नेशनल अवार्ड विनिंग बाल फिल्म सुमी के लेखक हैं बिहार के चंपारण के संजीव झा, बताया इसे अपने बचपन की कहानी
मराठी फ़िल्म सुमी को 68 वें राष्टीय फ़िल्म पुरस्कार में सर्वश्रेष्ठ बाल फ़िल्म का पुरस्कार मिला है. नेशनल अवार्ड जीतने पर संजीव के झा ने कहा कि नेशनल अवार्ड जीतना बहुत खास होने के साथ-साथ बहुत प्रोत्सहित करने वाला भी होता है.
68 वें राष्टीय फ़िल्म पुरस्कार में मराठी फ़िल्म सुमी को सर्वश्रेष्ठ बाल फ़िल्म का पुरस्कार मिला है. इस फ़िल्म के लेखक बिहार के संजीव के झा हैं. संजीव लेखक के तौर जबरिया जोड़ी और बारोट हाउस जैसी फिल्में लिख चुके हैं. संजीव बताते हैं कि सुमी उनके द्वारा लिखी गयी पहली कहानी थी. उर्मिला कोरी से हुई बातचीत के प्रमुख अंश
आपकी लिखी फ़िल्म को नेशनल अवार्ड मिला है,यह अनुभव कितना खास है?
नेशनल अवार्ड जीतना बहुत खास होने के साथ-साथ बहुत प्रोत्सहित करने वाला भी होता है. कोविड की वजह से थोड़ा मोटिवेशन लो हुआ था. वो अब बढ़ गया है.
आप बिहार से हैं, सुमी मराठी फिल्म है,इससे किस तरह से जुड़ना हुआ?
सिनेमा को किसी भाषा में कैद नहीं कर सकते हैं. उसके लिए बस ज़रूरी एक कहानी होती है,जो हर भाषा के लोगों को खुद से जोड़ सके. हमारी कहानी भी वही थी. हमारी फ़िल्म की भाषा मराठी है,लेकिन वह नेशनल फ़िल्म है. सुमी एक ऐसी लड़की की कहानी है. जिसे सायकल चाहिए,क्योंकि वो आगे पढ़ना चाहती है. यह भारत के हर गांव की बेटी की कहानी है. इस कहानी के रिसर्च के लिए मैं डाटा भी खंगाला था. खरतनाक था वो,लड़कियों की भारी तादाद थी ,जो स्कूल से आगे पढ़ाई नहीं कर पायी. बेटी पढ़ाओ..बेटी बचाओ का कॉन्सेप्ट बहुत ज़रूरी है.
कहानी का आईडिया कहां से आया था?
यह मेरी बचपन की कहानी है. मैं सुर्पनियां गांव से हूं,जो ढाका ब्लॉक में पड़ता है. वो जो एरिया है हमारा. वही आसपास गांधी का आश्रम है. जहां से आश्रम एजुकेशन का कांसेप्ट शुरू हुआ था. 2002 में मैं देखता था कि लड़कियों को सायकल चलाकर पढ़ने जाना पड़ता है,लेकिन वह संख्या बहुत कम थी,अगर हम 20 लड़के सायकल पर हैं,उसके मुकाबले सिर्फ एक लड़की होती थी. उस समय ही मन में ये सवाल आता था कि हम 20 लड़कों का झुंड हैं औऱ लड़की एक या दो बस ,ऐसा क्यों है. मैंने जानने की कोशिश की तो अपने उन्ही अनुभवों के साथ मैंने यह फ़िल्म लिख दी. अभी भी बहुत कुछ बदला नहीं है.
निर्देशक अमोल किस तरह से आपकी कहानी का हिस्सा बनें?
मैं दिए गए आइडियाज पर काम नहीं करता हूं. मैं अपनी कहानियां खुद लिखता हूं. कहानी पूरी होने के बाद मैं निर्देशकों से संपर्क करता हूं. जो आसान नहीं होता है. यह वही मामले की तरह है, जैसे आप अपनी बेटी के लिए उसका जीवनसाथी ढूंढते हैं. वैसे सुमी के लिए ज़्यादा मुश्किल नहीं हुई, क्योंकि निर्देशक अमोल अच्छे दोस्तों में रहे हैं. उनकी एक और फ़िल्म ने भी नेशनल अवार्ड जीता है. अमोल ने ही स्टेनली का डिब्बा शूट किया था. वो हैंडी कैम में शूटिंग करने का मास्टर रहा है. बच्चों को भी वह एकदम सहज बना देता है. मुझे लगा सुमी के लिए वह बेस्ट रहेगा. मैंने उसे फ़िल्म की कहानी सुनायी. उसे पसंद आयी.
चंपारण से फिल्मों का लेखक बनने की आपकी जर्नी कैसी रही है?
जर्नी इतनी सी है कि चंपारण से निकलकर मैं जामिया यूनिवर्सिटी पहुंचा. वहां लिट्रेचर पढ़ रहा था. ये बहुत ही अच्छा संयोग है कि जब मुझे गोल्ड मेडल जामिया में मिला था तो उसे राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल जी ने दिया था और इस बार जब सुमी के लिए दिया जाएगा तो वो द्रौपदी मुर्मू जी हाथों मिलेगा. जामिया में पढ़ाई पूरी करने के बाद 2012 में मुम्बई आ गया था. मैंने विकास गुप्ता के प्रोडक्शन के लिए प्यार तूने क्या किया,कोड रेड जैसे प्रोजेक्ट लिखे. उसके बाद मैंने अपनी फिल्में लिखनी शुरू की.
सुमी,जबरिया जोड़ी दोनों ही कहानियां बिहार से प्रेरित रही हैं,क्या आगे भी ऐसी कहानियों को महत्व देंगे?
मैं हर तरह की कहानी को कहना चाहता हूं,लेकिन हां दुनिया देखी हुई होनी जरूरी है. आप सच में थोड़ा झूठ मिला सकते हैं,लेकिन पूरे झूठ में थोड़ा सच नहीं. एक बायोपिक पर काम कर रहा हूं. वेब सीरीज के फॉरमेट पर. क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ बिहार के सचिव आदित्य वर्मा पर. अगर उनकी जर्नी को देखेंगे तो 18 से 20 साल उन्होंने बीसीसीआई से बिहार क्रिकेट को मान्यता दिलाने के लिए लंबी लड़ाई लड़ी है. जो आसान नहीं रही है.