बॉक्स ऑफिस पर सहवाग नहीं राहुल द्रविड़ की तरह परफॉर्म कर रही है स्वातंत्र्य वीर सावरकर… जानिए क्यों ऐसा कहा रणदीप हुड्डा ने
मुझे लगा था कि यह फिल्म सहवाग निकलेगी लेकिन राहुल द्रविड़ निकली है और यह सिलसिला लगातार चले जा रहा है.हमारी रिकवरी हो चुकी है.अभी हम प्रॉफिट में जा रहे हैं. देश ही नहीं विदेश में भी लोग इस फिल्म को पसंद कर रहे हैं. यह एक अलग तरीके सिनेमा को सामने लेकर आती है. पैसों के मामले में भी हम अच्छा कर रहे हैं.
Box Office : बॉलीवुड एक्टर रणदीप हुड्डा अपने किरदारों में रच – बस जाने के लिए जाने जाते हैं । उनकी हालिया रिलीज़ फ़िल्म स्वातंत्र्य वीर सावरकर में उन्होंने अपनी बॉडी ट्रांसफॉर्मेशन से एक बार फिर से सभी को चौंकाया है।रणदीप के लिए यह फ़िल्म इसलिए भी ख़ास है क्योंकि इस फ़िल्म से उन्होंने बतौर निर्देशक हिन्दी सिनेमा में अपनी शुरुआत की है । उनकी इस फ़िल्म और उससे जुड़ी चुनौतियों ,विवाद पर उर्मिला कोरी के साथ हुई बातचीत के प्रमुख अंश
स्वातंत्र्य वीर सावरकर की जर्नी को किस तरह से परिभाषित करेंगे ?
यह फिल्म मेरे लिए बहुत खास है क्योंकि मैं अब तक बतौर एक्टर ही फिल्मों में काम करता रहा हूं.इस पिक्चर में मैं एक्सीडेंटल डायरेक्टर बन गया. स्टोरी टेलर भी. फिल्म के अंत में जब तालियां बजती है, तो ऐसा लगा कि जैसे लोग मेरी पीठ थप- थपा रहे हैं.एक एक्टर के तौर पर मैं किस तरह का काम करता हूं वह जानते थे, लेकिन एक डायरेक्टर के तौर पर यह प्रशंसा बहुत ही खास है. कई बुजुर्ग लोगों ने आकर मेरे पर भी छुए. मुझे पैसे भी देने की कोशिश की जैसे मैं ही सावरकर हूं,तो बड़ी ख़ुशी होती है. हर एक कला का मुख्य मकसद ही होता है कि आप उसे जिज्ञासा और सवाल खड़े करें, जो मैंने अपनी इस फिल्म से कर दिया है. मैंने इतिहास को एक नए नजरिए से लोगों के सामने रखा है.
बॉक्स ऑफिस कलेक्शन से कितने खुश हैं? मुझे लगा था कि यह फिल्म सहवाग निकलेगी लेकिन राहुल द्रविड़ निकली है और यह सिलसिला लगातार चले जा रहा है.हमारी रिकवरी हो चुकी है.अभी हम प्रॉफिट में जा रहे हैं. देश ही नहीं विदेश में भी लोग इस फिल्म को पसंद कर रहे हैं. यह एक अलग तरीके सिनेमा को सामने लेकर आती है. पैसों के मामले में भी हम अच्छा कर रहे हैं.
खुद के निर्देशन में अभिनय करना आसान या मुश्किल था?
अपने करियर में मैंने 20-25 नए निर्देशकों के साथ काम किया है.एक फर्स्ट टाइम डायरेक्टर को एक मंझा हुआ एक्टर मिल जाए, जो एक्टिंग में इतना इंवॉल्व रहता है,तो इससे बड़ी चीज और क्या होगी. मैंने बतौर निर्देशक अपने परफॉर्मेंस और किरदार पर इतना ध्यान नहीं दिया,क्योंकि बाकी एक्टर्स और फिल्म मेकिंग के अलग-अलग डिपार्टमेंटस से मेरी बातचीत ज्यादा होती रहती थी. चूंकि मैंने सावरकर जी को घोंट कर पी लिया था, उनकी सोच को उनकी कहानी को क्योंकि मैं इस कहानी का सह लेखक भी हूं इसलिए मेरे लिए यह आसान रहा. वैसे भी मैं पिछले कई सालों से एक्टिंग करते हुए मॉनिटर नहीं देखता हूं.खुद से पता चल जाता है कि आप किरदार को सच्चाई से कर रहे हैं या नहीं. जब स्क्रीन पर बतौर निर्देशक मेरा नाम आता है तो उसे देखकर बहुत ही खास फीलिंग हुई.
