मिसेज चटर्जी वर्सेज नॉर्वे रिव्यू: मां के साहस, संघर्ष की दिल छू लेने वाली इस कहानी में, दमदार है रानी मुखर्जी
Mrs Chatterjee Vs Norway Review: मिसेज चटर्जी वर्सेज नॉर्वे में रानी मुखर्जी एक सशक्त महिला की एक और नयी छवि को सामने लेकर आने की कोशिश करती हैं. फिल्म एक मां के संघर्ष की कहानी को परदे पर जी रही है. रानी ने अपने बच्चों से दूर रह रही मां के दर्द, तड़प, बेचैनी, हताशा और गुस्से हर भाव को बखूबी जिया है.
फ़िल्म – मिसेज चटर्जी वर्सेज नॉर्वे
निर्माता -निखिल आडवाणी
निर्देशक – असीमा छिब्बर
कलाकार -रानी मुखर्जी, जिम सर्भ,अनिर्बन भट्टचार्या, बालाजी गौरी और अन्य
प्लेटफार्म – सिनेमाघर
रेटिंग – तीन
बीते कुछ सालों के रानी मुखर्जी के कैरियर पर गौर करें, तो उनकी प्राथमिकता अब ऐसे किरदार और कहानियां नहीं रह गयी हैं, जो सिर्फ एंटरटेन करती हैं. एक छोटे से अंतराल के बाद आयी अपनी हर फिल्म से वह सशक्त महिला की एक और नयी छवि को सामने लेकर आने की कोशिश करती हैं. इस बार वह अपनी इस फिल्म से रियल लाइफ की एक मां के संघर्ष की कहानी को परदे पर जी रही है. स्क्रीनप्ले की कुछ खामियों के बावजूद यह फिल्म अपनी दिल दहला देने वाली सच्ची कहानी और रानी मुखर्जी के दमदार अभिनय की वजह से आपके दिल को छूकर आंखों को नम कर ही जाती है.
असल घटना पर आधारित है यह कहानी
यह फिल्म सागरिका चटर्जी की असल जिंदगी की कहानी पर आधारित है. जिसे फिल्म में मिसेज देबिका चटर्जी (रानी मुखर्जी) के किरदार के जरिए दिखाया है, जो शादी के बाद अपने पति (अनिर्बन) के साथ कोलकाता से नॉर्वे अच्छी जिंदगी के लिए जाती है, लेकिन उसकी जिंदगी वहां बिखर जाती है.उसके दोनों बच्चों नॉर्वे के फोस्टर केयर वाले उससे छीन लेते हैं, जब वह अपना बच्चा उनसे मांगती है, तो उनकी दलील होती है कि वह बच्चे की परवरिश सही ढंग से नहीं कर रही है, क्योंकि वह बच्चों को अपने हाथ से खाना खिलाती है. अपने साथ एक ही बिस्तर पर सुलाती है और नजर का काला टीका लगाती है. फोस्टर केयर वालों के लिए ये सब बातें किसी मां को उसके बच्चों से दूर करने के लिए काफी है, लेकिन भारतीय मां देबिका को यह कानून मंजूर नहीं है. वह अपने बच्चों को पाने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है. सब मिलकर उसे मानसिक रूप से बीमार करार देने लगते हैं, जिसमे उसका पति भी शामिल है. इस संघर्ष में वह अकेली पड़ जाती है, लेकिन हिम्मत नहीं हारती है. नॉर्वे के फोस्टर केयर से अपने बच्चों को पाने के लिए वह नॉर्वे से लेकर भारत तक के कोर्ट में इंसाफ के लिए लड़ाई लड़ती है. क्या उसे इंसाफ मिलता है. यही आगे की कहानी है.
