Dev Anand 100th Birth Anniversary: महान कलाकार देव आनंद की आज जन्मशती है. देव साहब महज एक अभिनेता नहीं, बल्कि अपने आप में अदाकारी की एक पूरी संस्था थे. अपने अभिनय से देव साहब ने भारतीय सिनेमा जगत को एक नया आयाम दिया. उनकी अभिनीत फिल्में आज भी लोगों को रूमानी दुनिया में लेकर चली जाती हैं. वे बॉलीवुड के इकलौते ऐसे सुपरस्टार रहे, जिन्होंने लगातार छह दशकों तक सिनेमा के प्रति अपने जुनून को कम नहीं होने दिया. जन्मशती के मौके पर पेश है प्रभात खबर का विशेष पन्ना.
बॉलीवुड के अधिकांश सफल अभिनेताओं का एक दौर रहा, लेकिन देव आनंद ताउम्र सदाबहार बने रहे. आज भी वे लोगों के लिए एक प्रेरणास्रोत हैं. देव साहब ने कई पीढ़ियों की महिलाओं के दिलों पर राज किया. वे हिंदी सिनेमा के इकलौते अभिनेता रहे, जिन्हें ‘स्टाइल आइकन’ कहा गया. एक खास अंदाज में बोलना, झुक कर लहराते हुए चलना, पैर से चिपके पतलून, गले में स्कार्फ, सिर पर बैगी टोपी और आंखों में देखती उनकी आंखें. यह था देव आनंद का अंदाज-ए-बयां. उन्होंने अपनी ज्यादातर फिल्मों में बेफिक्र, अल्हड़, विद्रोही व रूमानी युवा का चरित्र जिया है. उन्होंने भारतीय सिनेमा में रूमानी अदाकारी को नया रंग-रूप दिया.
देव आनंद के भीतर की जिंदादिली ने उन्हें 80 वर्ष की उम्र में भी बूढ़ा नहीं होने दिया. वे न थके, न रुके बस अपनी रचनात्मकता के सहारे आगे बढ़ते चले गये. अपने दौर में दिलीप कुमार, देव आनंद और राज कपूर बॉलीवुड की त्रिमूर्ति कहलाते थे. तीनों ही हमउम्र और सुपरस्टार थे. दिलीप कुमार जहां अपने गंभीर अभिनय के लिए जाने जाते थे, वहीं राज कपूर ने भारतीय फिल्मों को सरहद के पार पहुंचाया, लेकिन अपने देश के घर-घर में जो लोकप्रिय हुआ वह देव आनंद थे. देव साहब अपनी फिल्मों के साथ-साथ जीने के अंदाज के लिए भी जाने जाते थे. वे न सिर्फ एक अभिनेता, निर्माता व निर्देशक थे, बल्कि उनके भीतर एक लेखक भी छिपा था. वे हर दिन डायरी जरूर लिखा करते थे. उनकी आत्मकथा रोमांसिंग विद लाइफ उनके भीतर के छिपे लेखक को सामने लाती है. देव साहब जब निर्माता बने, तो जो भी लेखक-निर्देशक उन्हें फोन करता, वे उन्हें मिलने जरूर बुलाते.
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देव आनंद का बचपन पंजाब के गुरदासपुर में बीता. उनको बचपन से ही फिल्में देखना और फिल्मी पत्रिकाएं पढ़ने का शौक था. फिल्मों के प्रति उनका लगाव यहीं से पैदा हुआ. उच्च शिक्षा के लिए देव आनंद लाहौर पहुंचे. वर्ष 1943 में लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज से उन्होंने अंग्रेजी में स्नातक किया. वह एमए भी करना चाहते थे, लेकिन परिवार की माली हालत अच्छी नहीं थी. ऐसे में जुलाई, 1943 में अपनी जेब में 30 रुपये व आंखों में अभिनेता बनने का सपना लेकर देव आनंद फ्रंटियर मेल से लाहौर से मुंबई आ गये. मुंबई आकर वे इप्टा से जुड़ गये. यहीं से शुरू हुआ अभिनय की दुनिया में संघर्ष का उनका सफर. समय गुजर रहा था, लेकिन फिल्मों में काम मिलने की कोई उम्मीद नहीं दिख रही थी. जब उन्हें फिल्मों में काम नहीं मिल रहा था, तो उन्होंने चर्चगेट स्थित आर्मी सेंसर ऑफिस सहित कई जगह नौकरी भी की.
वर्ष 1945 में उन्हें पता चला कि पुणे स्थित ‘प्रभात फिल्म कंपनी’ को अपनी आने वाली फिल्म के लिए एक सुंदर नौजवान की तलाश है. अगले दिन देव आनंद कंपनी के मालिक बाबूराव पाई के ऑफिस पहुंचे. बाबूराव पाई उनके बेबाक अंदाज से बेहद प्रभावित हुए और उन्हें अगले दिन फिल्म के निर्देशक पीएल संतोषी से मिलने को कहा. इस तरह प्रभात फिल्म कंपनी के बैनर तले वर्ष 1946 में रिलीज हुई फिल्म ‘हम एक हैं’ से देव आनंद का फिल्मी सफर शुरू हो गया.
