बाॅलीवुड के मशहूर डायरेक्टर राजकुमार संतोषी की हालिया रिलीज फिल्म ‘गांधी गोडसे: एक युद्ध’ को लेकर देश में विवाद शुरू हो गया है. यह फिल्म मशहूर नाटककार असगर वजाहत के नाटक गोडसे@गांधी डॉट कॉम. पर आधारित है. इस फिल्म के रिलीज होने के बाद समाज का एक वर्ग यह आरोप लगा रहा है कि इस मूवी के जरिये गांधी जी की छवि धूमिल की जा रही है और गोडसे का महिमामंडन किया गया है. फिल्म के बारे में पूरी बात जानने के लिए वरिष्ठ पत्रकार और रंगकर्मी अनिल शुक्ल ने फिल्म के डायरेक्टर राजकुमार संतोषी से बातचीत की.
जिस तरह रिलीज होने से पहले ही फिल्म ‘गांधी गोडसे : एक युद्ध’ का विरोध शुरू हो गया था, इस पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?
देखिए आजकल लोगों का अटेंशन ग्रास्प करने का ये एक तरीका भी हो गया है. फिल्म लोग देखते नहीं और सिर्फ टेलर और टीजर देखकर रिएक्ट करने लगते हैं. जब हमने मीडिया के लिए शो रखा तो उसमें भी कुछ लोग घुस गये और लगे नारेबाजी करने. नारेबाजी में नया कुछ नहीं था. वही, ‘गांधीजी अमर रहें’ और ‘गांधी जी जिंदाबाद’. हमने कहा हम कहां अलग हैं. हम भी ‘गांधी जी अमर रहेंगे’ और ‘गांधी जी हमेशा जिंदाबाद हैं’ के नारे लगाने लगे.
इधर देश में एक समानांतर सेंसर बोर्ड खड़ा करने का फैशन चल निकला है. इसे आप कैसे देखते हैं?
मैंने पंद्रह-सोलह फिल्में बनायीं हैं, कभी सेंसर की तरफ की तरफ से कोई मुश्किल नहीं आयी है. मैं खुद ही अपना सेंसर कर लेता हूं. सेंसर को कभी मुझे नहीं काटना पड़ा.
एक जो एक्स्ट्रा सेंसर बोर्ड जैसा डेवेलप हो रहा है, मैं उसकी बात कर रहा हूं.
मुझे नहीं लगता कि कोई एक्ट्रा सेंसर बोर्ड जैसा …….देखिए जिसे मैने एक्सपीरिएंस नहीं किया, उस पर कमेंट नहीं कर सकता.
गांधी को विषय बनाने का विचार आपके मन में कैसे आया?
भगत सिंह पर एक फिल्म बना चुका हूं. गांधी जी का उसमें एक छोटा सा रोल था. तब सोचा था कि कभी मौक़ा मिला तो इस पर कोई बड़ी फिल्म करूंगा. असगर (वजाहत) साहब के साथ उनके एक और नाटक ‘जिस लाहौर नहीं वेख्या’ पर एक प्रोडक्शन कर रहा हूं. तभी उन्होंने मुझे अपना यह नाटक ‘गोडसे एट दि रेट ऑफ गांधी’ पढ़ने को दिया. पढ़ते ही मुझे लगा कि यह सिनेमा की चीज़ है, इस पर फिल्म बनानी चाहिए. हालांकि असगर साहब का सोचना था कि इस पर फिल्म नहीं हो सकती, यह तो सिर्फ नाटक है. मैंने उन्हें यकीन दिलाया कि इस पर बड़ा दिलचस्प सिनेमा बन सकता है और बनाया जाना चाहिए. लोगों को मालूम होना चाहिए कि उस पीरियड की सच्चाई क्या थी. 1947 और 1948 में देश में क्या हो रहा था. गोडसे जैसी विचारधारा वाले लोग कहां से खड़े हो गये, क्यों खड़े हो गए? क्यों गोडसे ने गांधी जी पर गोली चलायी? मुझे यह सब बड़ा दिलचस्प लगा.
क्या सिर्फ इतनी ही वजह थी?
देखिए जब मैं भगत सिंह पर फिल्म बना रहा था तब बहुत सारे लोग मिले और मैंने देखा कि जितने लोग गांधी जी की प्रशंसा करते हैं उतने ही लोग ऐसे भी हैं जो उन्हें भला-बुरा कहते हैं, उनकी शिकायतें करते हैं. उन्हें कभी मौका मिला नहीं अपनी बात कहने का. मुझे लगा कि फिल्म में ऐसा मंच खड़ा करो जहां से गांधी जी और गोडसे खुल कर अपनी बात कह सकें. जो उन पर आरोप लगे उनके बारे में भी अपनी बात कह सकें. मुझे लगता है कि यह फिल्म उस दृष्टि से बहुत ज़रूरी है.
क्या आपको अंदाज नहीं था कि ऐसा करने में बड़े खतरे भी हो सकते हैं?
मैं कह नहीं सकता.
