Bastar- The Naxal Story: निर्देशक सुदीप्तो सेन, निर्माता विपुल अमृतलाल शाह और अभिनेत्री अदा शर्मा की तिकड़ी 15 मार्च को सिनेमाघरों में रिलीज को तैयार फिल्म ‘बस्तर द नक्सल स्टोरी’ में एक बार फिर दिखने आने वाली है. दरअसल, बीते साल की सफल फिल्मों में शुमार ‘द केरल स्टोरी’ से भी इन तीनों का नाम जुड़ा हुआ था. इस वजह से यह फिल्म भी इन दिनों सुर्खियों में है. मेकर्स इस फिल्म के जरिये बस्तर में नक्सलवाद की समस्या की असल सच्चाई को सामने लाने की कोशिश बता रहे हैं. इस फिल्म की मेकिंग और दूसरे पहलुओं पर उर्मिला कोरी की बातचीत.
दस वर्षों का रिसर्च वर्क है
बस्तर द नक्सल स्टोरी में निर्देशक सुदीप्तो सेन इस फिल्म के रिसर्च वर्क से दस साल से अधिक समय से जुड़े हैं. माओवादी संघर्ष को उन्होंने करीब से देखा है. वे कहते हैं कि 57 से शुरू होकर आज भी मानवीय त्रासदी का सिलसिला खत्म नहीं हुआ. एक महीने भी नहीं हुए हैं, जब चार और सुरक्षा जवानों को मार दिया गया. आंकड़ों की बात करें, तो 17 हजार पुलिस जवान अब तक बस्तर में मारे जा चुके हैं. पूरे भारत में नक्सल आतंक से मारे गये लोगों की संख्या और ज्यादा है. मेरे रिसर्च का तो उससे भी अधिक आंकड़ा है. नेशनल ह्यूमन राइट कमीशन का नंबर 55 हजार के आसपास है. उनमें 15 हजार से ज्यादा सुरक्षा जवान हैं. कभी न कभी ये कहानी बोलना ही था, क्योंकि लोगों को जानना जरूरी है कि देश के सेंटर में अभी तो एपीसेंटर बना हुआ है. पहले 173 डिस्ट्रिक्ट प्रभावित थे. फिलहाल, 39 में थोड़ा बहुत और 32 में बहुत ज्यादा माओवादी प्रभाव है. हम इसके ऊपर बहुत दिनों से काम कर रहे थे. अभी एक जगह पर आकर हमने इस बात को महसूस किया कि इस पर फिल्म बनानी चाहिए. फिर स्क्रिप्ट पर काम हुआ. आप जानते हैं, इस तरह के विषय पर एक दिन में स्क्रिप्ट तैयार नहीं होता है. इसलिए दस वर्षों का रिसर्च वर्क और कई महीने स्क्रिप्ट पर दिये गये, तो फिल्म बनी.
‘द केरल स्टोरी’ के रिलीज से पहले ही तय था बस्तर पर फिल्म बनेगी
बीते साल रिलीज हुई सुदिप्तो सेन और निर्माता विपुल शाह की फिल्म ‘द केरल स्टोरी’ ने टिकट खिड़की पर 300 करोड़ का आंकड़ा पार किया था. उस फिल्म की जबरदस्त कामयाबी के बाद बस्तर पर फिल्म बनाने का फैसला हुआ. इस तरह की बातों को निर्माता विपुल शाह सिरे से खारिज करते हुए बताते हैं कि ‘द केरल स्टोरी’ की रिलीज के पहले ही हमने तय कर लिया था कि हम इस पर फिल्म बनायेंगे. दादा का रिसर्च 10 साल का है. उन्होंने इस माहौल को करीब से देखा है और आठ-दस सालों में बहुत रिसर्च किया है. उन्होंने ये रिसर्च केरल स्टोरी के दौरान ही मुझसे साझा कर दिया था, जिससे उस वक्त ही यह तय हो गया था कि यह अगली फिल्म होगी. इस पर हम फिल्म बनायेंगे. मैं हर तरह की फिल्में बनाना चाहता हूं, लेकिन जब इस तरह की इश्यू बेस्ड फिल्में मेरे पास आयेंगी, तो मैं उस फिल्म को सबसे पहले बनाना चाहूंगा.
