फ़िल्म -सरदार उधम
निर्देशक-शूजित सरकार
कलाकार- विक्की कौशल,अमोल पराशर, बनिता संधू,
स्टीफन होगन, कस्त्री एवर्टन, शॉन स्कॉट और अन्य
प्लेटफार्म- अमेज़न प्राइम वीडियो
रेटिंग- साढ़े तीन
इतिहास की कुछ तारीखें कभी नहीं भूली जा सकती हैं. 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में जनरल और गवर्नर डायर के इशारे पर हज़ारों मासूमों पर अंधाधुन गोलियां बरसायी गयी थी. यह नरसंहार भारतीय स्वन्त्रता संघर्ष के इतिहास का एक काला अध्याय है. महान क्रांतिकारी उधम सिंह ने लंदन जाकर गवर्नर माइकल ओ डायर के सीने में छह गोलियां मार इस नरसंहार का बदला लिया था. इस बदले को पूरा करने के लिए उन्हें 21 साल का इंतज़ार करना पड़ा था.
शूजित सरकार निर्देशित फिल्म सरदार उधम बदले की इसी 21 साल की जर्नी को दिखाता है. दो घंटे चालीस मिनट की इस फ़िल्म को देखने के बाद यह बात महसूस होती है कि यह सिर्फ बदले की कहानी नहीं है. यह क्रांति की कहानी है. यह हमें क्रांतिकारी नायक उधम सिंह को करीब से जानने का मौका देती है. यह फ़िल्म दिखाती है कि उधम सिंह गवर्नर माइकल ओ डायर सिर्फ मारना नहीं चाहते थे. डायर के घर काम करते हुए ऐसे कई मौके आए थे जब वे उसे आसानी से मार सकते थे लेकिन उनका मकसद डायर की हत्या करना भर ही नहीं था बल्कि भारतीय क्रांति की आवाज़ को पूरी दुनिया को सुनाना था, ताकि भारत में अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ अंतर्राष्टीय दबाव बनाया जा सकें.
गुलाम भारत के एक युवा की बेचैनी को भी यह फ़िल्म दिखाती है, जो विदेशी जमीं पर भी अपनी गुलामी के दर्द को महसूस करता है. क्रस्टी से जब विक्की कौशल का किरदार कहता है कि तुम शांतिपूर्ण तरीके से मार्च कर अपना विरोध जता सकती हो. क्योंकि तुम एक बराबर हो हम नहीं है इसलिए हमें अलग रास्ता अख्तियार करना होगा.
फ़िल्म अपने सब प्लॉट्स के ज़रिए उधम सिंह की ज़िंदगी में प्यार और भगत सिंह की अहम मौजूदगी को दर्शाती है तो जलियांवाला बाग नरसंहार का साक्षी भी बनाती है. कहानी के सब प्लॉट्स आयरलैंड स्वन्त्रता,द्वितीय विश्वयुद्ध जैसे वैश्विक उथल पुथल को भी समेटे है. फ़िल्म अतीत और वर्तमान में चलती रहती है, लेकिन जिस परिपक्वता के साथ इसे दिखाया गया है. यह बाधा नहीं बनता है.
यह बॉलीवुड वाली मसाला बायोपिक नहीं है बल्कि ऐतिहासिक दस्तावेज है. आमतौर पर ऐसी कहानियों में बॉलीवुड में ओवर द टॉप होने की परम्परा रही है, लेकिन शूजित ने वो रास्ता अख्तियार नहीं किया है. वो जिस खामोशी के साथ क्रांतिकारी उधम सिंह की सशक्त कहानी को बयां कर गए हैं। वह खास है.
फ़िल्म शोर शराबा नहीं करती है लेकिन आपके दिल को झकझोरने का पूरा माद्दा भी रखती है. लेखन टीम की तारीफ करनी होगी जनरल डायर के किरदार को उन्होंने बॉलीवुड का टिपिकल अंग्रेज खलनायक नहीं बनाया है लेकिन उस किरदार से आपको घृणा होती है. गुस्सा आता है जब वह जालियांवाला बाग नरसंहार को जस्टिफाय करता है. जब वह कहता है कि अफ्रीका और भारत जैसे देशों में गोरों को राज करना जन्मसिद्ध अधिकार है. जालियांवाला बाग नरसंहार को जिस भावनात्मक तरीके से चित्रित किया है. वह रोंगटे खड़े कर जाता है. सिनेमा का माध्यम कितना प्रभावी है यह दृश्य इस बात का गवाह है.
अभिनय की बात करें तो यह फ़िल्म एक एक्टर के तौर पर विक्की कौशल को एक पायदान ऊपर ले जाती है. विक्की कौशल ने अपने इस किरदार के लिए उम्र के कई पड़ावों को पूरी शिद्दत के साथ जिया है. चीख पुकार और भारी भरकम डायलॉग के बिना उन्होंने अपने किरदार को इस कदर प्रभावी बना दिया है कि फ़िल्म देखते हुए आपकी नज़रें उनसे नहीं हटती है. सीमित स्क्रीन स्पेस के बावजूद अमोल पराशर भगत सिंह के किरदार में अपने संवाद से अलग रंग भरते हैं तो बिनीता संधू की भी खामोशी याद रह जाती है।ब्रिटिश एक्टर्स शॉन स्कॉट, स्टीफन होगन, कस्त्री एवर्टन सहित सभी उम्दा रहे हैं.
फ़िल्म की तकनीकी पक्ष पर बात करें तो सिनेमेटोग्राफी शानदार है. जिस तरह से फ़िल्म में 1919 से 1940 के दौर को सेट्स, लोकेशंस,कॉस्ट्यूम के ज़रिए बारीकी से उकेरा गया है. वो अंतराष्ट्रीय फिल्मों की याद दिलाता है. पंजाब,रूस से लेकर लंदन तक के दृश्यों को कैमरे में बेहतरीन ढंग से कैद किया गया है. फ़िल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक कहानी और संवाद के साथ न्याय किया गया है. फ़िल्म की लंबाई फ़िल्म देखते हुए थोड़ी अखर सकती है लेकिन यह भारत के उस महान क्रांतिकारी की कहानी को बयां करती है. जिसके 21 सालों के संघर्ष से भारत की आधी से अधिक आबादी अनजान है. कुछ फिल्में अच्छी और बुरी से परे ज़रूरी होती है. सरदार उधम उसी फेहरिस्त में आती है.
Posted By Ashish Lata