो. एक ऐसे फनकार से बात कर रहे थे, जो अपने फन को लेकर फिक्रमंद हो, अपने चर्चित चहेरे या सिनेमाई दुनिया को लेकर नहीं. उनका पहला प्यार ही थिएटर था, इसलिए भी वे इसके लिए ज्यादा फिक्रमंद नजर आते थे. ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे, इस ऐतबार के साथ कि हिंदी थिएटर की दुनिया उनकी फिक्र पर गौर करेगी और उनके ख्वाब को पूरा करेगी.