Exclusive: अधिकतर एक्टर्स थिएटर बैकग्राउंड से हैं, लेकिन वे थिएटर के लिए कुछ नहीं करते- शैलजा केजरीवाल
राइटर प्रोडयूसर शैलजा केजरीवाल एंटरटेनमेंट फील्ड का एक खास नाम हैं. शैलजा ने कई मुद्दों पर बात हुई. जब उनसे पूछा गया कि,अक्सर कहा जाता है कि नाटक को लाइव देखने का असल मज़ा है, इस सोच को रखने वाले दर्शकों से आप क्या कहेंगी. इसपर उन्होंने जवाब दिया.
राइटर प्रोडयूसर शैलजा केजरीवाल एंटरटेनमेंट फील्ड का एक खास नाम हैं. जिंदगी चैनल से पाकिस्तानी कंटेंट को भारतीय दर्शकों के दिलों तक जोड़ने के बाद, पिछले कुछ समय से वह जी थिएटर के टेलीप्ले के ज़रिए थिएटर को मजबूत करने में जुटी हैं. जिसका मकसद बेहतरीन नाटकों को ना सिर्फ हर घर तक पहुंचाना है बल्कि सहेज कर रखना भी है. उर्मिला कोरी से हुई बातचीत के प्रमुख अंश.
टेलीप्ले हर दिन नया ड्रामा इस कांसेप्ट के पीछे की आपकी सोच क्या थी?
हमारे देश में नाटक के जरिए मनोरंजन की पुरानी परम्परा रही है, जिसमें किसी सोशल मुद्दे को उठाकर उसमें बहुत संजीदगी के साथ बात होती थी, सिर्फ मनोरंजन करना भर उसका मकसद नहीं होता था. वो समाज का एक आइना हुआ करता था, लेकिन धीरे -धीरे नाटक की परम्परा लुप्त होती जा रही है. अब बहुत कम नाटकों के मंचन के लिए थिएटर रह गए हैं.वो सब फिल्मों के स्क्रीन बन गए हैं या कुछ और. लाइव परफॉरमेंस के लिए अब थिएटर रहे ही नहीं हैं.हमें लगा कि क्यों ना फिर से वो परम्परा को जीवत किया जाए. नाटक के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं है, तो क्यों ना स्क्रीन के माध्यम से उसे लोगों तक पहुंचाएं. जी थिएटर शुरू करने का हमारा ये उद्देश्य था. जिसे लोगों ने काफी सराहा, जिसके बाद हमने हर दिन नया नया ड्रामा शुरू किया, जिसका मतलब है कि हम हर दिन नया ड्रामा दिखाने में सक्षम है. इसकी एक वजह नाटकों का अथाह खजाना हमारे पास है, कालिदास से लेकर रबिन्द्रनाथ टैगोर और विजय तेंदुलकर जैसे नाम हैं.
टेलीप्ले में अगला क्या खास करने क़ी प्लानिंग है?
हमारी कोशिश अब बंगाल, महाराष्ट्र और साउथ के नाटक को दिखाने की है. फिल्मों को तो डब करके देखने की लोगों की आदत जो गयी है, तो नाटकों को क्यों नहीं.
अक्सर कहा जाता है कि नाटक को लाइव देखने का असल मज़ा है, इस सोच को रखने वाले दर्शकों से आप क्या कहेंगी?
हां,नाटक को लाइव देखने से अच्छा क्या हो सकता है. मैं कोलकाता में पली -बढ़ी हूं.जब मैं मुंबई आयी तो मैंने यहां जो नाटक देखें वो कभी कोलकाता में नहीं देखें थे. हामिदा बाई की कोठी नाटक मराठी में था, जिस वजह से कोलकाता में उसका कभी मंचन नहीं हुआ. मैं कहना चाहती हूं कि जिस जगह पर आप रहते हैं, वहां का लाइव नाटक ज़रूर देखें, लेकिन जी थिएटर के माध्यम से आप दूसरे भाषाओं के बेहतरीन कंटेंट को भी देखें. कहीं ना कहीं हम कालिदास, रबिन्द्रनाथ टैगोर, गिरीश कनार्ड और विजय तेंदुलकर के नाटकों को आर्काइव कर रहे हैं ताकि हमारे आनेवाली पीढ़ी इससे महरूम ना रहे. नयी पीढ़ी को जोड़ने के मकसद से ही हमने पुराने नाटकों की भाषा में थोड़ी फेरबदल भी करते हैं ताकि उससे आज के दर्शक भी कनेक्ट कर सके.हमारी जो फिल्मों और ओटीटी के कलाकार हैं, वे नाटकों से ही उभरकर आए हैं, लेकिन उसी थिएटर बैकग्राउंड के लिए कोई कुछ नहीं कर रहा है.
