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हबीब तनवीर : भारतीय रंगमंच के हीरो, जिन्होंने नये प्रयोग से रचा इतिहास

हबीब तनवीर ने एक और जहां संस्कृत नाटकों के बड़े नामों जैसे शुद्रक, भास, भवभूति और विशाखदत्त के नाटक किये, वहीं पश्चिम के शेक्सपीयर, मौलियर, लोर्का, गोगोल, गोर्की, स्टीफन जविग सरीखे नाटककारों को मंचित किया.

-अनीश अंकुर-

हिंदी रंगमंच के इतिहास में लोकाख्यान का दर्जा पा चुके हबीब तनवीर का जन्म (एक सितंबर) को आज ही के दिन सौ वर्ष पूर्व रायपुर ( छत्तीसगढ़ ) में हुआ था. भारतीय रंगमंच के मानचित्र पर हबीब तनवीर ऐसी जगह स्थापित हैं, जहां उनकी बराबरी करने वाला कोई नहीं है. हबीब तनवीर ने जो कहानियां अपने नाटकों के माध्यम से कहीं वे सीधी-साधी, परंतु असर डालने वाली कहानियां थीं. उन्होंने भारत के नये ढंग के रंगमंच की नींव डाली. उनके ग्रुप का नाम भी था ”नया थियेटर”. आगरा बाजार, चरण दास चोर, बहादुर कलारिन , शाजापुर की शांतिबाई, गांव का नाम ससुराल मोर नाम दामाद, कामदेव का अपना, वसंत ऋतु का सपना, राजा हिरमा की अमर कहानी, मोटेराम का सत्याग्रह जैसे नाटकों के जरिये उन्होंने भारतीय रंगमंच का मुहावरा ही बदल दिया.

मेहनतकशों के बीच से तलाशे अपने अभिनेता

हबीब तनवीर ने एक और जहां संस्कृत नाटकों के बड़े नामों जैसे शुद्रक, भास, भवभूति और विशाखदत्त के नाटक किये, वहीं पश्चिम के शेक्सपीयर, मौलियर, लोर्का, गोगोल, गोर्की, स्टीफन जविग सरीखे नाटककारों को मंचित किया. साथ ही रवींद्रनाथ ठाकुर, प्रेमचंद, शिशिर दास, असगर वजाहत, शंकर शेष, सफदर हाशमी, विजय दान देथा जैसे रचनाकारों को अपने नाटकों का विषय बनाया. हबीब तनवीर ने हिंदी छोड़ छत्तीसगढ़ बोली में नाटक करना शुरू किया. मध्यवर्गीय तबकों के बजाए मेहनतकशों के बीच से अपने अभिनेता तलाशे. छत्तीसगढ़ी समाज के सबसे निचले हिस्से, निचली जातियों और पेशे से खेत मजदूरों को अपने नाटकों का अभिनेता बनाया. पांच-छह दशकों तक अभिनेताओं के एक ही समूह के साथ काम किया, जो हिंदी रंगमंच में एक परिघटना की तरह था. अपने नाटकों में अधिकांशतः श्रमिक तबके से आने वाले पात्रों को नायकत्व प्रदान किया.

जीवन और मृत्यु के जटिल प्रश्नों को तलाशने की कोशिश

1954 में ”आगरा बाजार’ नाटक पहली बार प्रस्तुत किया गया. ”आगरा बाजार” कवि नजीर अकबराबादी की नज्मों और गजलों पर आधारित था, जो उन्होंने बाजार में सामान बेचने वालों की फरमाईश पर लिखे थे. आगरा बाजार और हबीब तनवीर एक दूसरे के पर्याय बन चुके थे. जनता के शायर नजीर अकबराबादी को लोकप्रिय बनाने में भी ”आगरा बाजार” नाटक का महत्वपूर्ण योगदान है. पश्चिमी और भारतीय रंग-अनुभवों के मेल से गढ़े गये अनूठे शिल्प का बेहतरीन उदाहरण था ‘आगरा बाजार’.

