फिल्म – पटना शुक्ला
निर्माता – अरबाज खान
निर्देशक -विवेक बुड़ाकोटी
कलाकार – रवीना टंडन, अनुष्का कौशिक, सतीश कौशिक, मानव विज, चंदन रॉय सान्याल, जतिन गोस्वामी और अन्य
प्लेटफार्म – डिज्नी प्लस हॉटस्टार
रेटिंग – ढाई
शिक्षा के घोटालों पर अब तक कई फिल्में और वेब सीरीज बन चुकी हैं. पटना शुक्ला भी इसी कड़ी में अगला नाम है, शिक्षा घोटाले की पृष्ठभूमि वाली यह फिल्म मूल रूप से यह एक कोर्टरूम ड्रामा है. फिल्म का कॉन्सेप्ट फ्रेश और रोचक है, लेकिन कहानी और स्क्रीनप्ले इसे मजबूती नहीं दे पाये हैं. मामला सतही रह गया है. रवीना सहित बाकी कलाकारों का सधा हुआ अभिनय फिल्म को सहारा जरूर देता है. जिस वजह से फ़िल्म एक बार देखी जा सकती है.
एक महिला के पहचान बनाने की है कहानी
तन्वी शुक्ला (रवीना टंडन) की यह कहानी है. जो पेशे से वकील है, लेकिन उसकी कोर्ट की दलीलों की नहीं कुकिंग स्किल की ज़्यादा तारीफें होती हैं. परफ़ेक्ट पत्नी और मां की इस पहचान से उसे शिकायत नहीं है लेकिन वह वकील के रूप में भी वह सम्मान पाना चाहती है. उसकी जिंदगी उसे इस सम्मान को पाने का एक मौक़ा देती है, जब एक गरीब स्टूडेंट रिंकी कुमारी (अनुष्का कौशिक) अपना केस लेकर उसके पास आती है और शिक्षा विभाग में चल रहे एक बड़े रैकेट रोल नंबर घोटाले का उसे पता चलता है .तन्वी इस रैकेट का पर्दाफ़ाश कर रिंकी को इंसाफ़ दिलाना चाहती है ,लेकिन यह इतना आसान नहीं है क्योंकि इसमें विश्वविद्यालय के अधिकारियों के साथ साथ क़द्दावर नेता रघुबीर सिंह (जतिन गोस्वामी) भी शामिल है. जिसके हाथ की कठपुतली सिस्टम है . क्या तन्वी शुक्ला अपने प्रोफ़ेशनल लाइफ में सम्मान पा सकेगी. क्या वह रिंकी कुमारी को इंसाफ़ दिलाकर इस रैकेट में शामिल लोगों को सजा दिला पाएगी. तन्वी शुक्ला से पटना शुक्ला कैसे बनती है. यह भी आगे की कहानी है.
फ़िल्म की खूबियां और खामियां
फ़िल्म के कॉन्सेप्ट में नयापन है. फिल्म अपने शुरुआत में एक बेहतरीन फ़िल्म बनती दिखती भी है. शुरुआत के कुछ समय फ़िल्म मूल कहानी तक आ भी जाती है, लेकिन फिर मामला औसत वाला हो जाता है. फिल्म की कहानी में ट्विस्ट की कमी भारी खलती है. शिक्षा घोटाले को बहुत सरलता से फिल्म में दिखा दिया है. इसके साथ ही नायक को मजबूती खतरनाक खलनायक से मिलती है, लेकिन इस फिल्म की कहानी में खलनायक का किरदार कमजोर रह गया है. फिल्म के कोर्ट रूम वाले दृश्यों में भी वह दांव पेंच का ड्रामा मिसिंग है, जो कहानी को रोचक बना सकता था. हालांकि फिल्म बहुत ही सधे हुए ढंग से पुरुष मानसिकता पर चोट करती है कि किस तरह से औरतों को वर्क प्लेस पर रौनक बढ़ाने का जरिया मात्र माना जाता है या रवीना के किरदार का पहला केस जीतने के बाद उसके पति का उसकी जीत की अनदेखी करना. वैसे कई जगहों पर जॉली एलएलबी और एक बंदा है काफी का एहसास भी करवाती है. फिल्म के गीत संगीत की बात करें तो वह कहानी के अनुरूप हैं. फिल्म की सिनेमेटोग्राफी साधारण है. किरदारों कोई भाषा पर थोड़ी और मेहनत करनी थी. कई शब्दों में पटना नहीं बल्कि मुंबइया टच दिखता है.
किरदार से जुड़ी हर विविधता को रवीना ने बारीकी से है जिया
इस फिल्म का आधार रवीना टंडन का किरदार है और रवीना ने पत्नी, मां, बेटी के साथ-साथ अदालत में अपनी बात को बेबाकी के साथ रखने वाली वकील अपने किरदार की हर विविधता को हर सीन के साथ जिया है. मानव विज अपने किरदार के साथ न्याय किया है. अनुष्का कौशिक अच्छी रही हैं लेकिन उन्हें अभी खुद पर और काम करने की जरूरत है. किरदार का फाइटिंग स्पिरिट का जज्बा उनके अभिनय में नहीं आ पाया है. सतीश कौशिक को पर्दे पर देखना हमेशा ही सुखद एहसास करवाता है. यह फिल्म भी अछूती नहीं है. फिल्म में उनके आखिरी दृश्य में जिस तरह से उन्हें जाते हुए दिखाया गया है. वह दिल को छूता है. चंदन रॉय सान्याल और जतिन गोस्वामी के साथ फिल्म की स्क्रिप्ट न्याय नहीं कर पायी है, जिस वजह से यह फिल्म उन्हें कुछ खास करने का मौका नहीं देती है, हालांकि दोनों ही एक्टर्स ने अपने किरदार में अच्छा परफॉर्म किया है. सुष्मिता मुखर्जी और राजू खेर अपने किरदारों के साथ न्याय करते हैं.