अमीर खुसरो के साये में सिनेमा, पढ़ें ये दिलचस्प किस्सा
हिंदी के अलावा बांग्ला और भोजपुरी के सिनेमा में भी खुसरो के कलाम इस्तेमाल हुए. पाकिस्तान की तो कई फिल्मों में उनकी रचनाएं ली गयीं. यहां तक कि हॉलीवुड की कुछ एक फिल्मों में भी खुसरो का लिखा इस्तेमाल हुआ.
सन् 1253 में आज के उत्तर प्रदेश के कासगंज जिले के पटियाली में जन्मे अबुल हसन यमीनुद्दीन खुसरो, यानी अमीर खुसरो एक प्रख्यात कवि, शायर, लेखक, गायक और संगीतज्ञ थे. उस दौर में प्रचलित फारसी से हट कर उन्होंने आसान उर्दू और हिंदी में लिखा. हिंदी की खड़ी बोली के प्रचलन का श्रेय खुसरो को ही जाता है. गायन की ‘कव्वाली’ विधा का सेहरा भी खुसरो के ही माथे बंधता है. उन्होंने भारतीय और ईरानी रागों का सुंदर मिश्रण कर संगीत में भी नवीन धारा का प्रवाह किया. स्वाभाविक है कि ऐसी शख्सियत के प्रभाव से सिनेमा अछूता नहीं रह सकता.
खुसरो का रचा ‘लखी बाबुल मेरे काहे को दीन्ही बिदेस
वर्ष 1948 में आई ‘सुहाग रात’ में खुसरो का रचा ‘लखी बाबुल मेरे काहे को दीन्ही बिदेस…’ था. उसी साल आयी ‘हीर रांझा’ में यही गीत ‘काहे को ब्याही बदेस रे सुन बाबुल मोरे…’ के रूप में था.‘सुहागन’ (1954) में यह गीत ‘काहे को ब्याही बिदेस…’ की तर्ज में आया. 1968 में आई ‘नादिरशाह’ में यह गीत ‘काहे को ब्याही बिदेस, हो लखी बाबुल मोरे…’ के रूप में आता है. वर्ष 1981 में मुजफ्फर अली की फिल्म ‘उमराव जान’ (1981) में खैय्याम के संगीत में यह गीत, खैय्याम की गायिका पत्नी जगजीत कौर की आवाज में ‘काहे को ब्याहे बिदेस, अरे लखिया बाबुल मोरे…’ बन कर आया.
खुसरो की कव्वाली शैली
खुसरो की कव्वाली शैली का संभवतः पहला इस्तेमाल हिंदी सिनेमा में पीएल संतोषी की फिल्म ‘बरसात की रात’ (1960) में नजर आता है. कव्वाली ‘न तो कारवां की तलाश है… ’ में साहिर लुधियानवी ने खुसरो के लिखे ‘बहुत कठिन है डगर पनघट की, कैसे मैं भर लाऊं मढ़वा से मटकी…’ को अलग शैली और शब्दों में पिरो कर समाहित किया. 1962 में आई राज खोसला की फिल्म ‘एक मुसाफिर एक हसीना’ के मोहम्मद रफी, आशा भोंसले के गाए कव्वालीनुमा गीत ‘ओ यार जुल्फों वाले…’ में आशा ने खुसरो की लिखी पंक्तियां ‘जबान-ए-यार मन तुर्की, वा मन तुर्की नमी दानम…’ गाया था जिसे गीतकार शेवान रिजवी ने बड़ी ही खूबसूरती से इस गीत में पिरो दिया था.
श्याम बेनेगल निर्देशित फिल्म ‘जुनून’
श्याम बेनेगल निर्देशित फिल्म ‘जुनून’ (1978) की तो शुरुआत ही खुसरो के लिखे ‘खुसरो रैन सोहाग की, जागी पी के संग, तन मोरा मन पिउ का, दोउ भये एक रंग…’ से होती है. इसी गीत में खुसरो के और भी कई दोहे हैं जिसके बाद ‘आज रंग है, हे मां रंग है री…’ शुरू होता है. 1982 में आई ‘नेक परवीन’ में नसीम अजमेरी की आवाज में यह गीत ‘आज रंग है ऐ मां रंग है री…’ आता है. इसे गुलजार ने भी विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘मकबूल’ (2004) के गाने ‘झिन मिन झीनी…’ में बड़े कायदे से पिरोया है. 2011 में योगेश मित्तल की फिल्म ‘ये फासले’ में भी यह गीत आता है. 2013 में आई ‘आई डोंट लव यू’ में खुसरो के लिखे को ‘मोहे अपने ही रंग में रंग दे रंगीले…’ की शक्ल में फरीद हसन ने गाया. 2015 में आई कबीर खान निर्देशित फिल्म ‘बजरंगी भाईजान’ में यह गीत निजामी बंधुओं की आवाज में खास ‘खुसरवी’ शैली में आता है. ‘जुनून’ (1978) के अंतिम दृश्य में ‘चल खुसरो घर आपने…’ आता है, जो खुसरो के लिखे ‘गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस…’ से प्रेरित था.
