फिल्म – हमारे बारह
निर्देशक -कमल चंद्रा
कलाकार – अन्नू कपूर ,अश्विनी कलसेकर, मनोज जोशी,परितोष त्रिपाठी,राहुल बग्गा, पार्थ, इशलिन, अदिति और अन्य
प्लेटफार्म – सिनेमाघर
रेटिंग – डेढ़
film hamare baarah टीजर रिलीज के बाद से ही विवाद में आ गयी थी और मामला कोर्ट तक पहुँच गया था. फिल्म की रिलीज तीन बार टाली गयी आखिरकार बॉम्बे हाई कोर्ट से फिल्म को राहत मिल गयी और फिल्म ने सिनेमाघरों में दस्तक दे दी है. फिल्म की कहानी सिर्फ बढ़ती जनसंख्या के मुद्दे पर नहीं है बल्कि यह महिला सशक्तिकरण की भी कहानी है, जो पितृसत्ता समाज को चुनौती भी देती है,लेकिन किसी एक समुदाय पर इसे स्थापित कर देने की वजह से यह इन जरुरी सामाजिक मुद्दों के प्रभाव को पूरी तरह से कम कर गया है. जनसंख्या के बढ़ते मुद्दे को भी बहुत सतही तौर पर छुआ गया है.खामी स्क्रीनप्ले और निर्देशन में भी साफ़ है, जो इस फिल्म को एक कमजोर फिल्म बना गयी है.
पितृसत्ता को चुनौती देती एक बेटी की है कहानी
कहानी की शुरुआत एक लड़की के अदालत परिसर में पहुंचने से होती है, जहां पर वह अपने पिता के खिलाफ मुकदमा दायर करते हुए कोर्ट से अपील करती है कि उसकी सौतेली मां का गर्भपात कराया जाए क्योंकि डॉक्टर के अनुसार अगर उसकी सौतेली मां इस बच्चे को जन्म देगी तो उसका बचना नामुमकिन है. इसके बाद कहानी अतीत में जाती है और लड़की के पिता सामने आते हैं, 60 वर्षीय संजरी साहब (अन्नू कपूर ), जो पेशे से कव्वाल हैं. उनकी दो शादियां हो चुकी है और उनके 11 बच्चे हैं. उनका मानना है कि अगर खुदा ने चाहा तो उनका 12वाँ बच्चा भी हो जाएगा. उनकी सोच है कि बच्चे खुदा की देन है.जिंदगी के हर मोर्चे पर वह बहुत ही दकियानूसी सोच रखते हैं.वह अपने घर में तालिबानी शासन जैसा कुछ चला रहे हैं . जिसमें घर में किसी को भी स्कूल या कॉलेज जाकर तालीम लेने का अधिकार नहीं है. तालीम का मतलब बस मदरसे तक जाना है. लड़कियों को गाना गाने की आजादी नहीं है. शायरी तक वह पढ़ नहीं सकती है. ऐसे में अपनी सौतेली मां को बचाने के लिए उनकी खुद की बेटी उनके खिलाफ खड़ी हो जाती है. क्या वह अपनी सौतेली मां को बचा पाएगी. क्या उसके पिता की दकियानूसी सोच बदलेगी. यही आगे की कहानी है.
फिल्म की खूबियां और खामियां
फिल्म का फर्स्ट हाफ किरदारों को स्थापित करने में ही चला गया है. सेकंड आपसे कहानी मूल मुद्दे पर आती है,लेकिन लाउड कोर्ट रूम ड्रामा में तब्दील हो जाती है.फिल्म जनसंख्या और महिला सशक्तिकरण की बात करती है लेकिन स्क्रीन प्ले और कहानी में वह सशक्तिकरण नदारद है.जनसंख्या का मुद्दा जरूरी है , लेकिन सिर्फ एक धर्म पर ही कहानी को स्थापित करना इसे एक अलग ही रंग दे गया है. फिल्म के संवाद में बेवजह अल्लाह हू अकबर का इस्तेमाल भी अखरता है. कोर्ट ने कई डायलॉग को म्यूट भी करवाया है , जिससे यह बात समझ आती है कि फिल्म कई बार अपने मुद्दे से भटक कर अलग ही दिशा में जा रही थी. मेकर्स इस बात का कितना भी दावा करें कि फिल्म किसी एक धर्म को टारगेट नहीं करती है लेकिन फिल्म देखते हुए आपको यह बात शिद्दत से महसूस होती है. दूसरे धर्म के लोगों का फिल्म में जिक्र तक नहीं है. फिल्म में संजरी साहब का अचानक ह्रदय परिवर्तन का लॉजिक भी समझ नहीं आता है. अगर पत्नी की मौत के बाद वह बदलें तो पहली पत्नी की मौत ने उन्हें क्यों नहीं बदला था. चूंकि कहानी का अंत हैप्पी करना था इसलिए आखिर में सबकुछ सही कर दिया गया. फिल्म का गीत संगीत कहानी के अनुरूप है. फिल्म के दूसरे पहलुओं की बात करें तो सीमित संसाधनों में फिल्म की शूटिंग हुई है. यह बाद फिल्म के लुक और तकनीकी पहलू में साफ़ हो जाती है.
अन्नू कपूर का अभिनय भी है लाउड
अन्नू कपूर बेहतरीन एक्टर हैं,लेकिन इस फिल्म में वह चूक गए हैं.उर्दू संवाद पर उनकी पकड़ मजबूत है। कव्वाल के तौर पर भी वह सही हाव – भाव गानों में देते हैं लेकिन दृश्यों में उनका नेचुरल अभिनय मिसिंग है. वह बहुत ज़्यादा लाउड हो गए हैं.कई बार लगता है कि निर्देशक ने कट कहना भूल गए हैं.अश्विनी कलसेकर और मनोज जोशी का अभिनय फिल्म को संभालता है. परितोष त्रिपाठी ,राहुल बग्गा अपनी – अपनी भूमिका में जमें हैं. फिल्म में टेलीविज़न के पॉपुलर चेहरे पार्थ समथान के किरदार को करने को कुछ खास नहीं था.महिला किरदारों में दिखी इशलिन प्रसाद और अदिति की कोशिश अच्छी है लेकिन यहाँ कोशिश नहीं प्रभावी अभिनय की जरूरत थी, जो मिसिंग था.