अदा शर्मा किरदार को समझने के लिए गयी थीं
बस्तर अदा शर्मा फिल्म में आइपीएस नीरजा माधवन की भूमिका को निभा रही हैं. अपने किरदार के लिए अदा ने बहुत मेहनत की है. फिल्म के निर्देशक सुदीप्तो बताते हैं कि यह फिल्म छत्तीसगढ़ के बस्तर की कहानी है और बस्तर में दांतेश्वरी देवी मंदिर का खासा महत्व है. वहां के लोग जब भी कोई नया काम शुरू करते हैं, तो मां का आशीर्वाद जरूर लेते हैं. अदा भी फिल्म की शुरुआत से पहले बस्तर के उस मंदिर में मां का आशीर्वाद लेने गयी थीं. सिर्फ यही नहीं, वह सुरक्षा जवानों और माओवादियों के बीच हो रही जंग को ग्राउंड लेवल पर जानना चाहती थीं. एक एक्टर के तौर पर उनकी बारीकियों को पकड़ना चाहती थीं. जंगलों के बीच में यह लड़ाई कैसे होती है. इस दौरान हथियारों को किस तरह से हैंडल किया जाता है, उन्होंने बहुत बारीकी से इस पहलू को समझा. वह वहां सीआरपीएफ में काम कर रही महिलाओं से भी मिलीं, ताकि वह उनके नजरिये और जद्दोजहद को बखूबी समझ सकें.
छह किलो की असल बंदूक के साथ कलाकारों ने की है शूटिंग
फिल्म की कहानी बस्तर पर आधारित है, लेकिन सुरक्षा कारणों की वजह से फिल्म की शूटिंग बस्तर में नहीं हुई है. यह फिल्म महाराष्ट्र और गुजरात बॉर्डर के जंगलों में हुई है. गढ़चिरौली में भी शूटिंग हुई है. अभिनेत्री अदा शर्मा बताती हैं कि फिल्म की शूटिंग रियल लोकेशन की वजह से बहुत मुश्किल थी. उस पर से हमने असल बंदूकों को हाथ में लिया था. छह किलो की बंदूकों के साथ एक्शन सीन करना आसान नहीं था. पहाड़, पत्थर जैसे लॉजिस्टिक इश्यू आये दिन कोई न कोई परेशानी खड़े कर रहे थे, लेकिन हम सभी इन मुश्किलों को भुलाकर दिल से काम कर रहे थे, क्योंकि हम सभी ये कहानी बोलना चाहते थे. वैसे अपनी बात करूं, तो मैंने जंगल में शूटिंग को एन्जॉय किया. छह फुट से बड़े मैंने मकड़ी के जाले देखें, मकड़ी अपने जाल में कीड़े-मकोड़े को कैसे पकड़ रही है. यह भी देखा, जो मेरे लिए एक अलग अनुभव था.
फिल्म में दिखेंगी दिल दहला देने वाली असल घटनाएं
‘द केरल स्टोरी’ के बाद निर्देशक सुदीप्तो सेन की यह फिल्म भी कई दिल दहला देने वाली असल घटनाओं को सामने लेकर आयेगी. फिल्म के निर्देशक सुदीप्तो सेन बताते हैं कि आपको पता है, बस्तर में भारत का झंडा नहीं फहरा सकते हैं. अगर किसी ने कोशिश की, तो उसे मार दिया जाता है. ये सच यह फिल्म लायेगी. हमारे देश के अंदर अबूझमाड़ नामक एक जंगल है. पांच हजार स्क्वायर का, जो बस्तर के अंदर है. उसके अंदर सुरक्षा जवान नहीं जा सकते हैं. इस जंगल में माओवादियों की मनमानी चलती है. उन जंगलों के आसपास रहने वाले हर घर से एक बच्चा माओवादियों को देना पड़ता है, ताकि वह यह खूनी जंग जारी रख सके. जो परिवार मना करता है, उसे मार दिया जाता है. फिल्म में इन बातों के साथ-साथ कई दिल दहला देने वाली घटनाओं को भी फिल्म में जोड़ा है.
