‘Darbaan’ Review
फ़िल्म : दरबान
निर्देशक : विपिन नादकर्णी
प्लेटफार्म : जी फाइव
कलाकार : शारिब हाशमी, शरद केलकर, फ़्लोरा सैनी,रसिका दुग्गल और अन्य
रेटिंग : ढाई
मराठी फिल्म उत्तरायण के लिए नेशनल अवार्ड से सम्मानित हो चुके निर्देशक विपिन नादकर्णी की यह पहली हिंदी फ़िल्म ‘दरबान’ गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर की लघु कहानी खोखाबाबू प्रत्याबर्तन पर आधारित है. इस फिल्मी रूपांतरण में समय,स्थान और नए पात्रों के जोड़ के साथ कहा गया है. रविन्द्रनाथ टैगोर की कहानी 1891 के कालखंड की थी जबकि दरबान की कहानी 1970 के दशक से चलती हुई 2000 के शुरुआती समय तक सफर करती है.फ़िल्म बंगाल के बजाय झरिया और गंगटोक में सेट की गयी है.कहानी पर आते हैं.
फ़िल्म की कहानी रायचरण (शारिब हाशमी) की है जो नरेन त्रिपाठी( हर्ष छाया) के यहां 13 साल की उम्र से का काम कर रहा है. नरेन ने रायचरण को कभी अपना नौकर नहीं माना और ना ही रायचरण ने उन्हें मालिक. नरेन के बेटे अनुकूल के पैदा होने के साथ रायचरण उसकी देखभाल में पूरी तरह रम जाता है.इसी बीच कोयले की खदानों का सरकार निजीकरण कर लेती हैं.
नरेन त्रिपाठी पर आर्थिक आफत आ जाती है. उन्हें झरिया में अपनी हवेली बेचकर जाना पड़ता है. जिससे अनुकूल से रायचरण को अलग हो जाना पड़ता है.कहानी कई सालों का सफर तय करती है अनुकूल ( शरद केलकर) बड़ा साहब बनकर झरिया लौट आया है अपनी पुरानी हवेली भी वापस ले ली है. वह अपने रायचरण से फिर मिलता है और रायचरण अब अनुकूल के बेटे सिद्धार्थ के देखभाल की जिम्मेदारी ले लेता है. सबकुछ ठीक चल रहा होता है कि अचानक एक दिन रायचरण अनुकूल के बच्चे सिद्धार्थ को खो देता है.
जिसके बाद संदेह की उंगलियां उस पर उठती है।वह पूरी तरह से टूट जाता है. इसी बीच रायचरण की पत्नी (रसिका दुग्गल) एक बेटे को जन्म देकर मर जाती है. रायचरण को यह बच्चा सिद्धार्थ की याद दिलाता है. वह उसका छोटे साहब की तरह की पालन पोषण करने लगता है. अपने बेटे को सिद्धार्थ समझने वाला रायचरण क्या अनुकूल को अपना बच्चा सौंप पाएगा? क्या उसकी मनस्थिति होगी. अपने बेटे को वो क्या जवाब देगा. फ़िल्म आगे इन्ही सवालों का जवाब देती हैं.
फ़िल्म की कहानी इमोशनल है जिसे बहुत ही सादगी से कहा गया है. फ़िल्म का अंत सकारात्मक है. कहानी के सूत्रधार के तौर पर अनु कपूर की आवाज़ है।जो कहानी को एक गति देती है. फ़िल्म के स्क्रीनप्ले में कुछ कमियां लगती हैं. कुछ दृश्य अधूरे से लगते हैं. फ़िल्म देखते हुए महसूस होता है कि जिस तरह से अनुकूल की पत्नी को लगता है कि सिद्धार्थ मरा नहीं है और वह सहजता से रायचरण के बेटे को अपना सिद्धार्थ मान लेती है ऐसी कुछ बुनावट कहानी की क्लाइमेक्स तक रखी जाती जिससे आम दर्शक भी कुछ ऐसा सोचते तो यह साहित्यिक कहानी और प्रभावी बन जाती थी. फ़िल्म की सिनेमेटोग्राफी और संगीत कहानी के अनुकूल हैं.
अभिनय की बात करें तो यह फ़िल्म शारिब हाशमी की फ़िल्म है.उन्होंने अपने किरदार को पूरी तरह से आत्मसात कर शानदार परफॉर्मेंस दिया है. फ़िल्म के बाल कलाकारों की तारीफ करनी होगी. जिन्होंने स्वभाविक अभिनय किया है.बाकी के किरदारों को फ़िल्म में उतना स्पेस नहीं मिला है लेकिन सभी ने अपनी भूमिका को बखूबी जिया है.शरद केलकर,फ़्लोरा सैनी और रसिका दुग्गल सभी ने न्यायसंगत काम किया है.
Posted By: Budhmani Minj