फ़िल्म -ज़्विगाटो
निर्माता -अप्लाज एंटरटेनमेंट
निर्देशक -नंदिता दास
कलाकार – कपिल शर्मा, शाहना गोस्वामी,गुल पनाग, स्वानंद किरकिरे, सायनी गुप्ता और अन्य
प्लेटफार्म -सिनेमाघर
रेटिंग -दो
फिल्ममेकर नंदिता दास की फिल्में समाज को हमेशा आइना दिखाती आयी हैं. ज़्विगाटो समाज के मजदूर तबके की कहानी है, जिनकी अहमियत हमारे रोजमर्रा के कामों में बड़ी है, लेकिन हमारी नज़रों में, हमारे सोच- विचारों में उनकी अहमियत छोटी सी है. उसी तबके की जिंदगी और उससे जुड़े जद्दोजहद को यह फ़िल्म लेकर आती है. फ़िल्म का कांसेप्ट बहुत ही सशक्त है, लेकिन कमजोर स्क्रीनप्ले फ़िल्म के साथ न्याय नहीं कर पायी है, इसके साथ ही फ़िल्म में मुद्दों की अधिकता हो गयी है,गिग इकोनॉमी, राजनीतिक, सामाजिक हालात सभी पर फ़िल्म अपना नज़रिया रखती चलती है, जिससे किसी एक विषय के साथ भी ठीक से न्याय नहीं हो पाया है.
फ़िल्म की कहानी झारखंड के धनबाद के रहने वाले महतो परिवार की है. रोजी -रोटी की तलाश उन्हें भुवनेश्वर ले आयी है. वहां पर उनका परिवार ठीक-ठाक अपनी गुजर बसर कर रहा था, लेकिन कोरोना में फैक्ट्री बंद हो गयी और घर के एकमात्र कमाऊ सदस्य मानस (कपिल शर्मा) परिवार को पालने के फूड डिलीवरी का काम कर रहा है, लेकिन दो बच्चों की पढ़ाई, बीमार बूढ़ी मां और बेसिक ज़रूरतों इन सबके लिए पैसे कम पड़ रहे है. मानस की पत्नी प्रतिमा (शाहना) भी नौकरी करना चाहती है, लेकिन मानस का मेल ईगो कम नहीं पड़ रहा है. वह प्रतिमा को घर पर बैठने को कहता है और कहता है कि वह सबकुछ जुगाड़ कर देगा, जैसे आठ महीने बेरोजगार रहने पर किया था. क्या मानस की सोच बदल पाएगी. यही फ़िल्म की कहानी है.
नंदिता दास की यह सोशल ड्रामा फ़िल्म मूल रूप से एक परिवार की कहानी है. जो कम संसाधनों में जिंदगी जी रहा है. फ़िल्म अमीर- गरीब के बीच की खाई को बखूबी सामने ले आती है.फ़िल्म का क्लाइमेक्स अच्छा बन पड़ा है. जो आम आदमी के हौंसले को बखूबी सामने लाता है. फ़िल्म इसी बात को दोहराती है कि एक आम परिवार में हालात तभी ठीक हो सकते है, जब पति -पत्नी दोनों की जिम्मेदारी बराबरी से घर को संभालने की हो.
खामियों की बात करें तो यह फ़िल्म गिग इकोनॉमी पर है, जिसमे काम करने वाले लोग की कहानी है. इस कहानी में बहुत सारी संभावनाएं थी, लेकिन फ़िल्म का स्क्रीनप्ले सतही रह गया है. दस डिलीवरी पूरी करने का टारगेट, राइडर का धर्म, रेटिंग से उनके काम को आंकना, कस्टमर की मनमानी, ये सब मुद्दे बस कहानी में छुए गए है.फ़िल्म के फर्स्ट हाफ हो या सेकेंड हाफ कहानी बस चलती रहती है.ऐसा कुछ भी नहीं है,जो आपको यह सवाल करने दे कि अब क्या होगा.नंदिता अगर इस फ़िल्म को गिग इकोनॉमी पर पूरी तरह से फोकस करती, तो यह दिल को छूने वाली कहानी बन सकती थी.
अभिनय की बात करें कपिल शर्मा ने अपने पॉपुलर इमेज से बिल्कुल अलग छवि पेश की है.कपिल शर्मा का बॉडी लैंग्वेज, चेहरे का हाव सभी में उनकी मेहनत दिखती है बस थोड़ी कसर भाषा की रह गयी है. शाहना गोस्वामी एक बार फिर अपने किरदार में रच -बस गयी है. जिस सहजता के साथ उन्होने परदे पर प्रतिमा के किरदार को जिया है. उसकी जितनी तारीफ की जाए कम है. बच्चों के किरदार में दोनों बाल कलाकार अच्छे रहे हैं. फ़िल्म में गुल पनाग, स्वानंद किरकिरे और सायानी गुप्ता भी मेहमान भूमिका में नजर आए हैं.
Also Read: Gulmohar Movie Review: रिश्तों की यह उलझी कहानी परिवार और अपनेपन की नयी परिभाषा है गढ़ती
फ़िल्म के दूसरे पहलुओं की बात करें तो फ़िल्म की सिनेमाटोग्राफी और आर्ट वर्क की तारीफ करनी होगी, जो पूरी तरह से कहानी के साथ न्याय करता है. फ़िल्म के संवाद अच्छे बन पड़े हैं. किरदारों की मनोदशा को वह बखूबी सामने लाते हैं. मजबूर है इसलिए मजदूर है. फ़िल्म के गीत -संगीत की बात करें, तो एक गीत है,जो फ़िल्म के आखिर में बैकग्राउंड में बजता है. यह गीत कहानी को सुखद अंत तक पहुँचाता है.