Film Review Dhamaka
फ़िल्म धमाका
निर्देशक -राम माधवानी
कलाकार-कार्तिक आर्यन,मृणाल ठाकुर,अमृता सुभाष,विकास कुमार और अन्य
प्लेटफार्म- नेटफ्लिक्स
रेटिंग -दो
सिस्टम से तंग आकर कानून को अपने हाथ में ले लेना सिनेमा में यह पहलू नया नहीं है. ए वेडनेसडे से अब तक कई फिल्में बन चुकी हैं. इसी की अगली कड़ी धमाका भी है. धमाका कोरियन फ़िल्म टेरर लाइव का हिंदी रीमेक है. फ़िल्म का नाम ज़रूर धमाका है लेकिन कमज़ोर पटकथा और निर्देशन की वजह से फ़िल्म परदे पर वह असर नहीं छोड़ पायी है.
फ़िल्म की कहानी टीवी एंकर से डिमोट हुए रेडियो जॉकी अर्जुन पाठक (कार्तिक आर्यन) की है. फ़िल्म के क्रेडिट सांग में ही यह बात जाहिर कर दी गयी है कि अर्जुन और उसकी जर्नलिस्ट पत्नी (मृणाल ठाकुर) के बीच सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है. दोनों का जल्द ही तलाक होने वाला है. क्रेडिट सांग खत्म होते ही रेडियो पर अर्जुन ऑन एयर शो शुरू करता है. एक कॉल आता है कि मुम्बई के सी लिंक ब्रीज को वह उड़ा देगा अगर उसकी बात नहीं सुनी गयी.
अर्जुन उसे प्रैंक कॉल समझ कर अनदेखा कर देता है और अगले ही पल एक धमाका होता है. अर्जुन को फिर से उस आदमी का कॉल आता है. वह खुद का नाम रघुबीर बताता है और कहता है कि मंत्री जयदेव पाटिल टीवी पर उससे माफी मांगे वरना और भी ऐसे ही धमाके होंगे. एक वक्त का स्टार एंकर अर्जुन पाठक इस खबर को पुलिस को देने के बजाय खुद की साख बनाने के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर देता है. क्या अर्जुन अपने मंसूबे में कामयाब होगा या और मुसीबत में फंसेगा? कॉलर रघुबीर की कहानी क्या है. उसे क्यों मंत्री से माफी चाहिए. उसने अर्जुन पाठक को ही क्यों कॉल किया. इन सभी सवालों के जवाब फ़िल्म 1 घंटे 44 मिनट में देती है.
फ़िल्म की रफ्तार बहुत तेज़ है। कहानी सीधे तौर पर अपने मुद्दे पर आ जाती है. यही इसकी पटकथा का एकमात्र अच्छा पहलू है. उधार ली हुई इस कहानी की पटकथा कमज़ोर रह गयी है. फ़िल्म के घटनाएं जस्टिफाय नहीं होती हैं. जिस तरह से वह पर्दे पर आसानी से होती रहती है. वह रोमांच के बजाय जेहन में सवालों को बढ़ा जाते हैं. सभी जगह एक आदमी ने बम कैसे प्लांट किया. वह अकेले सबको कैसे मॉनिटर कर रहा है. एंकर और गेस्ट के इयरपीस पर भी बम लगा हुआ है. सीएम के डिप्टी की मौत टीवी स्टूडियो में हो जाती है और इसके बावजूद पुलिस बहस कर रही है कि लाइव शो में क्या दिखाना चाहिए क्या नहीं.
फ़िल्म में बहुत कुछ वास्तविकता से दूर लगता है. इमोशन की भी कमी खलती है. सिस्टम से सताए रघुबीर का दर्द झकझोरता नहीं है. हां न्यूज़ चैनल की विश्वसनीयता पर जो आए दिन सवाल उठाए जाते हैं. सच्चाई से ज़्यादा ड्रामा पर फोकस होता है. उस हकीकत को फ़िल्म ज़रूर दिखा जाती है.
अभिनय की बात करें तो यह फ़िल्म बहुत कम समय में शूट हुई है इसको लेकर खूब चर्चा बटोर चुकी है. फ़िल्म देखते हुए यह बात महसूस भी होती है. कार्तिक आर्यन को अपने एक्सप्रेशन्स पर थोड़ी और मेहनत करने की ज़रूरत है. जितना फ़िल्म का विषय इंटेंस था वैसी इंटेंस एक्टिंग वह परदे पर नहीं ला पाए हैं.
मृणाल ठाकुर को कहानी में फीलर के तौर पर इस्तेमाल किया गया है.अमृता सुभाष ने एक बार फिर उम्दा काम किया है. विकास कुमार अपने चित परिचित अंदाज़ में नज़र आए हैं. फ़िल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक अच्छा है जो कहानी को तेज से दौड़ने में रफ्तार देता है. फ़िल्म का गीत संगीत अच्छा है. वह गहरी बात शब्दों में समेटे हुए हैं. फ़िल्म का तकनीकी पक्ष खासकर वीएफएक्स अति साधारण है. फ़िल्म में बम ब्लास्ट का दृश्य वह प्रभाव नहीं ला पाया है जो इस फ़िल्म की ज़रूरत थी.