Tandav Review : कहानी में नयापन नहीं लेकिन एंटरटेनिंग है, यहां पढ़ें रिव्यू
tandav review saif ali khan dimple kapadia sunil grover tigmanshu dhulia gauahar khan tandav release on amazon prime video bud : टाइगर जिंदा है, सुल्तान और भारत जैसी फिल्मों से निर्देशक अली अब्बास जफर ने रुपहले परदे पर स्टोरीटेलर के तौर पर अपनी काबिलियत को साबित किया है. ओटीटी प्लेटफार्म और वेब सीरीज के माध्यम में तांडव उनकी शुरुआत है.
Tandav Review
सीरीज- तांडव
प्लेटफार्म- अमेज़न प्राइम वीडियो
निर्देशक- अली अब्बास जफर
लेखक-गौरव सोलंकी
कलाकार- सैफ अली खान, डिंपल कपाड़िया, जीशान अयूब, तिग्मांशु धूलिया, कुमुद मिश्रा, गौहर खान, कृतिका कामरा, अनूप सोनी, संध्या मृदुल और अन्य
रेटिंग- ढाई
टाइगर जिंदा है, सुल्तान और भारत जैसी फिल्मों से निर्देशक अली अब्बास जफर ने रुपहले परदे पर स्टोरीटेलर के तौर पर अपनी काबिलियत को साबित किया है. ओटीटी प्लेटफार्म और वेब सीरीज के माध्यम में तांडव उनकी शुरुआत है.उन्होंने इस बार पॉलिटिकल थ्रिलर के जॉनर को अपनी कहानी के लिए चुना है. इस जॉनर की दिक्कत ये है कि जो दर्शक है यानी आम आदमी उसने इससे ज़्यादा गंदी राजनीति देखी,सुनी और झेली है. ऐसे में दर्शकों को कुछ नया देना महत्वपूर्ण है लेकिन यह सीरीज कुछ भी नया परोस नहीं पायी है.कहानी कमज़ोर रह गयी है अपने शीर्षक के साथ न्याय नहीं कर पायी है.हाँ स्टारकास्ट ने अपने अभिनय से इस सीरीज को एंटरटेनिंग ज़रूर बनाया है.
यह सीरीज दिल्ली के सियासत के आसपास घूमती है. दो बार से लगातार प्रधानमंत्री रहे देवकी नंदन( तिग्मांशु धूलिया) तीसरी बार भी प्रधानमंत्री बनने वाले हैं.चुनाव के नतीजे कुछ घंटों में आने वाले हैं लेकिन सत्ता का लालच देवकी नंदन के बेटे समर प्रताप (सैफ अली खान) को अपने पिता की हत्या करने को मजबूर कर देता है लेकिन समर फिर भी पीएम नहीं बन पाता है बल्कि अनुराधा किशोर(डिंपल कपाड़िया) के हाथों सत्ता की बाज़ी लग जाती है.
क्या वजह थी जो अनुराधा किशोर के हाथों सत्ता की बागडोर चली गयी है. क्या समर आसानी से हार मान लेगा या उसके पास कोई प्लान है. दिल्ली के सत्ता के साथ साथ इस कथानक में जेएनयू भी है जिसका नाम वेएन्यु कर दिया गया है. छात्र राजनीति की भी कहानी समानांतर चलती रहती है. नौ एपिसोड की यह सीरीज राजनीति के इन्ही दोनों ध्रुवों पर संतुलन बनाने की कोशिश करती है.
कहानी का पहला एपिसोड उम्मीद जगाता है लेकिन फिर कहानी आगे के 5 एपिसोड में बढ़ती जान नहीं पड़ती है. यही सबसे बड़ी दिक्कत इस सीरीज की है. पांचवें एपिसोड के बाद रफ्तार पकड़ती है लेकिन परदे पर कुछ भी प्रभावी तौर पर सामने नहीं आ पाता है. कहानी में दमदार ट्विस्ट का जबरदस्त अभाव है.हां मामला बोझिल वाला भी नहीं हुआ है.
कहानी कुछ सवालों के जवाब नहीं दे पायी है.अगले सीजन के लिए उन्हें रखा गया है. सीरीज की कहानी में कैंपस पॉलिटिक्स में पक्ष विपक्ष को दिखाया गया है लेकिन दिल्ली की राजनीति में कोई विपक्ष को तवज्जो नहीं दी गयी है शायद मौजूदा जो हालात राजनीति के हैं मेकर्स के लिए वही प्रेरणा बनें होंगे खैर ये बात सीरीज देखते हुए जेहन में आती है कि विपक्ष कहाँ है.
देश के प्रधानमंत्री की मौत कोई जांच कोई पूछताछ नहीं. सिनेमेटिक लिबर्टी का इस्तेमाल गौहर खान का एक करोड़ रुपये पहुंचाने वाले दृश्य में भी किया गया. दिल्ली का वीआईपी इलाका और गौहर खान का किरदार आराम से कचरे के डिब्बे में बैग को रख रहा है. सीरीज में मुस्लिम नागरिकों का सत्ता के द्वारा टारगेट करने की बात हो, दलित के आरक्षण से लेकर किसान आंदोलन और राजनेता और पूंजीपतियों की सांठगांठ की बात भी रखती है.
अभिनय की बात करें तो फिल्मों और टीवी के नामचीन चेहरों की एक लंबी फेहरिस्त इस सीरीज में नज़र आ रही हैं। सैफ अली खान ने रॉयल अंदाज़ में अपने किरदार को जिया है तो डिंपल कपाड़िया ने अपने अभिनय से अपनी भूमिका को विश्वसनीय बना दिया है लेकिन नौ एपिसोड वाली इस सीरीज में सुनील ग्रोवर ने गुरपाल के किरदार में दमदार छाप छोड़ी है. अपने चित परिचित इमेज से वह बिल्कुल अलग नज़र आए हैं. जीशान अय्यूब भी एक बार फिर उम्दा तरीके से अपनी भूमिका को निभा गए हैं. बाकी के सभी किरदारों ने भी अपने किरदार से कमज़ोर कथानक को मजबूती दी है फिर चाहे वह कुमुद मिश्रा हो तिग्मांशु धूलिया हो या फिर पुलिसिया किरदार में नज़र आए राजीव गुप्ता दूसरे पक्षों की बात करें तो संवाद दमदार हैं। जो किरदारों को प्रभावी बना जाते हैं.
सिनेमेटोग्राफी भी उम्दा है. दिल्ली के गलियारों से यूनिवर्सिटी के कैम्पस तक परदे पर बखूबी उतारा गया है. गीत संगीत की बात करें तो युवा का गीत धक्का लगा बुक्का का इस्तेमाल किया गया है. जो कैम्पस पॉलिटिक्स के साथ बखूबी मेल खाता है.
Posted By : Budhmani Minj