इमोशनल कर जाती है फिल्म
फिल्म अपनी शुरुआत के साथ ही कहानी के इमोशन को सेट कर जाती है. उसके बाद कहानी धीमी रफ्तार से चलती है. जिसमे स्क्रीनप्ले थोड़ा कमजोर रह गया हैं, लेकिन फिल्म आपको इमोशनली खुद से जोड़ लेती है. कोर्ट के कुछ दृश्य बेहतरीन बने हैं. जहां रानी अपनी परफॉरमेंस से आपकी आंखों को नम कर देती है. रानी मुखर्जी के दमदार अभिनय ने फिल्म के कमजोर फर्स्ट हाफ को बखूबी संभाला है. फिल्म का सेकेंड हाफ उम्दा है और क्लाइमेक्स फिल्म को और मजबूती दे जाता है. क्लाइमेक्स का कोर्ट रूम ड्रामा दिलचस्प है. फिल्म रानी के किरदार के किरदार के व्यक्तित्व के बदलाव को सही तरीके से सामने ले आती है. जब तक उसके बच्चे उसके पास होते हैं, वह पति की मार को भी चुपचाप सहती है, लेकिन जैसे ही उसके बच्चें उससे दूर हो जाते हैं और स्वार्थ की वजह से जब पति उसका साथ नहीं देता है, तो वह पति के थप्पड़ को चुपचाप से सहती नहीं है, बल्कि उसका और जोरदार थप्पड़ से जवाब देती है. फिल्म पितृसत्ता सोच, घरेलू हिंसा पर भी चोट करती है.
कुछ सवाल अधूरे से रह गए है
स्क्रिप्ट की खामियों की बात करें, तो फिल्म की शुरुआत दमदार तरीके से होती है, लेकिन कुछ समय के बाद कहानी दोहराव से गुजरने लगती है. फिल्म के ट्रेलर और फिल्म की शुरूआत में नॉर्वे के फोस्टर होम को एक स्कैम करार दिया गया था, लेकिन इन सवालों का सही ढंग से यह फिल्म जवाब नहीं दे पायी है. ये सवाल फिल्म में अधूरा ही रह गया है कि फोस्टर होम बच्चों का भला चाहती है या अपना हित साधना. गौरतलब है कि भारतीय सरकार ने नॉर्वे की सरकार पर दबाव बनाया था, तब जाकर सागरिका के साथ हो रही नाइन्साफी की सुध वहां की सरकार ने ली थी. इस पहलू को फ़िल्म में थोड़ा और डिटेल में दिखाए जाने की जरूरत थी. बस दो से तीन दृश्यों में इस बात को फ़िल्म में दिखा दिया गया है.
रानी मुखर्जी और बालाजी गौरी का अभिनय कमाल
फिल्म के शीर्षक में रानी का किरदार है, मतलब साफ है कि यह रानी मुखर्जी की फिल्म है और उन्होंने अपने अभिनय से इस बात को साबित कर दिया है. रानी ने अपने बच्चों से दूर रह रही मां के दर्द, तड़प, बेचैनी, हताशा और गुस्से हर भाव को बखूबी जिया है. फिल्म की कास्टिंग परफेक्ट है. फिल्म के मूल किरदार बंगाली हैं. मेकर्स ने बंगाली एक्टर्स को ही इन किरदारों में प्राथमिकता दी है. जिस वजह से वह पूरी तरह से अपने-अपने किरदार में रचे बसे नजर आते हैं, हालांकि इन किरदारों पर खास मेहनत नहीं की गयी है. फिल्म के आखिरी के आधे घंटे में नजर आयी अभिनेत्री बालाजी गौरी अपने अभिनय से छाप छोड़ती है. वह फिल्म को एक पायदान ऊपर ले गयी है. जिम सर्भ की मौजूदगी भी फिल्म को खास बनाती है.
ये पहलू भी हैं खास
फिल्म से जुड़े दूसरे अहम पहलुओं में गीत-संगीत की बात करें, तो अमित त्रिवेदी ने तीन सिचुएशनल ट्रैक तैयार किए हैं, जो कहानी के साथ इस तरह गुंथा गया है कि यह फिल्म की स्क्रीन टाइम को बढ़ाने से ज्यादा मिसेज चटर्जी के इमोशनल साइड को बयां कर गए हैं. हितेश सोनिक का बैकग्राउंड स्कोर पूरी तरह से कहानी के साथ न्याय करता है. फिल्म के संवाद की बात करें तो इसमें जमकर बांग्ला और नॉर्वे की भाषा का इस्तेमाल किया है, जो कहानी के साथ न्याय करता है, लेकिन जो लोग सब टाइटल पढ़ते हुए फिल्म देखना पसंद नहीं करते हैं. उन्हें यह पहलू थोड़ा दिक्कत दे सकता है. फिल्म की सिनेमाटोग्राफी और दूसरे पहलू भी अच्छे बन पड़े हैं.
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देखें या ना देखें
एक मां के साहस और इच्छाशक्ति की कहानी सभी को देखनी चाहिए और रानी मुखर्जी का दमदार अभिनय इस फिल्म की सबसे अहम यूएसपी तो है ही.