देव साहब की पहली हिट फिल्म थी वर्ष 1948 में आयी ‘जिद्दी’. इस फिल्म ने बॉलीवुड में एक बड़े अभिनेता के तौर पर उनको स्थापित कर दिया. इस बीच आजादी व विभाजन के उथल-पुथल के दौरान प्रभात फिल्म कंपनी के साथ उनका कॉन्ट्रैक्ट भी खत्म हो गया. वे समझ चुके थे कि इस फिल्म इंडस्ट्री में मन का काम करने के लिए अपनी फिल्म कंपनी की जरूरत है. यही वजह रही कि वर्ष 1949 में अपने बड़े भाई चेतन आनंद के साथ मिलकर उन्होंने नवकेतन फिल्म्स की स्थापना की. फिर संगीतकार सचिन देव बर्मन को भी नवकेतन से जोड़ा. बर्मन दा ने ही देव साहब के अधिकांश फिल्मों में संगीत दिया है. वर्ष 1951 में आयी फिल्म बाजी की सफलता से नवकेतन फिल्म्स की ध्वजा फहराने लगी. नवकेतन फिल्म्स ने दर्जनों हिट्स सहित कुल 32 फिल्में बनायीं. इस बैनर तले देव साहब की आखिरी फिल्म वर्ष 2011 में आयी ‘चार्जशीट’ थी.
आरके नारायण की किताब ‘द गाइड’ पर आधारित फिल्म ‘गाइड’ को देव आनंद की करियर का सर्वश्रेष्ठ माना जाता है. विजय आनंद के निर्देशन में वर्ष 1965 में आयी इस फिल्म को पूरी दुनिया में सराहा गया. उस दौर के लिए वह समय से आगे की फिल्म थी. इसके अलावा उन्होंने कई यादगार फिल्मों में अभिनय किया, जिनमें काला पानी, तेरे घर के सामने, टैक्सी ड्राइवर, सीआइडी, ज्वेल थीफ, जॉनी मेरा नाम, तेरे मेरे सपने आदि शामिल हैं. इन फिल्मों में देव आनंद के अभिनय ने दर्शकों के दिलों पर अमिट छाप छोड़ी. इन फिल्मों के बाद देव आनंद की गिनती सदाबहार अभिनेताओं में होने लगी.
देव आनंद और सुरैया का प्रेम बॉलीवुड की सबसे शानदार प्रेम कहानियों में से एक है, लेकिन यह प्रेम शादी के मुकाम तक न पहुंच सकी. दोनों ने विद्या (1948), जीत (1949), शायर (1949), अफसर (1950), सनम (1951), दो सितारे (1951) जैसी फिल्मों में काम किया. इसी दौरान दोनों के बीच प्यार का राग पनपा. लगभग दो वर्षों तक चले प्रेम के इस सफर को रिश्ते का रूप देने के लिए देव आनंद ने सुरैया के लिए हीरे की एक अंगूठी खरीदी, लेकिन सुरैया की नानी को यह रिश्ता पसंद नहीं था. सुरैया परिवार के खिलाफ न जा सकीं. देव साहब अपनी आत्मकथा रोमांसिंग विद लाइफ में लिखते हैं कि सुरैया उस अंगूठी को लेकर समुद्र के किनारे गयी. उसे आखिरी बार प्यार से देखा और समुद्र की लहरों के हवाले कर दिया.
फिल्म इंडस्ट्री में देव आनंद के सबसे शुरुआती व नजदीकी दोस्त थे गुरुदत्त. इनकी पहली मुलाकात की कहानी बड़ी दिलचस्प है. अपनी फिल्म के सिलसिले में देव आनंद को प्रभात स्टूडियो, पुणे जाना पड़ता था. उस इलाके में एक ही लॉन्ड्री थी, जहां वे अपने कपड़े धुलवाया करते थे. एक दिन वे लॉन्ड्री पहुंचे, तो उनके कपड़े गायब थे. देव आनंद दूसरे कपड़े पहनकर जब स्टूडियो पहुंचे, उनकी नजर एक असिस्टेंट डायरेक्टर पर पड़ी. उसने वही कपड़े पहने थे, जो लॉन्ड्री से गायब हुए थे. वे उसके पास पहुंचे और कहा- तुम्हारे कपड़े बहुत अच्छे लग रहे हैं, कहां से लिये? लड़के ने उनकी तरफ देखकर जवाब दिया- मेरे नहीं हैं, लेकिन किसी को बताना मत. आज लॉन्ड्री वाले के यहां गया तो उसने मेरे कपड़े धोये नहीं थे, मुझे वहां यह कपड़ा बढ़िया लगा, तो उठा लाया. उसकी साफगोई से देव आनंद उसके मुरीद हो गये. वह लड़का कोई और नहीं, गुरुदत्त थे. यहीं से दोनों की दोस्ती शुरू हुई.
बाजी (1951), टैक्सी ड्राइवर (1954), सीआइडी (1956), पेइंग गेस्ट(1957), काला पानी (1958), काला बाजार (1960), हम दोनों (1961), तेरे घर के सामने (1963), गाइड (1965), तीन देवियां (1965), ज्वेल थीफ (1967), जॉनी मेरा नाम (1970), प्रेम पुजारी (1970), हरे रामा-हरे कृष्णा (1971), तेरे मेरे सपने (1971), हीरा पन्ना (1973)