Entertainment : Puppet Forms : पुतली कला मानव के उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण आविष्कारों में से एक है. यह अत्यधिक प्राचीन कला है. ईसा पूर्व पहली एवं दूसरी शताब्दी में लिखे गये तमिल ग्रंथ ‘सिल्पादीकर्म’ में पुतली कला का सबसे पहला संदर्भ मिलता है. भारत को पुतलियों का घर कहा जाता है. यहां लगभग सभी प्रकार की पुतलियां पायी जाती हैं. कथावस्तु, यानी theme की बात करें, तो पारंपरिक पुतली नाटकों की कथावस्तु पौराणिक साहित्य, दंत कथाओं और किवदंतियों से ली जाती रही हैं. आज के आधुनिक युग में दुनियाभर के शिक्षाविदों ने संचार माध्यम के रूप में पुतलियों की उपयोगिता को महत्वपूर्ण माना है. इसी कारण देश में आज भी विभिन्न शैक्षिणक व जागरुकता कार्यक्रमों के लिए पुतलियों का उपयोग हाे रहा है. जानते हैं देश के विभिन्न प्रांतों में प्रचलित पुतली कला शैली के बारे में.
भारत में कठपुतली कला शैलियों के प्रकार
भारत में पुतली कला शैलियों के कई प्रकार हैं जैसे धागा पुतली (string puppet), छाया पुतली (shadow puppet), छड़ पुतली (rod puppet), दस्ताना पुतली (glove puppet) आदि.
धागा पुतली (string puppet)
भारत में धागा पुतली की समृद्ध और प्राचीन परंपरा रही है. पुतलियों के जोड़ युक्त अंग तथा धागों से होने वाला इनका संचालन इन्हें अत्यंत लचीलापन देते हैं. राजस्थान, ओडिशा, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे प्रांतों में पुतली कला की यह शैली पल्लवित (flourished) हुई है.
कठपुतली, राजस्थान : राजस्थान की परंपरागत पुतलियों को कठपुतली कहते हैं. ये पुतलियां काठ को तराशकर बनायी जाती हैं और इन्हें रंग-बिरंगे कपड़े पहनाये जाते हैं, जिससे ये बड़ी गुड़ियों, यानी large dolls के समान लगती हैं. इनकी वेशभूषा और मुकुट मध्यकालीन राजस्थानी शैली में होते हैं. इन पुतलियों के पैरों में जोड़ नहीं होते हैं. पुतली संचालक अपनी अंगुलियों में बंधे दो या पांच धागों की सहयता से इनका संचालन करते हैं.
कुनढेई, ओडिशा : यहां की धागा पुतली कुनढेई कहलाती है. ये पुलतियां हल्की लकड़ी से बनी होती हैं और इनके पैर नहीं होते. इनकी वेशभूषा जात्रा नाटक के अभिनेताओं की तरह होती है. इनमें अनेक जोड़ होते हैं, इसी कारण इनका संचालन आसान होता है. पुतली संचालक आम तौर पर एक लकड़ी के तिकाने फ्रेम को पकड़े रहता है, जिस पर धागा बंधा होता है.
गोम्बेयेट्टा, कर्नाटक : कर्नाटक की धागा पुतली को गोम्बेयेट्टा कहते हैं. इसका संबंध कर्नाटक के लोकनृत्य यक्षगान से है. इन पुतलियों की आकृतियां अत्यंत सुसज्जित होती हैं. इनके पैर, कंधे, कोहनी, कूल्हे और घुटने में जोड़ होते हैं. इनका संचालन पांच से सात धागों के जरिये होता है, जो एक फ्रेम से बंधे होते हैं.
बोम्मालट्टा, तमिलनाडु : छड़ और धागा पुतली की तकनीक तमिलनाडु की इस पुतली कला में एक साथ देखेन को मिलती है. ये पुतलियां लकड़ी की बनी होती हैं. इनके संचालन करने के धागे एक लोहे के रिंग से बंधे होते हैं जिन्हें पुतली संचालक मुकुट की तरह अपने सिर पर धारण किये रहते हैं. इनमें कुछ पुतलियों की हथेलियों और हाथों में जोड़ होते हैं, जिनका संचालन छड़ों से होता है. ये पुतलियां आकार में बड़ी और भारी होती हैं.
छाया पुतली (shadow puppet)
देश में अनेक प्रकार की छाया पुतलियां प्रचलन में हैं. ये पुतलियां चपटी होती हैं और अधिकांशत: चमड़े से बनायी जाती हैं. पुतली संचालन के लिए पर्दे पर पीछे से प्रकाश डाला जाता है और फिर प्रकाश स्रोत और पर्दे के बीच पुतलियों को संचालित किया जाता है. पर्दे के सामने बैठे दर्शक पर्दे पर इन पुतलियों की छाया यानी shadow देखते हैं. शैडो पपेट की यह परंपरा ओडिशा, केरल, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में प्रचलित हैं.
तोगलु गोम्बयेट्टा, कर्नाटक : कर्नाटक की यह छाया पुतली आम तौर पर आकार में छोटी होती है. सामाजिक स्थिति के अनुसार इन पुतलियों के आकार बड़े-छोटे होते हैं. जैसे राजा व धार्मिक चरित्र के लिए बड़े आकार की पुतलियां होती हैं, जबकि आम जन व दासों के आकार छोटे होते हैं.
तोलु बोम्मालट्टा, आंध्र प्रदेश : आंध्र प्रदेश की छाया नाटक को तोलु बोम्मालट्टा कहते हैं. इसकी परंपरा अत्यंत समृद्ध है. इसकी पुतलियों की आकृति बड़ी होती है और उनकी कमर, गर्दन, कंधा और घुटनों में जोड़ होते हैं. पुतलियां दोनों तरफ से रंगी जाती हैं, जिससे पर्दे पर रंगीन छाया पड़ती है.
रावणछाया पुतली : ओडिशा की रावणछाया पुतली एकहरी होती है और इसमें कोई जोड़ नहीं होता है. इस कारण इनका संचालन दक्षता से करना पड़ता है. चूंकि ये पुतलियां रंगीन नहीं होतीं, सो पर्दे पर इनकी छाया ब्लैक एंड व्हाइट में पड़ती है. ये पुतलियां मृग चर्म (deer skin) की बनी होती हैं.