‘बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए…’
वर्ष 1938 में आई ‘स्ट्रीट सिंगर’ में कुंदन लाल सहगल ने एक गीत ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए…’ गाया था जिसकी गिनती हिंदी सिनेमा के अमर गीतों में की जाती है. इस गीत को अवध के नवाब वाजिद अली शाह का लिखा हुआ माना जाता है. लेकिन कुछ लोगों का यह भी मानना है कि असल में यह अमीर खुसरो का रचा हुआ है जो उन्होंने अपनी बेटी की शादी के समय लिखा था. 1974 में आई ‘आविष्कार’ में भी यह गीत मिलता है. 1949 में आई ‘बड़ी बहन’ में कमर जलालाबादी ने खुसरो की एक फारसी गजल को हिंदी में ‘वो पास रहें या दूर रहें, नजरों में समाए रहते हैं…’ के रूप में लिखा था. 1954 में आई ‘शबाब’ में एक गीत ‘मन साजन ने हर लीना…’ में खुसरो के लिखे पर आधारित पंक्तियां ‘जो मैं जानती बिसरत हैं सैंया, घुंघटा में आग लगा देती…’ आती हैं. 1956 में आई ‘बसंत बहार’ में पंडित भीमसेन जोशी व मन्ना डे का गाया ‘केतकी गुलाब जूही चंपक बन फूले…’ भी खुसरो के रचे पर आधारित है.
‘छाप तिलक सब छीनी रे..’
1978 में आयी ‘मैं तुलसी तेरे आंगन’ की शुरुआत खुसरो के लिखे ‘सैयां रूठ गए मैं मनाती रही…’ से होती है जिसे प्रख्यात ठुमरी गायिका शोभा गुर्टू ने गाया था. इसी फिल्म में खुसरो का लिखा ‘छाप तिलक सब छीनी रे, मोसे नैना मिलाई के…’ भी था. यह गीत भी फिल्मों में बहुत बार अलग-अलग तरह से आया है. उमराव जान’ (1981) में एक गीत है-‘प्रथम धर ध्यान गणेश, ब्रह्मा विष्णु महेश….’ पूरे मुस्लिम परिवेश में बनी होने के बावजूद इस गीत में गणेश, ब्रह्मा, विष्णु, महेश के साथ सूर्य, कान्हा, महादेव और हजरत निजामुद्दीन औलिया तक की स्तुति इस फिल्म को एक अलग मुकाम पर खड़ा करता है. यह असल में अमीर खुसरो की श्रीकृष्ण की स्तुति में लिखी हुई पुस्तक ‘हालात-ए-कन्हैया’ से ली हुई उन्हीं की रचना है. इस फिल्म में भी इसका संगीत उसी खास ‘खुसरवी’ शैली में है. इसका हर अंतरा एक अलग राग में है. इसी फिल्म में एक और गीत है जिसके बोल हैं-‘झूला किन्ने डाला रे अमरैयां….’ इसे भी उस्ताद गुलाम मुस्तफा खान ने गाया था.
‘कहूं कैसे सखी मोहे लाज लगे…’
वर्ष 1982 की फिल्म ‘बाजार’ में ‘चले आओ सैयां रंगीले मैं वारी रे…’ को एक ‘पारंपरिक’ गीत बताया गया है. असल में यह खुसरो का रचा गीत है जिसे उन्होंने अपनी बेटी मैमूना के कहने पर लिखा था. जेपी दत्ता की ‘गुलामी’ (1985) के गीत ‘जिहाल-ए-मस्कीं, मकुन-ब-रंजिश, बहाल-ए-हिजरा, बेचारा दिल है…’ में गीतकार गुलजार खुसरो की ही रचना ‘जिहाल-ए-मिस्कीन, मकुन तगाफुल, दुराए नैना, बनाए बतियां…’ से प्रभावित होते हैं. 2005 में आयी ‘यहां’ में कव्वाल निजामी बंधुओं ने खुसरो का लिखा गीत ‘कहूं कैसे सखी मोहे लाज लगे…’ गाया है. 2013 में आई ‘रांझणा’ के एक गीत में गीतकार इरशाद कामिल खुसरो के लिखे शेर ‘तू मन शुदी मन तू शुदम…’ का इस्तेमाल करते हैं. इसी फिल्म में इरशाद खुसरो की ‘ऐ सखी साजन…’ वाली पहेलियों को भी एक अलग अंदाज में ‘बताओ बताओ है क्या यह सहेली…’ गीत की शक्ल में लाते हैं. खुसरो की पहेलियों (जिन्हें ‘कह मुकरियां’ कहा जाता है) की शैली पर आधारित एक गीत ‘बाबुल’ (1986) में था. ‘ऊंची अटारी पलंग बिछाया…’ गीत में ‘कह मुकरी’ शब्द भी आते हैं. 1997 में आई ‘सरदारी बेगम’ में जावेद अख्तर का लिखा गीत ‘चली पी के नगर…’ है, जो असल में खुसरो की रचना पर आधारित है. 2003 में आई ‘चोरी-चोरी’ में खुसरो के लिखे पर आनंद बख्शी ने ‘अम्मा मेरे बाबुल को भेजो री…’ लिखा था. 2021 में आई फिल्म ‘शादीस्थान’ में भी खुसरो का लिखा एक गीत ‘कृपा करो महाराज मुईनुद्दीन…’ सुनाई पड़ता है.
‘अमीर खुसरो’ नामक टीवी धारावाहिक
हिंदी के अलावा बांग्ला और भोजपुरी के सिनेमा में भी खुसरो के कलाम इस्तेमाल हुए. पाकिस्तान की तो कई फिल्मों में उनकी रचनाएं ली गयीं. यहां तक कि हॉलीवुड की कुछ एक फिल्मों में भी खुसरो का लिखा इस्तेमाल हुआ. 2013 में दूरदर्शन पर खुसरो के जीवन पर आधारित ‘अमीर खुसरो’ नामक टीवी धारावाहिक में उनकी बहुत सारी रचनाओं को शामिल किया गया था. 2018 में आई संजय लीला भंसाली निर्देशित फिल्म ‘पद्मावत’ में खिलजी के दरबार में खुसरो का किरदार भी था.