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हबीब तनवीर का अंतिम इंटरव्यू, जिसमें उन्होंने कहा- वालिद की वसीयत पूरी करने का सुकून…

हबीब दा को दुनिया से विदा लिये 15 साल हो गये हैं, लेकिन लगता है जैसे कल की ही बात हो. उनका यह आखिरी दर्ज इंटरव्यू है... मई के आखिरी सप्ताह में हबीब तनवीर इंदौर में ‘चरणदास चोर’ का मंचन करने पहुंचे थे. इसी दौरान खाने की मेज और मेल मुलाकात के बीच वे इंटरव्यू के सवालों का जवाब दे रहे थे.

-सचिन श्रीवास्तव-

हबीब दा को दुनिया से विदा लिये 15 साल हो गये हैं, लेकिन लगता है जैसे कल की ही बात हो. उनका यह आखिरी दर्ज इंटरव्यू है… मई के आखिरी सप्ताह में हबीब तनवीर इंदौर में ‘चरणदास चोर’ का मंचन करने पहुंचे थे. इसी दौरान खाने की मेज और मेल मुलाकात के बीच वे इंटरव्यू के सवालों का जवाब दे रहे थे. इस दौरान उन्होंने एक हसरत पूरी होने का जिक्र किया, तो एक अधूरी ख्वाहिश को भी जाहिर किया. हबीब दा के वालिद युसुफ जई कबीले के थे. तनवीर तखल्लुस की जरूरत उन्हें शायरी करते हुए पड़ी. बाबा ने नाम रखा था हबीब अहमद. इस तरह पूरा नाम बनता था- हबीब अहमद युसुफजई खान तनवीर. हाल ही में हबीब दा से मुलाकात हुई, तो जिक्र निकला इच्छाओं का. उन्होंने एक जरूरी इच्छा पूरी होने और एक इच्छा पूरी न होने की याद साझा की. हबीब दा के वालिद चाहते थे कि वे कम से कम एक बार पेशावर जरूर जाएं, यानी स्वात. दूसरे, हबीब दा की इच्छा थी कि वे अफगानिस्तान के लोक कलाकारों के साथ एक वर्कशॉप करें. चार दशकों की जद्दोजहद के बाद वालिद की इच्छा पूरी करने पेशावर तो पहुंच गये, लेकिन अफगानी कलाकारों के साथ वर्कशॉप की इच्छा अधूरी ही रह गयी. इच्छाओं के बारे में हबीब दा से यह आखिरी बातचीत, उन्हीं के लफ्जों में…

