kill movie review खून से लथपथ इस थ्रिलर ड्रामे के सफर को लक्ष्य और राघव अपने दमदार परफॉरमेंस से बना गए हैं एंगेजिंग
फिल्म किल अभिनेता लक्ष्य और राघव जुयाल की आनेवाली फिल्म है.हिंदी सिनेमा की सबसे हिंसक फिल्म करार दी जा रही यह फिल्म कैसी है.जानते हैं इस रिव्यु में
film -kill
निर्माता – धर्मा प्रोडक्शन और सिख्या एंटरटेनमेंट
निर्देशक -निखिल नागेश भट्ट
कलाकार – लक्ष्य,राघव,अभिषेक चौहान,तान्या मानिकतला,आशीष विद्यार्थी, हर्ष छाया और अन्य
प्लेटफार्म – सिनेमाघर
रेटिंग – तीन
बीते साल रिलीज़ हुई रणबीर कपूर की फिल्म एनिमल को भारतीय सिनेमा की सबसे हिंसक फिल्म करार दिया गया था. अभी छह महीने ही बीते हैं कि धर्मा प्रोडक्शन की आगामी ५ जुलाई को रिलीज होने जा रही फिल्म किल ने भारत की सबसे वायलेंट फिल्म का खिताब अपने नाम कर लिया है.फिल्म कई इंटरनेशनल फेस्टिवल्स में सराही जा चुकी है. फिल्म अभी रिलीज भी नहीं हुई है और इसके इंटनेशनल रीमेक की भी बात सामने आ गयी है. खैर ओरिजिनल फिल्म की बात करें तो बुराई पर अच्छाई की जीत वाली ही कहानी है,लेकिन इसे बहुत ही रॉ एक्शन के अंदाज के साथ दिखाया गया है.अब तक ऐसा हिंदी फिल्मों के परदे पर नहीं दिखा है. खास बात है फिल्म का सारा एक्शन ट्रेन की बोगियों में दिखाया गया है.आमतौर पर ट्रेन में चलने की जगह मुश्किल से होती है.ऐसे में ढेर सारा एक्शन वो भी एसी कोच में मौजूद परदे, चादर,अग्निशमक सिलेंडर और जंजीर की मदद से फिल्माया गया है ,जो इस फिल्म का इनोवेटिव पहलु है. इसके साथ लक्ष्य और राघव जुयाल की दमदार अदाकारी भी है. फिल्म में हिंसा की अति है. इस तरह की फिल्में समाज और सिनेमा के लिए सही है या गलत.क्या ये फिल्म हिंसा को ग्लोरिफ़ाई करती है.ये एक बहस का मुद्दा हो सकती हैं, लेकिन इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि यह थ्रिलर फिल्म आपको शुरू से अंत तक बांधे रखते हुए मनोरंजन करती है और स्क्रिप्ट इस तरह से लिखी गयी है कि दर्शक बुरे का अंत बुरा ही देखना चाहता है .इस बात को कहने साथ यह लिखना भी बेहद जरुरी है कि अगर परदे पर आप पाताललोक के हथोड़ा त्यागी का रॉ एक्शन देखने सहज थे, तो ही इस फिल्म को देखने का जोखिम लीजिएगा क्योंकि इस फिल्म में हर दूसरा दृश्य वैसा है .
बुराई पर अच्छाई की जीत की है कहानी
फिल्म की कहानी की शुरुआत एनएसजी कमांडो अमृत ( लक्ष्य लालवानी )और तूलिका ( तान्या मानिकतल्ला ) की प्रेमकहानी से होती है. अपने रसूख वाले पिता (हर्ष छाया )की वजह से तूलिका को किसी और से सगाई करनी पड़ती है. अमृत अपनी ड्यूटी में बिजी होने के कारण इस खबर से अंजान था, जैसे ही उसे मालूम पड़ता है. वह रांची अपनी प्रेमिका के पास पहुँच जाता है.वह अपनी प्रेमिका को भगाने का प्लान बनाता है, लेकिन हालात कुछ ऐसे बन जाते हैं कि तूलिका अपने पूरे परिवार के साथ रांची से दिल्ली ट्रेन से जाने को निकल गयी है.अपनी गर्लफ्रेंड को मनाने के लिए अमृत भी इसी ट्रेन में अपने एक कमांडर दोस्त के साथ पहुंच जाता है. यह ट्रेन की जर्नी शुरू तो प्यार से होती है,लेकिन जैसे ही ट्रेन प्लेटफार्म छोड़ती है. फिल्म अपने मूल मकसद पर आ जाती है. दरअसल दर्जन भर डकैतों का एक ग्रुप भी इसी ट्रेन में लूटपाट के इरादे से चढ़ गया है. खुद को वे डकैत कहते हैं ,लेकिन टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल उन्हें बखूबी आता है. उन्होंने ट्रेन में मोबाइल के सिग्नल जैमर लगा दिए हैं , जिससे ट्रेन से किसी को कॉल ना जा सकें और ना ही आ सके. ट्रेन पूरी तरह से इन डैकतों के कब्जे में हो जाता है , जिसके बाद फनी (राघव जुयाल ) की अगुवाई में लूटपाट और खून खराबे का नंगा नाच शुरू हो जाता है. सभी पैसेंजर्स के साथ तूलिका और उसके परिवार पर भी आफत आ पड़ती है. एनएसजी कमांडर अमृत अपने प्यार को उसके अंजाम तक नहीं पहुंचा पाता,लेकिन आतंक के खूनी खेल को उसके अंजाम तक जरूर पहुंचा देता है. यह सब कैसे होगा .इसके लिए आपको फिल्म देखनी होगी .
