इश्क और इंकलाब के सुप्रसिद्ध गीतकार शैलेंद्र की बेटी अमला शैलेंद्र मजूमदार गुरुवार को पटना में थीं. वह अपने पिता शैलेंद्र (जन्म 30 अगस्त 1923-मृत्यु 14 दिसंबर 1966) जन्मशती समारोह पर आयोजित एक कार्यक्रम में शरीक होने आयी थीं. उन्होंने अपने पिता को याद करते हुए कई बातें साझा कीं. बातचीत की प्रभात खबर के संवाददाता अनिकेत त्रिवेदी ने. उन्होंने शैलेंद्र के गीतों की रचना प्रक्रिया, सामाजिक आकांक्षओं और उस दौर के फिल्मी माहौल के बारे में विस्तार से बताया.
वैसे तो मैं उन्हें ऐसे ही याद करती हूं, जैसे बेटी अपने बाबा (पापा) को याद करती है. लेकिन वो स्पेशल थे. हम सभी उन्हें उनकी गीतों से याद करते हैं. उनके गीत आज भी राह दिखाते हैं. जब कभी कोई दुख होता है. अनिर्णय की स्थिति होती है तो बाबा के गीतों की कई लाइनें मसलन ” बहुत दिया देने वाले ने तुझको, आंचल ही न समाये तो क्या कीजे…बीत गये जैसे ये दिन रैना, बाकी भी कट जाये दुआ कीजे”’ …. काे गुनगुनाने से एक उम्मीद सी बंध जाती है. पिता के कम उम्र में चले जाने पर मुझे मलाल है. बाबा कम उम्र में चले गये. तब मेरी उम्र उनके गीतों के अर्थ समझने लायक नहीं थी. एक मलाल रहता है, अगर वो लंबा जीते तो मैं पूछती कि आखिर आप गीतों की ऐसी लाइनें कैसे लिख लेते हैं?
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बाबा फिल्मी गीतों से पहले कविता लिखते थे. वर्ष 1947 के 15 अगस्त को जब देश आजाद हुआ, उन दिन बाबा एक कवि सम्मेलन में गये थे. कवि सम्मेलन का संचालन पृथ्वीराज कपूर कर रहे थे. के अब्बास जैसे लोग वहां मौजूद थे. वहां गुजराती, हिंदी, उर्दू आदि भाषाओं में कविता होनी थी. शमशेर सिंह बहादूर, नरेंद्र शर्मा जैसे कवियों को कविता पाठ करना था. बाबा कविता पढ़ने नहीं आये थे, लेकिन जब शमशेर सिंह ने कविता पाठ करने से मना कर दिया तो बाबा से कविता पाठ करने को कहा गया. तब बाबा ने अपनी इतिहास शीर्षक वाली कविता पढ़ी. श्रोता मुग्ध हो गये. उस कवि सम्मेलन में राज कपूर भी मौजूद थे. उसके बाद से ही लोगों ने बाबा को नोटिस करना शुरू कर दिया.
बाबा की कविताओं और गीतों का राज कपूर पर गहरा असर था. जब वह 23 साल के थे, तो उन्होंने पहली फिल्म ‘आग’ बनानी शुरू की. उसके लिए बाबा को गीत लिखने को कहा. तब बाबा ने कह दिया कि वह पैसे के लिए नहीं लिखते. उनके गीत बिकने के लिए नहीं हैं. मगर जब अगले साल बाबा की शादी हुई तो मुंबई में गृहस्थी जमाने की चुनौती थी. आर्थिक मोर्चे पर वह जूझ रहे थे. उस वक्त मेरी मां गर्भवती थीं. शैली भैया होने वाले थे. बाबा की आर्थिक जरूरतें बढ़ रही थीं. तब वे राज अंकल के पास गये. उनसे 500 रुपये मांगे और कहा कि इसके बदले वह उनसे काम ले सकते हैं. राज कपूर ने उनकाे रुपये दिये और कहा कि जब पैसा लौटाने आइयेगा, तब बात करेंगे. जब बाबा पैसा लौटाने गये तो राज कपूर उन दिनों वे बरसात फिल्म बना रहे थे. फिल्म लगभग पूरी हो चुकी थी. लेकिन, उन्होंने कहा कि दो गानों की गुंजाइश है, आप लिखो. बाबा ने तब लिखा था बरसात में ‘हमसे मिल तुम सजन, तुमसे मिले हम’ और ‘पतली कमर है, तिरछी नजर है’…” उसके बाद फिल्म आवारा, श्री420 आदि कई फिल्मों में गाने लिखने का दौर शुरू हो गया. राज कपूर के साथ अगले 16-17 सालों तक यह सिलसिला बना रहा. ‘बरसात’ से लेकर ‘मेरा नाम जोकर’ तक राज कपूर की सभी फिल्मों के थीम गीत शैलेंद्र ने ही लिखे.