आपके टेलीप्लेस में कई पॉपुलर चेहरे नज़र आते रहते हैं, क्या युवाओं को भी बराबर का मौका मिल पा रहा है?
आप हमारी सारे नाटकों के कास्ट देखेंगी, तो 99 प्रतिशत वो चेहरे हैं, जो थिएटर से ही जुड़े हैं.पिया बहरूपिया,लेडीज संगीत, पुरवा नरेश के नाटक, ओके टाटा बाय बाय इन नाटकों में सारे नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा के ही लोग हैं.वो भी सारे युवा, जिन्हे पहला काम यही मिल रहा है . इस काम को वो शो रील बना बनाकर ओटीटी वालों को दिखाते हैं.अमृता सुभाष ने 2016में हमारे नाटक हमीदा बाई की कोठी में काम किया था, वो अभी ओटीटी का पॉपुलर चेहरा हैं. हिंदी इंडस्ट्री में वह हमारे नाटकों से परिचित चेहरा बनी. विजय वर्मा ने भी हमारे नाटकों में काम किया है. हमारा हमेशा से मकसद नए लोगों के साथ काम करना है. नए लोगों में एक प्योर आर्टिस्ट होता है, जो खुद को अलग तरह से एक्सप्रेस करना चाहता है.जो पॉपुलर हो जाते हैं, वो तो एक इमेज में बंध जाते हैं. मैं लकी हूं कि कई खास लोगों ने अपना पहला काम मेरे साथ किया है. राजकुमार हीरानी ने अपनी पहली शार्ट फिल्म मेरे साथ की, उस वक़्त वो एडिटर हुआ करते थे. अनुराग बासु, श्रीराम राघवन ऐसे ही नाम हैं. मैं बेस्टसेलर वाले दौर की बात कर रही हूं.
आपका नाम आए और जिंदगी चैनल का जिक्र ना हो, ये मुमकिन नहीं है. इतने उतार चढ़ाव के बावजूद जिंदगी अभी भी लोगों की जिंदगी में शामिल है?
ऐसा कोई भी नहीं है, जिसने जिंदगी चैनल देखा हो और उसे पसंद ना आया हो. छह महीने के अंदर मुझे बेस्ट चैनल का अवार्ड मिल गया था. आज तक यह सम्मान किसी चैनल को नहीं मिला है.इतने उतार चढ़ाव के बावजूद लोगों के जुबान पर अभी भी जिंदगी का जिक्र है. कितने चैनल आए और गए, लेकिन जिंदगी लोगों के जेहन में हमेशा रहा है. राजनीति को एक बार के लिए हटा दें तो मुझे लगता है कि कहानियों से क्या दुश्मनी, बचपन में हमने एक कविता सीखी थी कलम या तलवार. मेरा पॉइंट है कि तलवार तलवार का काम करें,लेकिन कलम को भी अपना काम करना चाहिए. कलम भी अगर तलवार का काम करने लग जाए तो फिर डेमोक्रेसी कैसे रहेगी.
जिंदगी पर इस साल क्या खास आनेवाला है?
इस साल मार्च अप्रैल में नया शो आएगा उसमें फवाद खान को वापस ला रहे हैं.एक और प्रोजेक्ट है अब्दुल्लापुर का देवदास और फ़राज़, अब कोशिश है कि भारत और पाकिस्तान के टैलेंट को मिलाकर कुछ करने का, तो उसी कोशिश में लगी हूं.
आपने थिएटर के लिए भी फिल्में बनायी है, मदारी और करीब करीब सिंगल. क्या भविष्य में फिल्म निर्माण की योजना है?
काम चल रहा है लेकिन मैं कुछ अलग बनाने में यकीन करती हूं मदारी फिल्म से आज भी लोग जुड़ाव महसूस कर सकते हैं. गुजरात में ब्रिज गिरने की घटना. ऐसी घटनाएं होती रहती है. उम्मीद करती हूं कि इस साल के अंत तक कुछ अनाउंस कर दूं.
इरफ़ान खान के साथ अपने एसोसिएशन को किस तरह से याद करती हैं?
बहुत सारी यादें हैं. मैं उसकी उदारता को हमेशा याद करती हूं. मैंने उस वक़्त टीवी छोड़ दिया था. इरफ़ान उस वक़्त बहुत मशरूफ थे, लेकिन वे मुझे कॉल करते और कुछ लिखने के लिए प्रोत्साहित करते थे. मैंने तीन चार आइडियाज उनको सुनाया, जिसमें से मदारी उनको पसंद आया. उनके बाद सब कुछ आसान हो गया.