यह फिल्म जब आपको ऑफर हुई थी तो आपका पहला रिएक्शन क्या था?
मेरा पहला रिएक्शन यही था कि मैं उन जैसा दिखता नहीं हूं और दूसरा था कि मैं उनके बारे में ज्यादा जानता नहीं हूं,तो इस पूरी फिल्म बनाने के प्रयास में मैंने उनको बहुत करीब से जाना. मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि यही रही है कि इस फिल्म के जरिए मैं सिर्फ उनकी लाइफ के इवेंटस ही नहीं बल्कि उनके व्यक्तित्व को और किस तरह से वह बदलते रहे हैं. वह भी मैं लोगों के सामने लेकर आया हूं. मुझे इस बात पर बहुत गर्व है क्योंकि किसी में यह हिम्मत ही नहीं थी कि वह सावरकर जी की कहानी को कहे क्योंकि वह बहुत विवादित रहे थे.उनके ऊपर जो पॉलिटिकल षड़यंत्र उनकी जिंदगी के बाद भी हुआ है. उसको जानने के बाद खुन्नस में आकर मैंने यह फिल्म बनायी है.इतिहास का क्या होता है कि एक नजरिया होता है, जिस हिसाब से आप उसे देख रहे हैं. उसे वक्त ना आप थे और ना मैं था. मैंने उसे जिस नजर से देखा है. जैसे रिसर्च की है. मैं उस पर बनाना चाहता था और मैंने वही किया .इस फिल्म में अपना तन, मन और धन सब कुछ लगा दिया.
कुछ लोगों का कहना है कि सावरकर को महान बताने में आपने कई क्रांतिकारियों को कमतर बना दिया है ,भगत सिंह ,सुभाष बोस सभी की प्रेरणा आपने सावरकर को ही बताया है ?
मैंने इस पर रिसर्च किया है. १९४० में सुभाष बोस वीर सावरकर जी के घर उनसे मिलने आये थे. पूरी रिकार्डेड कन्वर्सेशन है. लोग वहां मौजूद थे . गांधीजी जब उनसे तीनों टाइम मिले हैं , उसकी रिकार्डेड कन्वर्सेशन है. मैंने खुद से बनायी नहीं है. उनकी किताब सहस्त्र क्रांति सारे क्रांतिकारियों के लिए धर्म ग्रन्थ की तरह थी,जिसने सबको प्रेरित किया.ये फैक्ट है.भगत सिंह की आप जेल डायरी देखो,तो उसके अंदर चार -पांच कविताएं सावरकर जी की आपको मिलेगी . आज़ाद हिन्द फ़ौज में आपको यूनिफार्म और गन के साथ सावरकर जी किताब दी जाती थी. ये फैक्ट्स हैं. सेंसर बोर्ड ने फ़िल्म ऐसे ही पास नहीं कर दी है. सारी रिसर्च देखने के बाद ही उन्होंने पास किया है.
कईयों का कहना है कि चुनाव की वजह से यह फ़िल्म बनायी गई है, फिल्म को प्रोपगेंडा कहने पर आपका क्या कहना है ?
मुझे पता था कि कुछ लोग अपना राजनीतिक हित साधने के लिए मुझे ट्रोल करेंगे अनाप – शनाप बोलेंगे . इत्तेफाकन था कि फिल्म २२ मार्च को रिलीज हुई और चुनावों की घोषणा हुई. मैंने तो पिछले साल १५ अगस्त को भी रिलीज करने की कोशिश की थी। मैं एक ही बात कहूंगा कि फिल्म बिना देखे इसे प्रोपेगेंडा फिल्म बोलना गलत है, लेकिन इसके बावजूद या फिल्म रुकी नहीं बल्कि वर्ड ऑफ़ माउथ से ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंची है.