ऐसे वक्त में जब गांधी पर दूसरी कई जगहों से भी हमले हो रहे हैं, उसी वक़्त में आपका उन्हें विषय बनाना महज इत्तेफाक है या इसमें कोई समानता थी?
यह महज इत्तेफाक है. मैंने कभी माहौल को देखकर फिल्म नहीं बनायी. मैंने कभी अंजाम से वाकिफ होकर फिल्म नहीं बनायी. जो विषय दिल से अच्छा लगा, उसी को लेकर फिल्म बनायीं. हो सकता है इसमें बहुत सी शिकायतें आयें. हो सकता है इसमें कभी घायल हो जाऊं.
गांधी जी की जो एक स्थापित छवि है- राष्ट्रपिता की छवि, उस छवि में और आपके गांधी की छवि में क्या अंतर है?
छवि अपनी जगह पर है. मैंने जो रिसर्च किया फिल्म बनाने से पहले, गांधी जी के बारे में बहुत कुछ पढ़ने का मौक़ा मिला. खास तौर से बंगाल विभाजन में जो हुआ, उस पर गांधी जी का क्या स्टैंड था. मोपला में मुस्लिम खिलाफत पर उनका क्या स्टैंड था……… यह सब जानने के बाद लगा कि गांधी जी अच्छे इंसान थे लेकिन भगवान नहीं थे. इंसान में खूबियां भी होती हैं खामियां भी होती हैं. आप जब किसी इंसान से प्रेम करते हैं तो उसकी अच्छाई-बुराई सब को जोड़ कर प्रेम करते हैं. ये नहीं कि अच्छाई से प्रेम करो बुराई की बात ही न करो. मैं गांधी जी को बहुत मानता हूं. इस फिल्म में हमने यह ध्यान रखा है कि गांधी जी की कोई अवमानना न हो. उनका ‘सत्य’, ‘अहिंसा’ और शांति……उनके ये संदेश, आज भी दुनिया को रास्ता दिखाते हैं.जो लोग कांग्रेस के या दूसरे, भोपाल में या और जगहों पर सड़कों पर लाठी लेकर उतर आये कि फिल्म नहीं रिलीज होने देंगे, थियेटर में आग लगा देंगे, मुझे जान से मार देंगे. जो ऐसा सोचते हैं, वे गांधी के फॉलोअर हो सकते हैं?
गांधी की जो इमेज है, उससे अलग इमेज, जो चाहे गोडसे ने कही हो या किसी दूसरे ने, एक फिल्म मेकर के बतौर आपको उसी को गढ़ने की जरूरत क्यों पड़ी?
एक फिल्म मेकर के रूप में सच्चाई को जानना और सच्चाई को समझना बहुत जरूरी है. इस फिल्म में जो बात कही गयी है वो एक्जेक्टली वही है जो लोगों ने कही है. उससे छिपा कर गांधी जी के राष्ट्रपिता होने की बात हम क्यों करें? उनका योगदान कोई छोटा-मोटा थोड़े ही था? हम कौन होते हैं उन्हें छोटा करने वाले? उन्हें एल्बर्ट आइंस्टीन मान चुका है, जॉर्ज बर्नाड शॉ मान चुका है, नेल्सन मंडेला मान चुका है. दुनिया में ऐसा कोई बड़ा व्यक्ति नहीं है जिसने उनके सम्मान में दो शब्द न कहे हों, तो फिर हम कौन होते हैं उन्हें छोटा कर सकने वाले? लेकिन उसी वक्त दुनिया में ऐसे लोगों के आरोप भी कम नहीं है जो यह कहते हैं कि गांधी जी यदि अपनी जिद पर आ जाते तो अंग्रेज डर जाते और भगत सिंह को फांसी न होती. उनकी सजा कालापानी या आजीवन कारावास में बदल जाती. मैं भी यही मानता हूं. लोगों में बड़ा रोष था. तमाम जगहों पर उन्हें काला गुलाब पेश किया गया. उनके खिलाफ नारे लगे. ये सब रिकॉर्ड पर है. कब तक छिपायेंगे आप?
क्या आप गांधी पर तब भी ऐसी फिल्म बनाने की हिम्मत करते यदि देश में उनके शिष्यों की सरकार होती?
बिलकुल. गांधी जी को मैं फॉलो करता हूं. गोडसे को नहीं मानता हालांकि मैंने उनकी किताबें भी पढ़ी हैं. गांधी जी से ही यही सीखा है कि सच बोलने से डरने की जरूरत नहीं. अगर तब मुझे असगर साहब का नाटक मिल गया होता तो मैं तब भी यही फिल्म बनाता. क्या होता, सजा हो जाती!
आपकी इस फिल्म का दर्शक, खासकर युवा दर्शक, जब सिनेमा हाल से बाहर निकलेगा तो उसका हीरो कौन होगा? गांधी या गोडसे?
यह तो आप लोग देखिए और बताइए. (मुस्कराकर) आप तो खाना बनाने वाले से ही पूछ रहे है कि खाने का टेस्ट कैसा है.