maharaj review:आस्था पर नहीं अंधभक्ति की मानसिकता पर चोट करती है जुनैद खान की फिल्म महाराज

कैसी है आमिर खान के बेटे जुनैद खान की लॉन्चिंग फिल्म महाराज. इस वीकेंड फिल्म महाराज देखना चाहते हैं,तो पढ़े ये रिव्यु

By Urmila Kori | June 22, 2024 4:46 PM
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फिल्म – महाराज

 निर्देशक – सिद्धार्थ पी मल्होत्रा

 निर्माता – यशराज फिल्म्स 

कलाकार -जुनैद खान ,जयदीप अहलावत, शरवरी ,शालिनी पांडे और अन्य 

प्लेटफार्म – नेटफ्लिक्स

 रेटिंग –  तीन 

film maharaj आमिर खान के बेटे जुनैद खान की लॉन्चिंग फिल्म है. पिछले कुछ समय से सुर्ख़ियों में है. फिल्म पर हिन्दू संगठन की भावनाएं आहत करने का आरोप था, जिससे मामला कोर्ट तक जा पहुंचा और फिल्म की 14 जून की रिलीज पर भी रोक भी लग गयी. आखिरकार 21 जून को कोर्ट ने फिल्म के हक़ में फैसला सुनाया और फैसला आने के आधे घंटे यानी शाम में ही फिल्म को नेटफ्लिक्स ने रिलीज कर दिया. आमतौर पर नेटफ्लिक्स पर फिल्मों का प्रसारण दोपहर के समय किया जाता रहा है. खैर अब बात फिल्म की करते हैं. यह फिल्म सौरभ शाह की किताब महाराज पर आधारित है, जो 1862 के एक कोर्ट केस पर आधारित है. मौजूदा दौर में जहां फिल्मों से सभी की भावनाएं जल्द ही आहत हो उठती है, यह समझने की जरूरत है कि आज जिस समाज में हम रह रहे हैं यह करसनदास मुलजी जैसे समाज सुधारकों की देन हैं और यह फिल्म उन्हीं करसनदास मुलजी को श्रद्धांजलि देती है.सिनेमाई पहलुओं पर गौर करें तो फिल्म का विषय बेहद  दमदार है, लेकिन पर्दे पर वह दमदार तरीके से नहीं आ पाया है , लेकिन फिल्म शुरू से आखिर तक आपको बांधे रखती है इससे इंकार नहीं किया जा सकता है. कुछ खामियों के बावजूद यह फिल्म और इसका विषय आज भी सामायिक है.यह बात किसी से छिपी भी नहीं है कि सिर्फ धर्मगुरुओं के नाम बदलते हैं.उनके किस्से कई दशकों बाद भी वही सुनने को मिलते हैं.यह आम आदमी की मानसिकता पर भी सवाल उठाती है, जो धर्मगुरुओं को भगवान या खुदा मान लेते हैं.


धर्म भगवान नहीं अच्छा इंसान बनने का है माध्यम की सीख वाली है कहानी 

कोर्ट में फिल्म के वकीलों का ये तर्क  था कि ये हमारा इतिहास है. हमें पसंद हो या ना हो इसे मिटाया नहीं जा सकता है. इतिहास के पन्नों में मौजूद यह कहानी का साल 1862 की एक घटना का नाटकीय रूपांतरण है। जब पत्रकार और समाज सुधारक करसनदास(जुनैद खान ) ने लोगों को जागरूक करने के लिए उस वक़्त के सबसे बड़े महंत येजुनाथ (जयदीप अहलावत ) पर महिला भक्तों का यौन शोषण करने का आरोप लगाते हुए अपने अखबार सत्यप्रकाश में लेख छाप लोगों को जागरूक करने की कोशिश की. अपनी साख को बचाने के लिए महाराज यदुनाथ ने करसनदास को ना सिर्फ अदालत में घसीट लेता है,बल्कि उस पर पचास हजार रुपये की भारी भरकम राशि का मुआवजा भी ठोक देता है. महाराज  की शर्त होती है कि करसनदास  सभी के सामने  माफी मांग लें, तो वह उसे माफ़ कर देंगे,लेकिन करसन खुद को माफ़ी नहीं बल्कि महाराज  को सजा दिलाना चाहता था.वह महाराज  के खिलाफ केस लड़ता है, जिसने  ऐतिहासिक महाराज लिबेल केस को जन्म दिया.इस केस की वजह से उस वक़्त की सबसे बड़ी कुप्रथा चरण सेवा को खत्म कर कर दी गयी और महाराज को भी बताया गया कि वह कानून से ऊपर नहीं है, लेकिन यह सब करसनदास के लिए आसान नहीं था. समाज ही नहीं बल्कि उसके अपने भी उसके खिलाफ खिलाफ हो जाते हैं लेकिन वह हार नहीं मानता है.वह भगवान की तरह पूजे जाने वाले महाराज को किस तरह से बेनकाब करता है. यह जाने के लिए आपको फिल्म देखनी चाहिए. 