जब नाटकों के जरिए किया चुनाव प्रचार

सन् 1971 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने इंदिरा गांधी के ” गरीबी हटाओ ” नारे का समर्थन करते हुए नाटकों के जरिये चुनाव प्रचार किया. भारतीय राजनीति में पहली बार किसी पार्टी को पचास प्रतिशत मत हासिल हुए थे. 1972 में हबीब तनवीर राज्यसभा के लिए चुन लिये गये.

चरण दास चोर

आगरा बाजार (1958 ) से चरण दास चोर (1973-74) के इस वक्फे में उन्होंने कई प्रयोग किये और 1975 में ‘चरनदास चोर’ के साथ ही तनवीर की शैली और प्रस्तुति ने अपनी पूर्णता पा ली. ”चरनदास चोर’ के जरिये तनवीर ने ये साबित कर दिखाया कि लोक परंपराओं के मेल और देशज रंगपद्धति से कैसे आधुनिक नाटक खेला जा सकता है. 1982 में एडिनबरा के विश्व ड्रामा फेस्टिवल में बावन मुल्कों के ड्रामों के बीच ‘चरनदास चोर’ को मिले प्रथम स्थान हबीर तनवीर और ”नया थिएटर” को दुनियावी स्तर पर मशहूर बना डाला . ‘चरणदास चोर” में हबीब तनवीर ने लिखा— ‘सच का पथ इतना महान है/ कि कुछ ही हैं/ जो इसपर चल पाते हैं / एक मामूली चोर मशहूर हो गया है/ कैसे?/ सिर्फ सच बोलकर’. यह नाटक चरणदास नामक चोर की कहानी है, जिसका सच बोलने के कारण त्रासद अंत होता है.

लोक शैलियों के साथ काम करते हुए कोई दूसरा रंगकर्मी नहीं हो सका सफल

हबीब तनवीर ने लोक शैलियों के साथ काम उस दौर में किया था जब मिट्टी से जुड़ाव का नारा प्रचलन में नहीं था. बाद में फोर्ड फाउंडेशन के पैसे से ”बैक टू द रूट्स” ( अपनी जड़ों की ओर लौटो) का नारा दिया गया. इस नारे के तहत रंगमंच में ”भारतीयता की खोज ” की बेहद घातक प्रक्रिया शुरू हुई, जिसने भारत के रंगमंच को बहुत नुकसान पहुंचाया. यह आज तक एक अनुत्तरित सवाल है कि क्यों हबीब तनवीर को छोड़ कोई दूसरा रंगकर्मी लोक शैलियों के साथ काम करते हुए उतना सफल नहीं हो पाया ? इस बात का जवाब हबीब तनवीर ने 2002 में पटना के अपने व्याख्यान ”लोकगीतों में प्रतिवाद के स्वर ” में देने की कोशिश की थी. उन्होंने बताया था कि लोक या फोक में प्रतिवाद के तत्व के साथ सामंती कुचलन भी मौजूद रहा करता है. आपको दोनों को अलगाकर बेहद सावधान रहना चाहिए, अन्यथा सामंती पुरुत्थानवादी प्रवृत्तियों के उभार का खतरा बना रहेगा.

धर्म के पाखंड और जाति प्रथा को बनाया निशाना

नब्बे के दशक में जब भारत में सांप्रदायिक शक्तियों का उभार होना शुरू हुआ, तब कई नाटक इस दिशा में मंचित किये गये. ”एक औरत थी हिप्पेशिया” ऐसा ही नाटक जिसमें चौथी शताब्दी की अलेक्जेंड्रिया की एक गणितज्ञ स्त्री ”हिप्पेशिया” की हत्या कट्टरपंथियों ने पत्थर से मार-मार कर दी गयी थी. धर्म के पाखंड व जातिप्रथा पर केंद्रित ”पोंगा पंडित ” कई बार सांप्रदायिक शक्तियों ने निशाना बनाया. मध्यप्रदेश में उनका सरकारी आवास तक छीन लिया गया . 2003 में पटना में जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय सम्मेलन में हबीब तनवीर का यह वक्तव्य काफी मशहूर हुआ था- ‘फासीवादी ताकतों में सेंस ऑफ ह्यूमर का अमूमन अभाव रहता है.’

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