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प्रभात खबर से बातचीत में जावेद अख्तर क्यों बोले- हिंदी और उर्दू से कटेंगे, तो दोनों भाषाओं का नुकसान होगा

Exclusive: प्रभात खबर से बातचीत में जावेद अख्तर बोले मुंबई में जो फिल्में बनायी जा रही हैं, उसे काॅन्वेंट स्कूलों से पढ़े हुए बच्चे बना रहे हैं. इनका रिश्ता जमीन से कम है, लेकिन हकीकत यह भी है कि अब की फिल्मों की पिक्चराइजेशन, फोटोग्राफी, कास्ट्यूम काफी बेहतर है.

मशहूर गीतकार, शायर और फिल्म पटकथा लेखक जावेद अख्तर ने कहा है कि हमारी पढ़ाई का जो सिस्टम है वह ठीक नहीं है. हम लोग मातृभाषा की कीमत पर अंग्रेजी सीखते हैं, यह नहीं होना चाहिए. हम अंग्रेजी के खिलाफ नहीं हैं, पर अपनी मातृभाषा की जानकारी भी होनी चाहिए. वह कहते हैं हिंदी और ऊर्दू से कटोगे, तो दोनों भाषाओं का नुकसान होगा. जावेद अख्तर झारखंड लिटरेरी मीट के कर्टेन रेजर में भाग लेने के लिए जमशेदपुर आये हुए थे. वह शनिवार को रांची में रहेंगे. उन्होंने ‘प्रभात खबर’ से खास बातचीत की.

Q दक्षिण की फिल्में हावी हो रही हैं, हिंदी फिल्मों के प्रति लोगों का रुझान घटा है ?

यह एक तरह की लहर है. अलग-अलग फिल्में आती हैं. कुछ नया आता है और कुछ चला जाता है. इसको छोटे पैमाने पर नहीं देखा जाना चाहिए. साउथ की कई ऐसी फिल्में हैं, जो नहीं चलीं, लेकिन दो चार मेजर फिल्में थीं, जो हिट रहीं. हिंदी या मुंबई की फिल्में अधिक नहीं चलीं. मेरा मानना है कि साउथ की फिल्में जड़ों से जुड़ी हुई (रुटेड) हैं. छोटे शहरों के आम आदमी के संस्कार से जुड़ी हुई हैं.

मुंबई में जो फिल्में बनायी जा रही हैं, उसे काॅन्वेंट स्कूलों से पढ़े हुए बच्चे बना रहे हैं. इनका रिश्ता जमीन से कम है, लेकिन हकीकत यह भी है कि अब की फिल्मों की पिक्चराइजेशन, फोटोग्राफी, कास्ट्यूम काफी बेहतर है. इनमें छोटे शहरों की आत्मा मिसिंग है. पहले की पीढ़ी के फिल्मकार कानपुर, जबलपुर, बिजनौर, अमृतसर जैसे छोटे शहरों से आये थे. इस कारण पहले और अभी की फिल्मों में अंतर है.

बीच में अच्छी फिल्में आयीं थीं. ‘बरेली की बरफी’ जैसी फिल्म भी हिट रही थी. वह भी एक तरीका था, जो कामयाब हुई. बड़े शहरों के बड़े मल्टीप्लेक्स में इस तरह की फिल्में हिट रही हैं, लेकिन छोटे शहरों में कई फिल्मों का मार्केट सिमट जा रहा है. बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे शहरों के लोग उसको कनेक्ट नहीं कर पा रहे हैं. इस कारण ये कामयाब नहीं हो पा रहे हैं. हमें लगता है कि नये लोग फिर से आयेंगे, नये तरीके से काम होगा. इंटरटेनमेंट की दुनिया भी बदलती रहती है और यह बदलाव फिर से आयेगा. फिर अच्छे दौर आयेंगे.

Qआप हिंदुस्तानी भाषा के हस्ताक्षर रहे हैं. हिंदुस्तानी भाषाओं का भविष्य कैसा देखते हैं ?

गड़बड़ी क्या हुई है कि पूरा संसार ग्लोबल होता जा रहा है. पहले अंग्रेजी की इतनी जरूरत नहीं थी, जो आज हो गयी है. खास तौर पर कंप्यूटर और तमाम चीजों के कारण. इसका फायदा यह है कि आइटी सेक्टर में दुनिया में हम लोगों का नाम भी इसलिए है, क्योंकि हमारा देश अंग्रेजी जानता है. दुख की बात यह है कि हमारी पढ़ाई का जो सिस्टम है, वह ठीक नहीं है. हम लोग मातृभाषा की कीमत पर अंग्रेजी सीखते हैं, यह नहीं होना चाहिए.

अंग्रेजी के साथ बच्चों को मातृभाषा की जानकारी भी होनी चाहिए, अगर मराठी है, गुजराती है, तमिल है, तो वह भी आनी चाहिए. भाषा सिर्फ संवाद का वाहक नहीं है, भाषा में ही संस्कार आगे बढ़ता है. भाषा में ही परंपरा चलती है. भाषा में ही संस्कृति चलती है. जैसे ही आदमी भाषा को कट करता है, तो तमाम चीजें कट जाती हैं.

