फिल्म- भक्षक
निर्माता- रेड चिलीज
निर्देशक- पुलकित
कलाकार- भूमि पेंडेकर,संजय मिश्रा,आदित्य श्रीवास्तव,दुर्गेश कुमार,सत्यकाम और अन्य
प्लेटफार्म- नेटफ्लिक्स
रेटिंग- तीन
फिल्म भक्षक की कहानी
फिल्में समाज का आइना होती है. शाहरुख खान की प्रोडक्शन कंपनी रेड चिलीज की आज नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई फिल्म भक्षक सत्य घटनाओं पर आधारित फिल्म है. संवेदनशील विषय पर बनी यह फिल्म अनाथ बच्चियों के खिलाफ हुए अत्याचार भर की कहानी नहीं है. यह भारतीय समाज के कलेक्टिव फेलियर पर बात करती है. यह फिल्म आपकी और हमारी वास्तविकता से मुंह छिपाकर निकल जाने की कायरता को चुनौती देते हुए हमारे घर का मामला नहीं है जैसी छोटी सोच पर भी चोट करती है. कुल मिलाकर यह फिल्म सभी को देखनी चाहिए क्योंकि यह फिल्म हमें दूसरे के दुख में दुखी होने की अहम इंसानी सीख देती है.
इंसानियत का सबक सीखाती है
भक्षक फिल्म की कहानी एक स्वतंत्र पत्रकार, वैशाली सिंह (भूमि) की है, जो एक छोटे से न्यूज चैनल कोशिश न्यूज को चलाती है. एक दिन उसे उसके एक सूत्र से एक खबर मिलती है कि मुन्नवरपुर के एक बालिका गृह में बच्चियों के साथ बलात्कार हो रहे हैं लेकिन कानून और सरकार दोनों आंख में पट्टी बांधे हुआ है. दरअसल सेल्टर होम का संचालन बंसी साहू (आदित्य श्रीवास्तव) नाम के एक प्रभावशाली व्यक्ति के हाथों है. बंसी एक पत्रकार भी हैं. उसके मजबूत राजनीतिक संबंध हैं. वैशाली और उसके सहयोगी भास्कर सिन्हा (संजय मिश्रा) के लिए सच्चाई को उजागर करना, बंसी को बेनकाब करना और लड़कियों को न्याय दिलाना एक कठिन लड़ाई है. इस दौरान उसके सामने क्या कुछ समस्याएं आती है. कैसे वह इस मुद्दे को सरकार और क़ानून के सामने उजागर करती है. सबूत लाती है. इससे वैशाली की निजी जिंदगी और लोगों पर भी असर पड़ता है. क्या अनाथ बच्चियों को इंसाफ मिलता है. यह फिल्म इन्ही सब सवालों के जवाब देती है.
फिल्म की खूबियां और खामियां
फिल्म की घोषणा के साथ ही यह बात चर्चा में थी कि यह फिल्म बिहार के मुज़्ज़फ़रपुर के बालिका गृह में हुए अपराध पर आधारित है हालांकि मेकर्स इससे इंकार करते हैं. वह सिर्फ इसे प्रभावित बताते रहे हैं, लेकिन फिल्म की कहानी, किरदार और बैकड्रॉप से यह बात साफ है कि यह फिल्म उसी शर्मनाक घटना पर आधारित है. फिल्म शुरुआत में ही आपको झकझोर देती है, जिससे कहीं ना कहीं यह बात साफ हो जाती है कि अभी बहुत कुछ दिल दहला देने वाली घटनाएं सामने आएंगी और फिल्म में वैसा ही होता जाता है. फिल्म झकझोरती है, लेकिन इसका प्रस्तुतीकरण बांधे रखता है.
क्या है फिल्म में कमी
वैशाली से आप भी जुड़ जाते हैं और सत्ता को नियंत्रित कर अपराध में जुड़े सभी अपराधियों को सजा मिलते आप भी देखना चाहते हैं. निर्देशक पुलकित की इसलिए भी तारीफ करनी होगी कि बच्चियों के यौन शोषण की इस कहानी में उन्होने कोई भी ऐसा दृश्य नहीं जोड़ा है, जो महसूस करवाएं कि इसका मकसद सनसनी को बढ़ाना है, हालांकि स्थिति की भयावहता और दर्द को दर्शाने में वह पूरी तरह कामयाब रहे हैं. फिल्म के संवाद कहानी को और प्रभावी बना गए हैं. यह फिल्म फेमिनिज्म का समर्थन बिना किसी भाषणबाजी के करती है और सही पत्रकारिता में कितनी ताकत है. यह भी कहानी में बखूबी जोड़ती है. फिल्म का गीत संगीत असरदार है और सिनेमाटोग्राफी भी सटीक तौर पर कहानी के साथ न्याय करती है. खामियों की बात करें तो फिल्म में किरदारों की अधिकता है, कई बार लगता है कि सभी किरदारों के साथ न्याय नहीं हो पाया है.
एक्टिंग में सब हैं शानदार
अभिनय की बात करें तो इस फिल्म की लीड एक्टर्स से लेकर सपोर्टिंग तक सब किरदार में पूरी तरह से रचे – बसे नजर आते है. भूमि अपने अभिनय से प्रभावित करती हैं, एक्सेन्ट से लेकर बॉडी लैंग्वेज में उनकी मेहनत दिखती है. तो आदित्य श्रीवास्तव कुछ इस कदर अपने किरदार में रच गये हैं कि फिल्म देखते हुए आपको उनके किरदार से नफरत होती है. आखिरकार एक एक्टर की जीत इसी में है. संजय मिश्रा अपने अभिनय से फिल्म के सीरियस मूड को हल्का करते हैं. साईं तम्हकर, सत्यकाम, दुर्गेश कुमार, अपनी भूमिकाओं में याद रह जाते हैं. बाकी के किरदार भी अपनी भूमिका में जमे हैं.