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Sherni Movie Review : फीकी है इस शेरनी की दहाड़

Sherni Movie Review : न्यूटन फ़िल्म के बाद निर्देशक अमित मसुरकर एक और रीयलिस्टिक फ़िल्म लेकर आए हैं. यह फ़िल्म इंसान और जंगल के रिश्ते को दिखाती है. यह फ़िल्म इस बात पर जोर देती है कि जंगल रहेंगे तो इंसान का भी रहेगा.

By कोरी | June 18, 2021 3:16 PM

Sherni Movie Review

फ़िल्म – शेरनी

निर्देशक – अमित मसुरकर

प्लेटफार्म – अमेज़न प्राइम वीडियो

कलाकार – विद्या बालन, नीरज कबी,बिजेंद्र कालरा, शरत सक्सेना,इला अरुण और अन्य

रेटिंग – दो

न्यूटन फ़िल्म के बाद निर्देशक अमित मसुरकर एक और रीयलिस्टिक फ़िल्म लेकर आए हैं. यह फ़िल्म इंसान और जंगल के रिश्ते को दिखाती है. यह फ़िल्म इस बात पर जोर देती है कि जंगल रहेंगे तो इंसान का भी रहेगा. विकास के साथ पर्यावरण में संतुलन ज़रूरी है. मौजूदा दौर में फ़िल्म की यह सीख और भी खास हो जाती है. फ़िल्म की सीख खास है लेकिन परदे पर वह सशक्त ढंग से परिभाषित नहीं हो पायी है.

फ़िल्म के ट्रीटमेंट और कहानी में रोमांच और ड्रामा की कमी है. जिस वजह से उम्दा कलाकारों की मौजूदगी होने के बावजूद यह फ़िल्म फीकी फीकी सी लगती है. रीयलिस्टिक रखने के लिए फिल्ममेकर ने फ़िल्म से रोमांच और ड्रामा दूर रखा है. यह बात बचकानी सी लगती है फिर बेहतर होगा कि आदमी डॉक्युमेंट्री फ़िल्म ही देख लें. वन विभाग कैसे काम करता है. इंसान और जानवर के संघर्ष पर कई उम्दा शोज और डॉक्यूमेंट्रीज मौजूद है.

यह कहानी विद्या विंसेंट (विद्या बालन)की है जो वन विभाग की प्रमुख है. फ़िल्म में एक बाघिन(फ़िल्म में बाघिन को शेरनी क्यों कहा जा रहा है ये समझ नहीं आता) है जो आदमखोर हो गयी है. वो जानवरों को ही नहीं बल्कि इंसानों को भी अपना शिकार बना रही है. विद्या उसे सही सलामत नेशनल पार्क के जंगलों में पहुंचाना चाहती है लेकिन यह इतना आसान नहीं है राजनेता से लेकर वन के अधिकारी तक सभी उसका शिकार करना चाहते हैं. वन विभाग अपनी जिम्मेदारियों से बच रहा है. वह राजनेताओं को खुश करने में लगा हुआ है.

बाघिन को मारना उसको एकमात्र हल दिख रहा है. लोकल राजनेता जंगल और बाघिन को मुद्दा बनाकर चुनावी रोटियां सेंकना चाहते हैं. यह बाघिन के साथ साथ विद्या के अस्तित्व की भी लड़ाई की कहानी है. पुरुषों के लिए समझने जाने वाले काम को एक महिला के करने का संघर्ष है. क्या वह इस संघर्ष में कामयाब होगी यही फ़िल्म की कहानी आगे की कहानी है.

फ़िल्म का विषय जितना नेक है. परदे पर वह उस प्रभावी ढंग से नहीं आ पाया है. इंसान और जानवर के संघर्ष पर फ़िल्म है लेकिन कोई भी दृश्य ऐसा नहीं बन पाया है जो आपके रोंगटे खड़े कर दे या बाघिन से आपको इमोशनली जोड़ दे. बस फ़िल्म एक शिक्षाप्रद डॉक्युमेंट्री की तरह धीमे धीमे चलती रहती है.

फ़िल्म की गति धीमी है. 20 से 25 मिनट फ़िल्म के कम किए जा सकते थे. विद्या बाघिन के बच्चों को किस तरह से नेशनल पार्क पहुंचाती है. फ़िल्म में वह दृश्य भी दिखाया जाना था. विद्या क्यों नहीं पिंटू के किरदार को सजा दिलवाने की कोशिश करती है. यह सब ना दिखाना अखरता है जब फ़िल्म काशीर्षक शेरनी हो.

दूसरे पहलुओं की बात करें तो फ़िल्म की सिनेमेटोग्राफी और संगीत विषय के अनुरूप है. फ़िल्म के संवाद अच्छे बन पड़े है. फ़िल्म के एक दृश्य में कहा गया है कि क्या विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन ज़रूरी है. विकास के साथ जाओ तो पर्यावरण को बचाने जाओ तो विकास बेचारा उदास हो जाता है. औरतों के लिए बहुत रिस्पेक्ट है… इतने अहम मामले को कैसे एक औरत को संभालने के लिए दे दिया गया है.

अभिनय की बात करें तो विद्या बालन लीग से हटकर अभिनय का नाम है. इस फ़िल्म से उन्होंने अलग करने की फिर से कोशिश की है लेकिन उनका किरदार बहुत कमजोर तरीके से लिखा गया है. जिस वजह से उनका किरदार उस तरह का प्रभाव कहानी में नहीं छोड़ पाता है जैसा कि उनसे उम्मीद की गयी थी.

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ब्रिजेन्द्र कालरा अपने अभिनय से फ़िल्म के माहौल को ना सिर्फ हल्का करते हैं बल्कि एंटरटेनिंग भी बनाते हैं. नीरज काबी, मुकुल चड्ढा,इला अरुण को बहुत कम स्क्रीन टाइम मिला है लेकिन वे अपने किरदारों के साथ न्याय करते हैं. फ़िल्म के दूसरे सह कलाकारों खासकर ग्रामीण लोगों का किरदार फ़िल्म को वास्तविकता के और करीब ले जाता है.

कुलमिलाकर फ़िल्म का शीर्षक भले ही शेरनी है लेकिन फ़िल्म के किरदारों और कहानी में वह मजबूती नहीं है. जिससे इस शेरनी (बाघिन )की दहाड़ फीकी है.

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