Gandhi Godse – Ek Yudh: असगर वजाहत ने कहा- हमारी फिल्म में ना किसी को नायक बनाने की कोशिश की गयी ना ही खलनायक
यह एक आभासी इतिहास का विषय है. जहां तक इतिहास का सवाल था उसके साथ पूरी ईमानदारी बरती गयी है. न किसी को डाउनप्ले किया गया है न किसी को किसी के ऊपर दिखाया गया है. जिसकी जो भूमिका थी, उसे उसी भूमिका मैं रखा गया. इसी के आलोक में आभासी इतिहास का अंत शुरू होता है.
2021 में भारतीय साहित्य के प्रतिष्ठित ‘व्यास सम्मान’ से पुरस्कृत 60 के दशक के कथाकार और सिद्धस्त नाटककार असगर वजाहत ने 12 साल पहले गांधी और गोडसे के बीच ‘काल्पनिक संवाद’ को लेकर एक नाटक लिखा-‘गोडसे@गांधी डॉट कॉम.’ मशहूर अभिनेता टॉम आल्टर ने इसे ‘यदि’ के नाम से खेला, कहीं कोई विवाद नहीं हुआ. इसी नाटक को कन्नड़ में के केंकटेश ने और निमेष देसाई ने गुजरती में ‘हूँ छूं मोहनदास’ के नाम से प्रस्तुत किया तब भी कोई प्रतिक्रया नहीं हुई. एक दशक से प्रसिद्ध रंगकर्मी अरविंद गौड़ उसे हिंदी में ‘गोडसे @गांधी डॉट कॉम’ के नाम से ही दिल्ली, मुंबई और दूसरे न जाने कितने महानगरों में प्रस्तुत कर रहे हैं तो भी कोई लप्पो-झन्ना सुनने में नहीं आयी लेकिन इसी नाटक पर आधारित फिल्म ‘गांधी गोडसे: एक युद्ध’ अभी रिलीज हुई तो देश में हंगामा हो गया है. मजेदार बात यह है कि अभी तक फिल्मों को लेकर वैचारिक विवाद खड़ा करने का काम दक्षिणपंथी विचारधारा से जुड़े लोग करते आये हैं. पहली बार धर्मनिरपेक्ष धारा की ओर से विरोध की लहर उठी है. इस विवाद पर फिल्म के लेखक और पटकथाकार असगर वजाहत ने वरिष्ठ पत्रकार और रंगकर्मी अनिल शुक्ल के करारे सवालों के विस्तार से खुल कर जवाब दिए हैं.
इस फिल्म को लेकर राजकुमार संतोषी के साथ आपकी ट्यूनिंग कैसे बैठी?
राजकुमार संतोषी दरअसल पहले मेरे नाटक ‘जिस लाहौर नहीं वेख्या’ को लेकर फिल्म बनाना चाहते थे. उसकी स्क्रिप्ट लिखने के दौरान मैंने उन्हें यह नाटक पढ़ने को दिया. उसे पढ़कर उनकी ज्यादा इच्छा पैदा हुई और हालात ऐसे बने कि यह फिल्म बनकर तैयार हो गयी.
संतोषी की अगली फिल्म, आपके ‘लाहौर’ वाले नाटक को लेकर है?
जी हां. इसकी इन्होंने घोषणा भी कर दी है.
आप दोनों को इस बात की जरा भी फिक्र नहीं थी कि यह फिल्म विवाद का विषय भी बन सकती है?
देखिए नाटक लिखते वक्त या फिल्म लिखते समय या बनाते समय यह कतई नहीं सोचा गया था कि इससे किसी को कोई आपत्ति होगी. यह एक आभासी इतिहास का विषय है. जहां तक इतिहास का सवाल था उसके साथ पूरी ईमानदारी बरती गयी है. न किसी को डाउनप्ले किया गया है न किसी को किसी के ऊपर दिखाया गया है. जिसकी जो भूमिका थी, उसे उसी भूमिका मैं रखा गया. इसी के आलोक में आभासी इतिहास का अंत शुरू होता है.