अपनी पहचान नहीं बन पाती है. अपनी देसी भाषा हिंदी समेत मिडिल और अपर मिडिल क्लास से जा रही है. उसको रोकने की जरूरत है. आज हिंदी फिल्मों के जो डायरेक्टर हैं, वह खुद रोमन में स्क्रिप्ट लिखते हैं. बच्चे को तीन भाषा आप अगर सिखा देंगे, तो कोई तबाही नहीं आ जायेगी. बच्चों को हिंदी आनी चाहिए, अंग्रेजी जाननी चाहिए और मातृभाषा भी आनी चाहिए.

Q…तो क्या परवरिश पर ध्यान देना चाहिए ?

परवरिश पर तो ध्यान देना ही चाहिए. उर्दू हिंदुस्तानी जुबान है, वह बर्बाद हो रही है. हिंदी और उर्दू का ग्रामर एक है. दुनिया में शायद ही कोई ऐसी दो भाषा हो, जिसका ग्रामर एक हो. हिंदी की डिक्शनरी को अगर आप देखेंगे, तो पांच से छह हजार ऐसे शब्द हैं, जो हिंदी ने ले लिये हैं. उर्दू में एक जुमला भी आप बिना हिंदी के नहीं बोल सकते हैं, तो ये रिश्ता है हिंदी और उर्दू का. ये सियानी ट्विंस के समान है, जो अंदर से जुड़ी हुई है, तो आप काटेंगे कैसे. अगर काटेंगे, तो दोनों मर जायेंगे.

Q. हिंदी फिल्मों के गाने में अब मेलॉडी नहीं बन रही है, क्या वजहें हैं ?

गाने हों या फिल्म, आसमान से थोड़े आते हैं. जिंदगी में ही अब मेलॉडी नहीं रही. इसी समाज के पैदावार गाने और फिल्में होती हैं. फिल्म या गाना बनानेवाले यहीं के हैं, इसी समाज के हैं. फिल्में अगर गड़बड़ हैं, तो यह सोचना चाहिए कि समाज में क्या हो रहा है. फिल्मों को देखने के बजाय समाज में क्या चल रहा है, यह देखना चाहिए.

किसी ने यह कहा है कि सोसाइटी के एडवरटाइजमेंट दिखा दीजिये, हम सोसाइटी के बारे में बता देंगे. वैसे ही फिल्में देखकर समाज के बारे में पता चलता है. फिल्म बनाने वाले लोग पूरी कोशिश करते हैं कि आम आदमी उनकी फिल्मों को पसंद करे, लेकिन आम आदमी को क्या चाहिए, यह वे लोग नहीं देखते हैं. हम अभी भी यह देख रहे हैं कि अब लोग ऐसे गाने और फिल्मों को रिजेक्ट करने लगे हैं. पहले के गाने साठ साल बाद भी चलते थे, लेकिन एक माह पुराने गाने गायब हो जाते हैं. मार्केट फोर्सेस इसको चेंज करेंगी. लोग कहते हैं कि फिल्में समाज को बिगाड़ रही हैं, लेकिन हम कहते हैं कि समाज फिल्मों को बिगाड़ रहा है.

Q आप फिल्मों और गानों का भविष्य कैसा देखते है ?

मैं आम आदमी और हिंदुस्तानी के कॉमन सेंस पर भरोसा करता हूं. मुझे लगता है कि किसी देश को देखना है, तो 15 या 25 साल में नहीं देखे, सौ साल या दो सौ साल में देखना होता है. किधर गया, क्या किया, डे टू डे में नहीं पता चलेगा. आयेंगे, चले जायेंगे, फिर वही सरवाइव करेगा, जो आम आदमी पसंद करेगा. आम इंसान नहीं पसंद करेगा, तो उनको बदलना ही होगा. बुरी चीजें चल रही हैं, तो वक्त के साथ आम इंसान उसे रिजेक्ट करेगा और खराब चीजें फिर ठीक हो जायेंगी.

Q. हिंदी और उर्दू को समृद्ध करने के लिए क्या राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है ?

एजुकेशनिस्ट को सेंसेटिव होना चाहिए. सिलेबस है, उसको सेंसेटिव होना चाहिए इन चीजों पर. खास तौर पर साइंस, टेक्नॉलॉजी, मेडिसीन से जुड़े लोग हिंदी या साहित्य को नहीं जानते हैं. इसकी पढ़ाई में भी देश की बेसिक चीजों को जोड़ने की जरूरत है. हिंदुस्तानी संगीत या कवि के बारे में लोगों को जानकारी नहीं होती है, हम नहीं कहते हैं कि सब कवि ही हो जायें, लेकिन धरोहर क्या है, यह बताने की जरूरत है, ताकि सबको यह मालूम चल सके कि देश की कला, संस्कृति और भाषा क्या है.

Q. सलीम खान के साथ फिर कुछ करने का सोच रहे है क्या ?

यह तो 40 साल पुरानी बात है, जो बीत गयी सो बात गयी. अमित जी ने यह कहा था, लेकिन अभी सलीम जी रिटायर हो गये हैं. ओल्ड हो गये हैं. बच्चे उनके अच्छा काम कर रहे हैं. भविष्य में कोई काम कर सकेंगे, ऐसा लगता नहीं है.

रिपोर्ट- ब्रजेश सिंह

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