सरल और सहज शब्दों से जादूगरी करने वाले मेरे पिता का जन्म 30 अगस्त, 1923 को रावलपिंडी में हुआ था. मूल रूप से हमारा परिवार बिहार के भोजपुर का था. लेकिन, फौजी पिता की तैनाती रावलपिंडी में हुई तो घर बार छूट गया. रिटायरमेंट के बाद दादा जी अपने एक दोस्त के कहने पर मथुरा में बस गये. कविता और प्रगतिशील नजरिए के चलते वह इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ गये. 1947 में जब देश आजादी के जश्न और विभाजन की पीड़ा में डूबा था, तब उन्होंने एक गीत लिखा था, ‘जलता है पंजाब साथियों…’ जन नाट्य मंच के आयोजन में शैलेंद्र जब इसे गा रहे थे तब श्रोताओं में राज कपूर भी मौजूद थे. राज कपूर उन्हें कविराज कहकर बुलाते थे. आवारा फिल्म ने राज कपूर को दुनिया भर में लोकप्रिय बना दिया था. इस वाकये के बाद शंकर-जयकिशन के साथ बाबा की कुछ अनबन हो गयी थी. उन्होंने किसी दूसरे गीतकार को अनुबंधित भी कर लिया था. इसके बाद बाबा ने उन्हें एक नोट भेजा – ‘छोटी सी ये दुनिया, पहचाने रास्ते, तुम कभी तो मिलोगे, कहीं तो मिलोगे, तो पूछेंगे हाल’. नोट पढ़ते ही अनबन खत्म हो गयी. जोड़ी टूटने वाली नहीं थी और आखिर तक दोनों साथ रहे.
‘तीसरी कसम’ पर बाबा ने फिल्म का निर्माण शुरू किया था. तब उनकी आर्थिक मुश्किलों का दौर शुरू हुआ. फिल्मी कारोबार से उनका वास्ता पहली बार पड़ा था. वे कर्ज में डूब गये. फिल्म की नायिका वहीदा रहमान ने भी काम करने से मना कर दिया था. फिल्म के लिए पैसे कम पड़ गये. तब मम्मी घर-गृहस्थी में बचाये पैसे बाबा को दे दिये. उसके बाद फिल्म बनी. हालांकि फिल्म नहीं चली. ऐसा कहा जाता है कि फिल्म नही चली और मेरे बाबा इससे बहुत आहत हुए. इसके कारण ही उनकी मृत्यु हो गयी. लेकिन यह पूरा सच नहीं है. यह सच है कि घर में पैसे नहीं थे. लेकिन बाबा ने अपने जीवन में पैसों की परवाह कभी नहीं की. उन्हें इस बात का फर्क नहीं पड़ा था कि फिल्म नाकाम हो गयी क्योंकि उस वक्त में वह सिनेमा में सबसे ज्यादा पैसा पाने वाले लेखक थे. जो लोग सोचते हैं कि फिल्म के फ्लॉप होने और पैसों के नुकसान के चलते शैलेंद्र की मौत हुई, वे गलत सोचते हैं. सच तो यह है कि धोखा देने वाले लोगों से उन्हें बेहद चोट पहुंची थी. बाबा भावुक इंसान थे. तीसरी कसम बनाने के दौरान उन्हें कई लोगों से धोखा मिला. इसका असर भी उनके स्वास्थ्य पर पड़ा था.
फिल्म तीसरी कसम की कहानी तो फणीश्वर नाथ रेणु जी की तो थी ही. मगर, फिल्म के संवाद भी रेणु जी ने ही लिखे थे. उन दिनों जब फिल्म बनाने की तैयारी चल रही थी, तो रेणु जी का मुंबई आना होता था. रेणु जी जब फिल्म का संवाद लिखने बैठते तो उनके पास एक हांडी रसगुल्ला और एक अगरबत्ती जला कर रख दी जाती थी. वह रसगुल्ला खाते रहते और संवाद लिखते रहते. उन दिनों रेणु जी की पहचान एक हांडी रसगुल्ला और अगरबत्ती से बन गयी थी.
हर दौर बदलावों का होता है. यह तो प्रक्रिया है. पर यह देखा जाना चाहिए कि आज कैसे गीत लिखे जा रहे हैं? अब कोई गाना चार दिनों के लिए ही चलता है. पर बाबा के जमाने के गीतों की चमक आज भी बरकरार है. उस समय गीतकार, संगीतकार, गायक सब बराबर होते थे. किसी भी गाने को बनाने के लिए सब लोग अपनी जान डाल देते थे, माहौल आज जैसा नहीं था कि हर कोई अगल चल रहा हो. मेरे बाबा के गीत आज भी दिल के करीब हैं तो इसकी वजह है कि वे जीवन के अनुभवाें से जुड़े थे.