सिनेमा को अपने अभिनय से और ज्यादा समृद्ध बनाने के लिए प्रसिद्ध अभिनेता रघुबीर यादव जल्द ही अमेजन प्राइम वीडियो की सीरीज पंचायत 2 में नजर आने वाले हैं. वह कहते हैं कि 20 मई को स्ट्रीम होने वाली इस वेब सीरीज की कहानी पिछले सीजन से और ज्यादा दिलचस्प हो गयी है. उर्मिला कोरी से हुई बातचीत के प्रमुख अंश
एक अंतराल के बाद फिर उस किरदार जीना कितना मुश्किल या मजेदार होता है?
कभी तो ज्यादा मजा आता है क्योंकि कोई चीज अच्छी बन गयी है. लोगों ने देख ली है. देखने के बाद जो बीच में गैप आता है. उसमें हम अपनी कमियों को भी ठीक कर सकते हैं कि कुछ रह गया है. कई दफा अपने किरदार को समझने की ही कोशिश कर रहे होते हैं, तो 8 एपिसोड कुछ नहीं होते हैं. जो इसमें खामियां रह गयी हैं. हम उसको ठीक करने की कोशिश करेंगे तो कुछ मायने में ये भी है कि जिम्मेदारी बढ़ जाती है क्योंकि शो बहुत पॉपुलर रहा. बहुत देखा गया. ये भी देखा जाएगा तो जिम्मेदारी और बढ़ जाएगी.
आपने खामियों की बात की,बीते पंचायत सीजन में क्या खामी रह गयी थी?
मैं कभी संतुष्ट नहीं रह पाता हूं. बचपन से ये मेरी आदत है.लगता है कि कुछ रह गया है. मैंने थिएटर किया है पारसी थिएटर. उनके साथ छह सालों तक खानाबदोश की तरह रहा. वहां ये सब आदतें डाल दी गयी कि अपने काम से बहुत जल्द संतुष्ट ना होइए. चीजों को खोजते रहिए, ढूंढते रहिए. ये नहीं कि आपने कर लिया तो अपना कॉलर खड़ा कर लीजिए कि मैं एक्टर बन गया. एक जिन्दगी आपने जी ली लेकिन दूसरी आपको जीनी है. वो भी एकदम अलग तरह से. संतुष्ट हो जाने में मजा नहीं है जो छटपटाहट में है.
पंचायत सीरीज में आपकी पत्नी प्रधान हैं लेकिन आप प्रधानी कर रहे हैं?
इसमें ये नहीं है कि पत्नी को दबाने वाली बात है.आपस में हाथ बंटाकर करिए. बस वही बात है. गांव में यही होता है.मैं इस बात को सकारात्मक तौर पर देखता हूं क्योंकि गांव में मिल बांटकर काम करने की आदत होती है. पुरुष साईकल चला लेता है तो वही चला जाता है. ज्यादा हुआ तो अपनी पत्नी को पीछे बिठा लेगा. मगर बाहर के काम वही ज्यादा संभालते हैं.
पंचायत सीरीज की खास बात आपको क्या लगती है?
असली हिंदुस्तान हमारे गांव से ही है और बहुत दिनों बाद हमें उसे पहचानने का मौका मिला है पंचायत की वजह से.मैं तो रहा हूं गांवों और देहातों में. मुझे पता है कि भरा पड़ा है अगर हम मिलकर भी बनाएंगे तो एक जन्म में खत्म नहीं हो पाएगा. कई जन्म ले पाएंगे तो वहां की पूरी कहानियों को दिखा पाएंगे. मैं मध्यप्रदेश से हूं लेकिन यूपी,बिहार और राजस्थान के गांवों में भी रहा हूं तो मुझे पंचायत का माहौल बहुत मजेदार लगा.
नयी पीढ़ी के एक्टर्स को किस तरह से देखते हैं?
मैं भी इनके लिए नया ही हूं.ये मेरे लिए नए हैं. मैं आज तक कभी भी जिन्दगी में कभी नहीं सोचा कि कोई नया है क्योंकि हम हमेशा कोई नया काम करते हैं तो उससे जुड़ा हर इंसान नया ही होता है.
क्या उनसे कुछ सीखते भी हैं?
सीखता हूं और कुछ गलत कर रहे होते हैं तो सीखा भी देता हूं कि प्रभु आगे मत बढ़ो ज्यादा वरना धर लिए जाओगे. मैं पंचायत के अपने युवा साथी जीतू, की बात करूं तो वह एक्टर बनकर कभी सेट पर नहीं आए कि भाई मैं पॉपुलर एक्टर हूं.बताइए डायलाग क्या है. क्यूज नहीं दिया मुझे. ये शिकायत वो शिकायत नहीं थी.यहां सब एक दूसरे से सीखते थे. मिलकर काम करते थे.