फिल्म की रिलीज के बाद क्या बदलाव जो आपको देखने और सुनने को मिला है ?हाल ही में मैं वीर सावरकर के स्मारक में गया था, जहां पर उनकी पैदाइश थी. वहां पर उनकी का इक्का दुक्का किताबें बिकती थी, जब से मेरी फिल्म आई है तब से 1 लाख से अधिक किताबें बिक चुकी है. सबके अंदर एक जिज्ञासा पैदा हो गई है.जो भी थिएटर में जा रहा है, खुश होकर एंटरटेन होकर और एजुकेट होकर वापस आ रहा है. मैंने यह डिस्ट्रक्टर फिल्म बनाई है. फिल्म में मेरा पहला स्टेटमेंट यह है कि हम सब ने पढ़ा है कि भारत को आजादी अहिंसा से मिली है, यह वह कहानी नहीं है. मैं छाती ठोक का रिसर्च किया, जो भी सवाल उठ रहे हैं मेरे पास हर सवाल का जवाब है.
किरदार में रच बस जाना आपकी खासियत है इस किरदार को फिजिकली आत्मसात् करने की क्या जर्नी रही ?
किरदार जैसा दिखाना वैसा सोचना आपका कर्तव्य है. एक्टिंग का मतलब ही और क्या है. मैं 92 किलो का था,जब मैं इस किरदार की तैयारी शुरू की थी.इस फिल्म के दौरान मेरा सबसे कम वेट 60 किलो का हो गया था. निश्चित तौर पर से आपकी बॉडी पर काफी मार पड़ती है. सिर्फ एक्टिंग कर रहे होते हो तो थोड़ा आसान होता है,लेकिन इसमें मैं डायरेक्शन भी कर रहा था,तो कई बार दिमाग़ काफी धुंधला हो जाता था.कई बार मुझे चक्कर आ जाते थे .कई बार मुझे सेट पर थोड़ा लेटना पड़ जाता था. इस जर्नी में दो बातें हुई पहले तो मैं वजन धीरे-धीरे लूज़ किया क्योंकि एक शूटिंग डेट तय हो चुकी थी लेकिन फिर वह शूटिंग डेट नहीं हुई,तो मैं डेढ़ साल तक इसी अंडरवेट में रहा. बीच में मेरा घुटना भी टूट गया था, जिसके लिए मुझे 8 हफ्ते तक बेड रेस्ट करना पड़ा था. इससे मेरा वजन बढ़ गया था. दोबारा जो मुझे वजन कम करना पड़ा।वह बहुत मुश्किल था उसमें तो एक नारियल तेल का चम्मच, एक बादाम के तेल का चम्मच, दो काजू खा लिए बस पूरा दिन वैसे ही रहना पड़ता था. वह बहुत टफ था. १८ घंटे भूखे रहता था. काला पानी में सावरकर जी को खाने पीने को नहीं मिलता था. उनको 5 साल जॉन्डिस रहा था,तो फिर फिजिकल आप को बॉडी वैसी करनी पड़ेगी वरना लोगों को महसूस नहीं होगा तो वो मुझे करना ही था.जो मेरी बहन है ,वह इंटरनल मेडिसिन की डॉक्टर है.इस फिल्म में उन्होंने मैडम कामा का रोल निभाया है. सेट पर वह हमेशा मुझे मॉनिटर करती रहती थी. मेरी डाइट वगैरह देखती रहती थी. क्या डाइट में एड करें क्या निकाले.उनकी मदद से ही मैं फिर धीरे-धीरे अपने पुराने शॉप में आ रहा हूं हालांकि जब आप इतने भूखे होते हैं तो आपका पहला इंस्टिंक्ट होता है रिवेंज ईटिंग. वह स्टेज जा चुका है. अभी भी मैं पूरी तरह से रिकवर नहीं हुआ हूं. इसमें समय जाएगा.
सावरकर फ़िल्म की इस जर्नी में आपकी पत्नी का क्या योगदान रहा ?
