Swatantra Veer Savarkar Review: स्वातंत्र्य वीर सावरकर… एक और महिमामंडन करती बायोपिक फिल्म
Swatantra Veer Savarkar Review: रणदीप हुड्डा और अंकिता लोखंडे स्टारर फिल्म स्वातंत्र्य वीर सावरकर आज सिनेमाघरों में रिलीज हुई. फिल्म वैचारिक मतभेदता को गरिमापूर्ण तरीके से दिखाने से चूकती है. आइये पढ़ते हैं इसका रिव्यू....
फ़िल्म – स्वातंत्र्य वीर सावरकर
निर्माता- रणदीप हुड्डा, आनंद पंडित
निर्देशक- रणदीप हुड्डा
कलाकार- रणदीप हुडा, अंकिता लोखंडे, अमित सियाल, अंजलि , जय पटेल, राजेश खेड़ा, संतोष ओझा, रसेल जेफ्री बैंक्स और अन्य प्लेटफार्म- सिनेमाघर
रेटिंग- ढाई
Swatantra Veer Savarkar Review: विनायक दामोदर सावरकर इतिहास के सबसे विवादित नामों में से एक है. उनके नाम पर अंग्रेजों से माफी मांगने वाली घटनाक्रम का ही हमेशा से जिक्र होता आया है, लेकिन रणदीप हुड्डा की फिल्म स्वातंत्र्य वीर सावरकर, वीर सावरकर की जिंदगी के उन पन्नों को सामने लेकर आती है. जिसमें उनके विचार क्या थे. आजादी की लड़ाई में उनका योगदान क्या था. उन्होंने कितनी यातनाएं और कष्ट झेले थे. अंग्रेजों से माफी मांगने के पीछे उनकी सोच क्या थी. इन पहलुओं को यह फिल्म बखूबी सामने लेकर आती है, लेकिन एक के महत्व को बताने में दूसरों को नीचा दिखाने की भी कोशिश करती है. फिल्म में महात्मा गांधी को एक खलनायक के तौर पर दर्शाया गया है तो पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू पर भी जमकर तंज कसे गए हैं. वैचारिक मतभेदता को गरिमापूर्ण तरीके से दिखाने यह फ़िल्म चूकती है. इसके साथ ही सिनेमाई कसौटी पर भी यह फिल्म कई मौकों पर खरी नहीं उतर पायी है. जिस वजह से एक उम्दा बायोपिक के सभी गुण मौजूद होने के बावजूद फ़िल्म एक औसत बायोपिक फिल्म बनकर रह गयी है.
सावरकर के महिमामंडन की है कहानी
स्वातंत्र्य वीर सावरकर फिल्म के शुरुआत ही एक के बाद एक कई अलग-अलग घटनाओं के मेल से शुरू होती है. प्लेग महामारी, चाफेकर बंधुओं की फांसी की सजा, भगत सिंह से एक अंग्रेज के बातचीत का दृश्य यह सब कन्फ्यूजन को बढ़ाते है हालांकि उसके बाद मूल कहानी शुरू हो जाती है विनायक दामोदर सावरकर की कहानी. उनका बचपन, फ़र्ग्युसन कॉलेज में उनकी पढ़ाई और मतभेद, बाल गंगाधर तिलक से जुड़ना और अभिनव भारत जैसे क्रांतिकारी संगठन का निर्माण कर अंग्रेजों के खिलाफ मुहिम शुरू करना, अंग्रेजों के क़ानून से उनको ही मात देने के लिए इंग्लैंड में वकालत की पढ़ाई के लिए जाना और फिर वहां मदन लाल ढिंगरा,लेडी कामा और श्याम वर्मा जी जैसे क्रांतिकारियों के साथ मिलकर इंग्लैंड के साथ-साथ भारत में भी क्रांति की आग को बढ़ावा देना. जिसके बाद अंग्रेज़ी हुकूमत मनमाने ढंग से उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाती है और उन्हें कालापानी भेज दिया जाता है. कई यातनाओं को झेलने के बाद वह आख़िरकार रिहा होते हैं. जेल से रिहा होने के बाद वह अमरावतीमें रहते हुए किस तरह से सामाजिक कार्यों से जुड़ते हैं. उसके बाद देश की आज़ादी और बाद की महत्वपूर्ण घटनाओं से वह किस तरह से जुड़ते हैं. यही सारे घटनाक्रमों को लगभग तीन घंटे की इस कहानी में समेटा गया है.