कहानी का भला उद्देश्य क्या था?
कहानी का मुख्य उद्देश्य संवाद स्थापित करना था. एक प्रकार की अंडरस्टेंडिंग स्थापित करना है. उसमें भला किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी? जिन लोगों ने आपत्तियां की हैं, उन्होंने अभी फिल्म देखी नहीं है. उनकी आपत्तियां भी काल्पनिक हैं. उसमें यथार्थ और सच्चाई नहीं है.
नाटक के लेखक आप हैं और फिल्म की स्क्रिप्ट में भी आपका मुख्य योगदान है. क्या दोनों की बुनावट में कोई बेसिक फर्क है?
हां, जाहिर है दोनों में बड़ा फर्क है क्योंकि आप जानते हैं कि दोनों अलग-अलग मीडियम हैं और जब एक मीडियम से दूसरे मीडियम में रचना जाती है तो उसमें तमाम बदलाव करने ही पड़ते हैं.
मेरा आशय इसके ‘कंटेंट को लेकर है.
नहीं, कंटेंट में कोई फर्क नहीं है. वो दोनों ‘सेम’ हैं.
इस देश में नाथूराम गोडसे की छवि राष्ट्रपिता के हत्यारे के रूप में है. आपके मन में एक हत्यारे का पक्ष धरने का विचार कैसे आया.
यह तो आपका बयान है. जो आप कह रहे हैं, वह आपका स्टेटमेंट है. मैंने नहीं कहा है. न वह फिल्म में या नाटक में कहा गया है. न ये ज़िंदगी में किया गया है. हमारी फिल्म में गांधी के हत्यारे को ग्लोरिफाई नहीं किया गया है. जो लोग कह रहे हैं, या फिल्म के संदर्भ में सोच रहे हैं, फिल्म वह नहीं कहती. न उसका मकसद वह है.
आज जो गांधी पर भांति- भांति के हमले हो रहे हैं, आपकी फिल्म का यह एंगल उन्हें कमज़ोर नहीं बनायेगा? एक जनवादी लेखक के रूप में आप क्या सोचते हैं?
‘जनवादी लेखक संघ’ ने इस नाटक को लेकर कार्यक्रम भी किया था कि मैं जो काम करता रहा हूं, करने और देखने के बाद कि यह नाटक उसके अनुरूप है या नहीं, और उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी. केवल नाम के आधार पर कि गोडसे का नाम आ गया, उस पर विचार करना उचित नहीं.
आपकी फिल्म को देखकर जब देश का कोई युवा सिनेमा हॉल से बाहर निकलेगा तो उसके मन में हीरो कौन होगा? गांधी या गोडसे?
जैसा कि मैंने आपसे कहा कि यह फिल्म किसी को हीरो बनाने की कोशिश कतई नहीं करती. किसी को न तो नायक बनाने की कोशिश है और न खलनायक बनाने की कोई कोशिश इसमें की गयी है.
फिर आखिर कहानी का मकसद क्या है?
जैसा कि मैंने पहले भी कहा, यह एक आभासी कहानी का विषय है. इसे उसी रूप में लिया जाना चाहिए.
फिल्म देख कर तो लोग अपना आकलन कर ही लेंगे. क्या इसके रिलीज होने से पहले आप दर्शकों से कुछ खास कहना चाहेंगे?
मैं तो चाहूंगा कि लोग इसे देखें और देख कर फैसला करें. यह फिल्म केवल गांधी-गोडसे के बारे में नहीं है बल्कि बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल हैं उनके बारे में है. यह देश के लोकतंत्र के बारे में है. विकास की जो परिकल्पना है उसके बारे में हैं. प्रशासन से संबंधित हैं, गवर्नेंस से संबंधित है. इस तरह इसका फलक बड़ा व्यापक है.