क्या कभी किसी दूसरे सेटस पर ऐसे एक्टर्स से पाला पड़ा है,उनको किस तरह से हैंडल करते हैं
बहुत सारे ऐसे एक्टर्स हैं.60 प्रतिशत ऐसे ही एक्टर्स हैं. जहां तक हैंडल करने की बात है तो कुछ एक्टर्स रिहर्सल में नहीं मानते हैं तो शॉट में संभाल लेता हूं. मैं तो डायरेक्टर्स से भी निपट लेता हूं.
आपने कई कालजयी किरदारों को जिया है लेकिन अभी भी लोग आपको मुंगेरी लाल से ही ज्यादा जोड़कर देखते हैं इसकी क्या वजह आपको लगती है?
मुंगेरी लाल से ज्यादा मुझे मुल्ला नसरुद्दीन बेहतर लगा था.मुंगेरी लाल मैंने पहले किया था.उससे पहले मैंने सलाम बॉम्बे और मेसी साहब फिल्म की थी लेकिन वो दौर दूरदर्शन का था. 13 एपिसोडस थे.सबलोगों ने देखा था तो उसी से आज तक रिलेट करते हैं मुझे.
आप अभिनय का संस्थान रहे हैं क्या कोई एक्टिंग स्कूल शुरू करने की ख्वाइश है?
मैं ड्रामा स्कूल एनएसडी चला जाता हूं. वहां वर्कशॉप कर लेता हूं. मध्यप्रदेश चला जाता हूं.लोनावाला के कैवल्य धाम में दस बारह दिन का एक वर्कशॉप कर रहा हूं. मैं बताना चाहूंगा कि मैं कभी नहीं कहता हूं कि मैं सीखाने आया हूं.मैं कहता हूं कि मैं क्लास में आया हूं.आप भी सीखेंगे. मैं भी सीखूंगा. बड़ा मजा आता है. स्कूल खोलने के पक्ष में नहीं हूं क्योंकि वो धंधा हो जाएगा. वैसे एक्टिंग की कोई स्कूल नहीं होती है. एक्टिंग लफ्ज ही बहुत गलत है. एक्टिंग जिस एक्टर में डाल दिया गया. वो खत्म, एक्टिंग जिसने की वो नकल करने लग जाता है. कैरिकेचर हो जाता है.मिमिक्री हो जाती है. आप किरदार कीजिए
कैरियर के इतने लंबे सालों के क्या किसी अभिनेता ने आपको नर्वस किया है?
मेरा वो समय निकल गया. जब पारसी थिएटर में था. वहां ऐसे खलीफे, उस्ताद लोग हुआ करते थे. मेरी जबान जो थी वो बुंदेलखंडी थी. जहां स और श का फर्क नहीं था. उन्होंने मुझे पूरा गढ़ा. मुझे पारसी थिएटर में रोज के दो रुपये 50 पैसे मिलते थे. मैंने वहां छह साल काम किया. छह साल में चार साल तो हम वहां भूखे थे, लेकिन सबसे ज्यादा बेहतर जो मेरी जिंदगी थी. वो वाली थी. वहां बहुत सीखने को मिला था. फिल्मों की वजह से जब थिएटर खत्म हुआ तो वही बचा था एकमात्र. वो भी खत्म होने के कगार पर था. अनु कपूर के पिता की नाटक मंडली थी. अनु तो उस वक्त बहुत छोटा था. वहां के जो एक्टर थे कमाल के थे. उनके जैसा पूरी इंडस्ट्री में मुझे एक नजर नहीं आता है. ऐसे महान कलाकारों के सोहबत में रहा हूं. वे बहुत विन्रम भी थे.ना सीखने में डरते थे ना सीखाने में. जिस अकीदत और कूवत के साथ वो वहां रहते थे.वो अभिनय के लिए उनका जुनून था.
कोई खास किरदार जो निभाने की ख्वाइश है?
पेंटर विंसेंट हुए हैं उनका किरदार किरदार करना चाहता हूं. हालांकि मैंने उस तरह का किरदार किया है. बैरी जॉन का एक प्ले था. जो मेरी ज़िंदगी का सबसे अहम था. प्ले का नाम द फूल था. उसने मेरे सोचने का नजरिया बदल दिया था.