फिल्म की खूबियां और खामियां
हिंदी सिनेमा में बायोपिक का मतलब शख्सियत को भगवान बनाना है. इसकी अगली कड़ी यह फिल्म भी बनती है. फिल्म की कहानी में आजादी के सभी अहम नायकों भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस, खुदीराम बोस, कान्हों जी अगरे को आजादी की लड़ाई से जुड़ने में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सावरकर को ही श्रेय दे दिया गया है. फिल्म का यह नरेटिव अखरता है. इसके साथ ही अहिंसा से आजादी हमको देर से मिली है. हिंसा में विश्वास करने वाले सावरकर हिंसा की नीति से देश को आजादी कई दशक पहले ही करवा देते थे. फिल्म इसका जिक्र हर समय करती है, लेकिन उससे जुड़ा ब्लू प्रिंट कहानी में नदारद है. सावरकर की सोच कई बार विरोधाभासी भी लगती है. एक बार वह कहते हैं कि मैं गांधी से नहीं बल्कि उसके अहिंसा की सोच से नफरत करता हूं, लेकिन पूरी फिल्म में अलग-अलग संवादों के जरिये गांधीजी का मजाक बनाया गया है. वो गांधी इतना बड़ा आदमी बन गया है. अच्छे पहलुओं की बात करें तो वीर सावरकर आज़ादी के लिए जिन संघर्षों से जूझे थे. वो सभी को जाननी चाहिए. यह फिल्म वह बखूबी दिखाती भी है. कालापानी की सजा वाला दृश्य रोंगटे खड़े कर देता है. कांग्रेस के किसी नेता को कालापानी की सजा क्यों नहीं हुई थी. यह फिल्म इस बात को भी सामने लाती है. इसके साथ ही हिंदुत्व की जो आम परिभाषा इन दिनों सामने आती रहती है. उससे अलग सावरकर की परिभाषा थी, जो हिंदुत्व शब्द के सही मायने बता गयी है. सिनेमाई पहलुओं की बात करें तो फ़िल्म का पहला भाग स्लो है. दूसरे भाग में कहानी रफ्तार पकड़ती है. फिल्म की एडिटिंग की जरूरत थी, तीन घंटे का समय कहानी के प्रभाव को कम कर गया है. इसके अलावा फ़िल्म की स्क्रीन पर हर घटनाक्रम से जुड़ी बातों को अंग्रेज़ी भाषा में लिखा गया है. जिससे कई दर्शकों को परेशानी हो सकती है. . फिल्म की सिनेमाटोग्राफी की तारीफ करनी होगी, हर दशक के साथ फिल्म का लुक न्याय करता है. गीत संगीत कहानी के अनुरूप है. बैकग्राउंड म्यूजिक जरूर अच्छा बन पड़ा है. आखिर में यह एक प्रॉपगेंडा फ़िल्म नहीं है. इससे इनकार नहीं किया जा सकता है. माउंटबेटेंन की पत्नी के साथ भारत के पूर्व प्रधानमंत्री की जो तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल है .उन्हीं दृश्यों को फ़िल्म में तरजीह दी गयी है. महात्मा गांधी की भी वैसी तस्वीरों का इस्तेमाल हुआ है.
रणदीप हुड्डा का क़ाबिले तारीफ़
अभिनय की बात करें तो यह रणदीप हुड्डा फिल्म है. किरदारों में रच बस जाने में उन्हें महारत हासिल है और इस फिल्म में भी वह अपनी इस काबिलियत का बखूबी प्रदर्शन करते हैं. किरदार के उम्र और हालात के अनुसार उनका बॉडी ट्रांसफॉर्मेशन काबिले तारीफ है. अमित सियाल भी वीर सावरकर के भाई की भूमिका में छाप छोड़ जाते हैं. रणदीप और अमित सियाल के अलावा कालपानी जेल का जेलर और मुस्लिम कर्मचारी अपनी दमदार खलनायकी की वजह से याद रह जाते हैं. अंकिता लोखंडे सहित बाकी के किरदारों को फ़िल्म में करने को कुछ खास नहीं था.
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