सबसे ज्यादा असर कास्ट एंड क्रू और वाइफ पर ही होता है. एक आदमी जब इतना जूझ रहा है कि ना खाना भरपेट खा रहा है और नहीं उसे अच्छी नींद आ रही है, तो आसपास के लोग डिस्टर्ब हो ही जाते हैं. मैंने उन्हें पहले भी बताया था कि मेरी पहली शादी मेरे काम से हो चुकी है, तो वह इस बात को बहुत समझती हैं. फिल्म के दौरान जब मेरा संतुलन थोड़ा ज्यादा बिगड़ जाता था,तो मैं थोड़ा उनसे दूर भी चला जाता था कि इसमें क्यों इनको परेशान किया जाए ,लेकिन उसने मेरा पूरा साथ दिया. अभी वह यही कह रही है कि इससे पहले कि तुम किसी और पागलपन में फंस जाओ. चलो हम कहीं घूम आते हैं. उनको पता नहीं है कि सावरकर के बाद वह अपना अगला समय किसके साथ बिताने वाली है.
यह सवाल तो दर्शक भी जानना चाहते हैं कि अब रणदीप क्या करेंगे क्या साथ-साथ निर्देशन भी करते रहेंगे?
इस फिल्म में मैं एक्सीडेंटल डायरेक्टर बना,लेकिन लोगों को मेरा काम पसंद आया,तो खून मेरे भी मुंह लग गया है। मैं बताना चाहूंगा कि मुझे लगातार प्रोड्यूसर्स के फोन आ रहे हैं कि आप मेरी फिल्म डायरेक्टर कर दो. मैं यह कहूंगा कि मैं इतनी जल्दी डायरेक्शन में नहीं फसूंगा क्योंकि इसमें बहुत समय लगता है. अभी मैं दो-तीन एक्टिंग की ही प्रोजेक्ट करना चाहूंगा. वैसे मैं इस दौरान तीन-चार कहानियां भी लिखी है. उसको मैं बनना चाहूंगा लेकिन उसमें समय है. इस दौरान मेरी शादी भी हुई और मैं अपने काम में इतना मशरूफ था कि मैं अपनी वाइफ को कहीं हनीमून पर भी नहीं ले जा पाया तो मैं थोड़ा समय अब उनके साथ बिताना चाहता हूं. कहीं अच्छी जगह उसके साथ घूमने जाना चाहता हूं.
आपने मणिपुर जाकर शादी की, मुंबई के बजाय मणिपुर में शादी की कोई ख़ास वजह थी ?
मैं बताना चाहूंगा कि जब मैंने शादी की थी .उस वक़्त मणिपुर में हालात अच्छे नहीं थे ।मेरे साले साहब मणिकांता बोल रहे थे कि जाट ही इस सिचुएशन में आकर यहां पर शादी कर सकता है। मेरा मानना है की शादी तो लड़की के घर से ही होती है और यह मेरा कर्तव्य बनता था कि मैं अपनी बीवी की फैमिली उनके कल्चर को पूरा सम्मान दूँ. हम 10-15 लोग ही बारात में गए थे. उनकी शादी की सेरेमनी के बारे में मुझे भी इतना डिटेलिंग में पता नहीं था हालांकि शादी से पहले मैंने कुछ वीडियोज जरूर देखे थे. मैंने शादी की सेरेमनी को बहुत इंजॉय किया.
सेरेमनी की सबसे ख़ास बात क्या थी ?
वहां आग नहीं बल्कि तुलसी के पौधे के पास एकदम सीधा बैठना होता है। मुझे बोला गया कि आज आप ही भगवान हो। आप हिल नहीं सकते हैं. मुझे एक एक हेल्पर दिया गया था,जो मेरे कपड़े को ठीक करने से लेकर अगर मेरी नाक में खुजली होती थी,तो वह आकर नाक भी खुजलाता था क्योंकि मैं हिल नहीं सकता था।जितना आप नहीं हिलोगे उतने अच्छे आप दूल्हा हैं,तो मैंने तय कर लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाए मैं हिलूंगा नहीं. मैंने वही किया. काफी वाहवाही भी हुई कि दूसरे कल्चर से आकर भी इतना अच्छा दूल्हा बना