जेएनयू विवाद पर
यह फिल्म जेएनयू को लेकर विवाद में है यह फिल्म फिल्म के ट्रेलर में जेएनयू को कथित तौर पर नक्सलियों का हमदर्द बताया गया है. ट्रेलर लॉन्च के बाद ही यह पहलू विवादों में है. फिल्म के निर्माता विपुल अमृतलाल शाह बताते हैं कि यह विवाद के लिए नहीं दिखाया गया, बल्कि यह हकीकत है. हमारे जवानों की मौत पर वहां सेलिब्रेशन होता है. एक तरफ जवानों पर पूरा देश गर्व महसूस करता है, वहीं कुछ लोग हमारे देश के जवानों की शहादत पर सेलिब्रेट करते हैं. उस विचारधारा का विरोध बहुत महत्वपूर्ण है और सभी को मिलकर करना चाहिए. देखिये, आप किसी पॉलिटिकल पार्टी के खिलाफ हो सकते हैं. आप किसी नेता के खिलाफ हों, लेकिन आप देश के खिलाफ हैं. इनके खिलाफ मुझे लगता है कि देश के 142 करोड़ लोगों को खड़ा हो जाना चाहिए, क्योंकि यह देश के खिलाफ है. न सिर्फ बस्तर में बसने वाले नक्सली, बल्कि शहरों में बैठे जो इंटेलेक्चुअल है, जो पूरा एक नेक्सस चलाते हैं, उनको भी विरोध कर हमें खत्म करना पड़ेगा.
फिल्म दिखायेगी नक्सली आतंक पैसों का खेल है
57 साल से भी पुराने नक्सलवाद की समस्या पर यह फिल्म दो घंटे में हल तो नहीं दे रही है, लेकिन यह फिल्म बहुत जरूरी सवाल उठा रही है. ऐसा फिल्म के निर्देशक सुदीप्तो सेन कहते हैं कि जो लोग सिस्टम से नक्सलियों को सताया हुआ बोल रहे हैं.उनसे मैं सवाल पूछना चाहता हूं कि ये लोग बंदूक उठाकर गरीबों को ही सता रहे हैं. अगर आपको सिस्टम से परेशानी है, तो आप कानून का रास्ता अपनायें. मैं बताना चाहूंगा कि बस्तर से 100 किलोमीटर तो झाबुआ है. वहां शत प्रतिशत जनसंख्या आदिवासियों की है. भील जैसे प्रिमिटिव ट्राइबल लोग वहां रहते हैं, लेकिन वहां पर तो माओवादी नहीं हैं. माओवादी सिर्फ बस्तर में हैं. उनके सपोर्टर शहरों में हैं. हमने उसको ढूंढ़ने की कोशिश की है कि क्या वजह है कि बस्तर से ये लोग छोड़कर जाना नहीं चाहते हैं. 10 से 12 साल के बच्चे बंदूक लेकर जंगलों में घूम रहे हैं. कांट्रेक्टर की दलाली, मिनरल्स, स्टोन्स से वहां कमाई होती है और फिर उसका बड़ा हिस्सा शहर के लोगों को भी मिलता है. ये पूरा पैसे का खेल है, जिसमें सभी मिले हुए हैं. इसके साथ ही यह फिल्म राजनीतिक विफलता को भी सामने लायेगी. मैं आपको ये आश्वासन दे सकता हूं कि हमने कोई कोना नहीं छोड़ा है बस्तर की कहानी बोलते हुए. हमको मालूम था कि इसका पॉलिटिकल बैकलैश होगा. हमारी असफलता क्या थी और उसका फायदा लेकर कौन-कौन तत्वों ने इस बस्तर में अपना जगह जमाया और कहां पर पहुंचाया, इस पूरी कहानी को जिम्मेदारी और एक-एक दस्तावेज के साथ हमने पूरे दो घंटे की फिल्म में बताया. हमने तर्क के लिए कोई स्पेस नहीं छोड़ा.