फिल्म की खूबियां और खामियां

 फिल्म आधुनिक समय के सबसे बड़े मुकदमे में से एक की कहानी  है, लेकिन फिल्म  प्रकाश झा की वेब सीरीज आश्रम और फिल्म एक बंदा काफी है कि बहुत हद तक याद दिलाता है.इससे इंकार नहीं किया जा सकता है. सेकेंड भाग में कहानी अपने मूल मकसद पर आती है और कोर्ट केस शुरू होता है. फिल्म आपको पूरे  समय आपको बांधे रखती हैं लेकिन कहानी में उतार- चढ़ाव की कमी खलती है. यह फिल्म एक असल घटना का नाटकीय रूपांतरण हैं , लेकिन परदे पर सबकुछ सपाट सा है. फिल्म में कई सवालों के जवाब अधूरे भी रह गए हैं. करसन दास की सोच सभी से अलग कैसी थी. इसके पीछे की वजह क्या थी. जब महाराज की करतूतों से भक्त अदालत में रूबरू होते हैं , तो वह ना तो ठगा हुआ नजर आते हैं और ना ही गुस्से को जाहिर करते हैं.फिल्म में ड्रामे को शब्दों के माध्यम के बजाय अगर दृश्यों के जरिये बयां किया जाता तो यह फिल्म को प्रभावी बना सकता है. इन खामियों के बावजूद ऐसी फिल्में हर समाज की जरूरत है कि  भगवान या खुदा तक पहुंचने के लिए किसी धर्मगुरु की जरूरत नहीं है। यह बात किसी से छिपी भी नहीं है कि सिर्फ धर्मगुरुओं के नाम बदलते हैं. किस्से कई दशकों बाद भी वही सुनने को मिलते रहते हैं.फिल्म आम आदमी की मानसिकता को भी सवालों के घेरे में लाती है ,जो अन्धविश्वास और कुरीतियों को बढ़ावा देती है. फिल्म के संवाद प्रभावी बन पड़े हैं. मैं जन्म से वैष्णव, कर्म से ब्राह्मण, स्वभाव से क्षत्रिय और धैर्य शूद्र का रखते हुए जहाँ भी गंदगी देखता हूं. उसे साफ़ करने की कोशिश करता हूँ.यह एक पीरियड ड्रामा है और  यशराज बैनर की फिल्म है तो फिल्म के हर फ्रेम में पूरी भव्यता के साथ उस दौर को जिया गया है, हर फ्रेम बेहद खूबसूरत है, जिससे यह कई बार रियलिटी से कोसों दूर भी दिखता है.  


जयदीप ने एक बार फिर  दी है पावरफुल परफॉरमेंस 

जुनैद खान ने अपनी लॉन्चिंग के लिए एक अलग तरह की फिल्म का चयन किया है. जिसके लिए उनकी तारीफ बनती हैं और पहली ही फिल्म में जयदीप अहलावत जैसे मंझे हुए अभिनेता के सामने अभिनय करना  भी किसी चुनौती से कम नहीं था ,जिसे उन्होंने अच्छे ढंग से  निभाया है. फिल्म के क्लाइमेक्स में अदालत के कटघरे में खड़े उनका मोनोलॉग डायलॉग उनके अभिनय की  क्षमता को दर्शाता है, लेकिन अभी उन्हें खुद पर और काम करने की जरुरत है खासकर अपनी संवाद अदाएगी पर . जयदीप अहलावत ने एक बार फिर शानदार परफॉरमेंस दी है. इस कदर उन्होंने  किरदार को निभाया है कि एक वक़्त के बाद आपको उनसे नफरत होने लगती है.  एक अभिनेता की यही असल जीत है. शालिनी पांडेय ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है तो शरवरी फिल्म में अपने अभिनय से फिल्म के संवेदनशील विषय में राहत जोड़ती हैं.बाकी के किरदारों का काम कहानी के अनुरूप है. 

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