Tapan Sinha Birth Anniversary: भविष्य की कहानी कहने वाले तपन दा, मां से पैसे उधार लेकर बनायी पहली फिल्म

Tapan Sinha Birth Anniversary: तपन सिन्हा बांग्ला फिल्मों के उन चुनिंदा निर्देशकों में से एक थे, जिन्होंने फिल्म जगत की दिशा बदल दी. आज उनकी जन्मशती है. तपन दा ने रोमांटिक फिल्मों की बेड़ियों को तोड़ते हुए बेहतरीन गीत-काव्यों वाली बांग्ला फिल्में बनायीं. उनकी सहज कलात्मक दृष्टि ने ही उनकी फिल्मों को सिनेमाई उत्कृष्टता के शिखर तक पहुंचाया.

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 2, 2024 11:51 AM

Tapan Sinha Birth Anniversary: महान निर्देशक, फिल्मकार तपन सिन्हा की आज जन्मशती है. आज ही के दिन वर्ष 1924 में तपन सिन्हा का जन्म कोलकाता में एक जमींदार परिवार में हुआ था. बांग्ला फिल्म की दुनिया में जो सम्मान सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक और मृणाल सेन की तिकड़ी को प्राप्त है. वही सम्मान तपन सिन्हा को भी प्राप्त है. इनकी फिल्में आम भारतीय नागरिक और उनके संघर्ष की कहानी कहती हैं. तपन दा की फिल्में समय से आगे की कहानी कहती हैं.

भागलपुर में बीता बचपन

वैसे तो तपन सिन्हा का परिवार मूल रूप से बीरभूम जिला स्थित हिलोरा नामक जगह का रहने वाला था, लेकिन उनके जीवन का बड़ा हिस्सा भागलपुर और कोलकाता में बीता. उनके पिता त्रिदिबचंद्र सिन्हा एक जमींदार थे और माता प्रमिला सिन्हा एक गृहणी थीं. तपन सिन्हा के पिता की ज्यादातर जमींदारी संताल परगना में थी. प्राथमिक शिक्षा के लिए तपन दा को भागलपुर के दुर्गाचरण एमइ स्कूल में पांचवीं कक्षा में भर्ती कराया गया. बाद में यह माध्यमिक विद्यालय बन गया. मैट्रिक तक की पढ़ाई तपन दा ने वहीं से की. उस समय उनके स्कूल के प्रिंसिपल सुरेंद्रनाथ गंगोपाध्याय थे, जो शरतचंद्र चटोपाध्याय के मामा थे.

स्कूल में टैगोर की रचनाओं से जुड़ाव

फिल्मों के प्रति तपन दा का रुझान स्कूल में पढ़ते हुए ही हो गया था. तपन दा के एक संस्मरण का जिक्र मिलता है, जिसमें वह बताते हैं कि उनके ज्यामिति विषय के शिक्षक बीमार होने के कारण स्कूल नहीं आ सके थे, तो प्रिंसिपल सुरेंद्रनाथ गंगोपाध्याय ने ही उनकी क्लास ली. वे रवींद्रनाथ की ‘संचयिता’ की एक पुस्तक हाथ में लेकर कक्षा में दाखिल हुए. उन्होंने ज्यामिति की पुरातन भृत्य (बूढ़ा नौकर), दुई बीघा जमीं (दो बीघा जमीन) और कथा ओ कहानी (शब्द और किस्से) की लगभग सभी कहानियां पढ़ीं. उस दिन से गुरुदेव रवींद्रनाथ की रचनाओं से तपन दा का जुड़ाव बढ़ता गया. जब वे सातवीं कक्षा में पहुंचे, तो उन्होंने उर्वशी (दिव्य नर्तकी) और निर्झोरेर स्वप्नभंगा को लगभग रट लिया था. रवींद्रनाथ उनके जीवन के आदर्श बन गये थे.

छोटी उम्र में देखने लगे थे फिल्म

उस समय भागलपुर में एक सिनेमा हॉल था, जहां विदेशी फिल्में दिखायी जाती थीं. वहीं, तपन दा ने टार्जन, किंग कॉन्ग और कई अन्य एडवेंचर फिल्में देखीं. एक टिकट की कीमत तीन आना हुआ करती थी. हालांकि, उन्होंने अपनी पढ़ाई को कभी नजरअंदाज नहीं किया. उनके इतिहास के शिक्षक बहुत ज्ञानी व्यक्ति थे. फ्रांसीसी क्रांति के विषय पर व्याख्यान देते समय, उन्होंने चार्ल्स डिकेंस की ‘ए टेल ऑप टू सिटीज’ का एक जीवंत वर्णन किया. उन्होंने ही छात्रों से इस विषय पर स्थानीय सिनेमा हॉल में दिखायी जा रही फिल्म देखने का अनुरोध किया. इसके बाद, क्लासिक अंग्रेजी फिल्में देखना तपन दा के जीवन की सबसे जरूरी चीजों में से एक बन गया.

पिता के साथ की पहाड़ों की यात्रा

तपन दा के पिता ने उनको प्रकृति के करीब जाना सिखाया. पिता जब भी भागलपुर आते तो संताल परगना के पहाड़ों और जंगलों की यात्राओं में उनको साथ ले जाते. रात होने के बाद उनके पिता कालिदास के कुमारसंभव और मेघदूत का पाठ करते थे. वे सरल बांग्ला शब्दों में इसका सारांश समझाते थे. इन घटनाओं का तपन सिन्हा के जीवन पर गहरा प्रभाव रहा. इसके बाद वे खुद भी संताल परगना के घने जंगलों में कैंपिंग करने जाते थे, जहां शाम को वे कैम्प फायर की टिमटिमाती रोशनी में रवींद्र संगीत गाते.