फिल्म की खूबियां और खामियां
अपूर्वा फिल्म का निर्देशन कर चुके निखिल नागेश भट्ट की यह दूसरी फिल्म है. फ़िल्म अपनी मूल कहानी पर आने में वक़्त नहीं लेती है. फिल्म की अवधि भी दो घंटे से कम है,जो इस तरह के जॉनर की फिल्मों के लिए प्लस पॉइंट है. किरदारों को स्थापित करने में ज्यादा समय नहीं दिया गया है लेकिन फिल्म में ठाकुर बलदेव सिंह के किरदार को जिस तरह से अहम् बताया गया है कि पूरी झारखण्ड की पुलिस उसको ढूंढने के लिए निकल पड़ेगी. वैसा कुछ स्क्रीनप्ले में नहीं आ पाया है. इस पर थोड़ा काम करने की जरुरत थी. बुराई पर अच्छे की जीत वाली इस कहानी को
ढेर सारी खूनी हिंसा,पागलपन और सनक के जरिये दिखाया गया है. फिल्म बदले की भी कहानी है और सेकेंड हाफ में उसी के मद्देनजर कहानी को दिखाया गया , जिसके बाद आपको परदे पर जो कुछ भी चल रहा है. उसे खुद आप जायज ठहराने लगते हैं. फिल्म में बुरे लोगों के अपने करीबी लोगों के मरने के दर्द को भी दिखाया गया. यह लेखन टीम की खूबी है. फिल्म का एक्शन दिमाग़ को हिला देने वाला है.सिर को कुचलने वाले सीन बहुत असहज कर देते हैं.आप आँखों को कई बार स्क्रीन से हटा लेते हैं. इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है ,लेकिन हिंदी सिनेमा में ट्रेन के अंदर इस तरह का एक्शन कभी देखने को नहीं मिला है. ट्रेन की बोगी में शवों का लटकता हुआ दृश्य फिल्म में डर के माहौल को गहरा गया है. इसके लिए एक्शन डायरेक्टर की तारीफ करनी होगी. फिल्म की एडिटिंग और सिनेमाटोग्राफी डिपार्टमेंट भी तारीफ के हकदार हैं , जो परदे पर सबकुछ इतना प्रभावी ढंग से आ पाया है. एक्शन में चूक सिर्फ ट्रेन के बाहर वाले दृश्यों में रह गयी है , जब राघव का किरदार ट्रेन की छत पर चढ़कर अपने साथी को बचाता है और लक्ष्य का किरदार भी रस्सी की मदद से एक बोगी से दूसरे बोगी जाता है. वहां दृश्य थोड़ा बनावटी सा लगता है. फिल्म से जुड़े दूसरे पहलुओं में राघव जुयाल के संवाद रोचक बन पड़े हैं. कई बार वह इस इंटेस फिल्म में कॉमेडी भी जोड़ते हैं.अच्छी बात ये है कि रॉ एक्शन होने के बावजूद फिल्म के संवादों में गाली गलौज का इस्तेमाल नहीं हुआ है. फिल्म बैकग्राउंड म्यूजिक अच्छा है. फिल्म में सिर्फ एक गीत है,जो बैकग्राउंड में बजता है.
लक्ष्य और राघव का दमदार परफॉरमेंस
फिल्म के दोनों ही लीड एक्टर टेलीविज़न से आए हैं. लक्ष्य लालवानी टीवी सीरियल पोरस का चेहरा रहे हैं, जबकि राघव डांस रियलिटी शो का. दोनों ने बहुत दमदार तरीके से उपस्थिति दर्शायी है.लक्ष्य लालवानी परदे पर अपनी बॉडी लैंग्वेज, एट्टीट्यूड में इतने परफेक्ट हैं कि आप उनको देखकर यह यकीन कर लेते हैं कि वह परदे पर चालीस लोगों को उनके अंजाम तक पहुंचा देंगे.उनकी शख्सियत हिंदी फिल्मों के हीरो जैसी है.वह एक्शन स्टार के तौर पर अपनी संभावनाओं को दर्शाते हैं. राघव जुयाल की तारीफ़ करनी होगी. उन्होंने एक सनकी अपराधी की भूमिका को बखूबी जिया है.वो यादगार बन गया है.उनकी संवाद अदाएगी उनके किरदार को और ज्यादा दिलचस्प बना गयी है. आशीष विद्यार्थी और अभिषेक चौहान अपनी छोटी भूमिका में भी याद रह गए हैं. तान्या सहित बाकी के कलाकारों ने भी अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है.