वालिद चाहते थे कि पेशावर जरूर जाऊं

आखिरी वक्त में वालिद की दो ही इच्छाएं थीं. पहली का जिक्र वे अक्सर करते थे कि उस सूदखोर हिम्मतलाल के 19 रुपये 75 पैसे लौटा देना. अब्बा ने यह पैसा सूद पर लिया था. वे सूद पर पैसा लेना और देना दोनों को गुनाह मानते थे और हिम्मतलाल के सूद के कारण वे खुद को पूरी उम्र गुनहगार मानते रहे. वसीयत में अब्बा ने कहा था कि पेशावर जरूर जाना. हिम्मतलाल तो कभी मिले नहीं, लेकिन पेशावर जाने के लिए कई कोशिशें की. 1958 के बाद पेशावर जाने के लिए जद्दोजहद करते रहे. 1972 में काबुल तक गया. तब सांसद था. काबुल से पेशावर बहुत करीब है. उस वक्त बंग्लादेश अलग हो गया था. मेरे देखते-देखते कई लोग भाग रहे थे, परेशान होकर, स्वात से. यह सब देखा था उसी दौर में. माहौल में तनाव घुला हुआ था. पेशावर जाना नामुमकिन हो गया था. बड़े भाई अक्स पेशावर के खूबसूरत बाजार किस्सा खानी और चने और मेवे का जिक्र बड़े चाव से करते थे. सुना था कि वहां पिस्ता-बादाम जेब में भरकर लोग काम पर निकलते थे. पेशावर जाने की इच्छा तेज हो रही थी, लेकिन पाकिस्तान में कराची तक का वीजा था. वहां लेखकों ने कई कोशिशें कीं, लेकिन नहीं जा सके. एक बार जलालाबाद गये थे. वहां खान अब्दुल गफफार से पेशावर और स्वात के बारे में कई बातें हुई, लेकिन वहां से भी पेशावर नहीं जा पाए. 1990 में भारत सरकार ने एक प्रतिनिधिमंडल लाहौर, कराची और इस्लामाबाद में थियेटर गतिविधियों के माकूल माहौल तलाशने के लिए भेजा था. हमें ‘आगरा बाजार´ के प्रदर्शन के लिए जगह देखनी थी. उन जगहों में पेशावर का जिक्र नहीं था. पेशावर के थियेटर के बारे में मैंने सुन रखा था. वहां बहुत बेहतर थियेटर स्टेज हैं, वह देखना चाहते हैं. पाकिस्तानी अथॉरिटी ने बार्डर सुलगने का हवाला दिया और कहा कि हम वहां नहीं भेज सकते. मुझे आगरा बाजार के लिए बड़ा स्टेज चाहिए था, जिसमें 52 लोग आ सकें. सुन रखा था कि पेशावर का ऑडिटोरियम इसके लिए बेहतर है. साथ ही वालिद की इच्छा पूरी करने की हसरत भी फिर सिर उठा रही थी. अथॉरिटी को बताया तो उन्होंने दो दिन के लिए पेशावर जाना मुमकिन किया. अब्बा कहते थे कि पेशावर जाना तो चप्पली कबाब खाना मत भूलना. हमने पेशावर के दोस्तों से जिक्र किया, तो वे बोले कि आप दो दिन के लिए यहां आएं हैं और अफसोस ये दो दिन मीट लैस हैं. पेशावर में इतना गोश्त खाया जाता है कि अगर दो दिन के लिए सरकारी रोक न हो तो ईद पर कमी पड़ जाए. बहरहाल, हमारी किस्मत नहीं थी कि चप्पली कबाब खायें, लेकिन फिर भी बाप की वसीयत पूरी कर दी इसका सुकून था.´´

अफगानी कलाकारों के साथ वर्कशॉप न कर सका

1972 में सरकार की ओर से फरमान मिला कि मालूम करो कि काबुल में थियेटर वर्कशॉप हो सकती है कि नहीं. तब बन्ने भाई सज्जाद जहीर के साथ काबुल पहुंचे थे. कहवा पीते हुए हमने काबुल में थियेटर की बातें कीं. वहां जबरदस्त लोक थियेटर है. अफगान की तवायफों का नाच लगातार चलता है. यह हमारे राई के करीब है. वहां का काफी सारा फोक आर्ट दबा पड़ा है. एनर्जी से भरपूर. उनके मूवमेंट बहुत ऊर्जा लिए हुए हैं और खूबसूरत भी हैं. तवायफों का नाच तकरीबन खुले में होता है. या फिर कनातें लगा दी जातीं. बैकलैस बेंच पर दर्शक बैठे रहते. हम और बन्ने भाई वहीं बैठे. चाय, कहवा, मूंगफली बिक रही थी. यही मनोरंजन था उस वक्त के अफगानिस्तान में. कला से भरपूर माहौल था वह. उन लोगों को लेकर थियेटर वर्कशॉप की हसरत थी, लेकिन हालात बदले और 1990 के बाद एशियाई थियेटर को जोड़ने के लिए किये जाने वाला काम रुक गया. कल्चरल मूवमेंट बंद हो गये. हालांकि, हम इंतजार कर रहे थे कि हालात बदलेंगे तो वर्कशॉप हो जायेगी. मगर ऐसा नहीं हो पाया. इस तरह यह हसरत अधूरी ही है.

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