पिता की वजह से पढ़ना पड़ा साइंस

वर्ष 1940 में जब उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की, तो इंटरमीडिएट के लिए विज्ञान विषय लिया. तपन दा की तीव्र इच्छा थी कि वे कला विषय लें, लेकिन उनके पिता ने इसकी अनुमति नहीं दी. इंटरमीडिएट के बाद वर्ष 1943 में उनका दाखिला जादवपुर इंजीनियरिंग कॉलेज में हुआ. भागलपुर में फिल्मों से जो उनका रिश्ता जुड़ा, वह कोलकाता में भी बरकरार रहा. जादवपुर विश्वविद्यालय में पढ़ते हुए लगभग हर रोज वे फिल्में देखा करते थे. उनको सिनेमा की लत लग गयी. एक ऐसी लत, जिसे वे अगले दस सालों में भी नहीं छोड़ पाये. उन्होंने पहले साल में ही इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़ दी और बीएससी की पढ़ाई की. 1945 में ग्रेजुएट होने के बाद उन्होंने अप्लाइड फिजिक्स में एमएससी की पढ़ाई की, लेकिन सिनेमा की दुनिया उन्हें अपनी ओर खींचती रही.

मां से पैसे उधार लेकर बनायी पहली फिल्म अंकुश

तपन सिन्हा के जीवन पर उनकी मां का गहरा प्रभाव रहा. वे रवींद्र संगीत का गायन करती थीं. उनकी वजह से तपन दा ने संगीत से प्यार करना सीखा. पिता के निधन के बाद मां हमेशा उनके साथी रहीं. वर्ष 1952 में यूरोप से लौटने के बाद तपन दा ने फिल्म बनाने की सोची. इसके लिए उनके पास पैसे नहीं थे. उन्होंने अपनी मां से कुछ पैसे उधार लिये. कुछ दोस्तों ने भी उनकी मदद की. अंकुश फिल्म की कहानी एक हाथी के बारे में है. नारायण गंगोपाध्याय की पुस्तक पर उन्होंने यह फिल्म बनायी थी. इस फिल्म को बनाने में कुल मिलाकर लगभग अस्सी हजार रुपये खर्च हुए थे. यह फिल्म सिनेमाघरों में तो ज्यादा दिन तक नहीं चल पायी, पर अखबारों में अच्छी समीक्षाएं मिलीं, जिसने तपन दा को उत्साहित किया.

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‘काबुलीवाला’ की सफलता ने बदल दिया सब कुछ

अंकुश के बाद उन्होंने उपहार नाम की एक फिल्म बनायी. यह एक कंजूस आदमी की कहानी थी. इस फिल्म में उत्तम कुमार, मंजू डे, निर्मल कुमार, साबित्री चटर्जी ने काम किया था. फिल्म ने ठीक-ठाक कमाई की. इसके बाद तपन दा ने कॉमेडी फिल्म में भी हाथ आजमाया, लेकिन गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की कहानी काबुलीवाला पर आधारित फिल्म काबुलीवाला ने उन्हें फिल्म जगत का एक सफल निर्देशक बना दिया. काबुलीवाला को वर्ष की सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए राष्ट्रपति के स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया. इसने बर्लिन फिल्म महोत्सव में सर्वश्रेष्ठ संगीत का पुरस्कार जीता. इस फिल्म की सफलता के बाद उन्हें कई फिल्में बनाने के प्रस्ताव आने लगे.

इनकी फिल्म पर ऋषि दा ने बनायी बावर्ची

वर्ष 1966 में आयी तपन सिन्हा द्वारा निर्देशित फिल्म ‘गोल्पो होलेओ सोत्यी’ की पटकथा के अधिकार खरीद कर ऋषिकेश मुखर्जी ने राजेश खन्ना अभिनीत बावर्ची (1972) फिल्म बनायी. यह फिल्म मध्यम वर्गीय परिवार के जीवन की दैनिक परेशानियों पर आधारित कहानी कहती है. इस फिल्म में एक गंभीर विषय को हास्यपूर्ण ढंग से कहानी में पेश किया गया है. गोल्पो होलेओ सोत्यी में मुख्य अभिनेता की भूमिका रवि घोष ने निभायी थी.

मैथिली और भोजपुरी में बनायी फिल्म ‘आदमी और औरत’

प्रफुल्ल राय की कहानी को लेकर तपन सिन्हा आदमी और औरत नाम की एक फिल्म बनायी. फिल्म की भाषा मिश्रित मैथिली/भोजपुरी है. ग्राम्य जीवन, जंगल व नदियों का बेहद वास्तविक चित्रण भी इसमें देखने को मिलता है. गांव की सुंदरता के साथ-साथ वहां का वंचित जीवन भी फिल्म में दिखाई पड़ता है. इस फिल्म को वर्ष 1985 में राष्ट्रीय एकता पर सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी दिया गया था. फिल्म में मुख्य भूमिका निभायी है अमोल पालेकर और महुआ राय चौधरी ने. दोनों ने कमाल का अभिनय किया है. बाढ़ से जूझते एक गांव में, बारिश भरे एक दिन में एक अजनबी आदमी और औरत, जिनके परस्पर जीवन अपने ही निजी संघर्षों से भरे हैं, अचानक मिल जाते हैं. इस दौरान सारे ऊपरी अलगाव और अनभिज्ञताओं को भूलकर एक-दूसरे का साथ निभाते हैं.

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