वेब सीरीज : फ्रीडम एट मिडनाइट
निर्माता :एमी एंटरटेनमेंट एंड स्टूडियो नेक्स्ट
निर्देशक:निखिल आडवाणी
कलाकार :सिद्धांत गुप्ता , चिराग वोहरा,आरिफ जकारिया, राजेंद्र चावला, इरा दुबे, राजेश कुमार, मलिश्का और अन्य
प्लेटफार्म :सोनी लिव
रेटिंग : तीन
freedom at midnight review :भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास को अब तक कई बार रुपहले परदे पर दिखाया जा चुका है. कभी अंग्रेजी हुकूमत के जुल्म के तौर पर ,कभी स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान की कहानी में ,तो कभी देश के बंटवारे की त्रासदी आम आदमी के नजरिये से,लेकिन इस बंटवारे की वजह क्या थी. धर्म के नाम पर यह बंटवारा क्यों हुआ था. हमारे नेता इस बंटवारे को क्यों नहीं रोक पाए थे. इन सभी सवालों का जवाब अब तक की फिल्मों और सीरीज से लगभग नदारद ही रहा है, लेकिन निखिल आडवाणी की पीरियड ड्रामा सीरीज फ्रीडम एट मिडनाईट उस उथल पुथल और भयावह से भरे अतीत को पावरफुल तरीके से जीवंत करती है,जिसमे देश के बंटवारे का फैसला लिया गया था. कुछ कमियों के बावजूद यह सीरीज अपनी स्टोरी टेलिंग और बेहतरीन विजुअल की वजह से आपको शुरू से अंत तक बांधे रखती है.
1946 से 1947 के उथल पुथल से भरे अतीत की है कहानी
सीरीज की कहानी की बात करें तो इसी शीर्षक वाली 1975 के बेस्टसेलर किताब पर आधारित है. जिसे निखिल आडवाणी और उनकी छह सदस्यों की लेखन टीम ने वेब सीरीज के फॉर्मेट में बदला है.सीरीज की शुरुआत 1946 से होती है, कोलकाता के एक कार्यक्रम में पत्रकार महात्मा गांधी (चिराग वोहरा )से पूछते हैं कि क्या हिंदुस्तान का बंटवारा होगा.इसके जवाब में वह कहते हैं कि इससे पहले मेरे शरीर का बंटवारा होगा. सीरीज का अंत एक अखबार की प्रिंटिंग पेज से होता है,जिसमें लिखा होता है कि गांधी को इस विभाजन की कीमत चुकानी पड़ेगी. 1946 से शुरू यह सीरीज जून 1947 तक सफर करती है, जब आधिकारिक तौर पर बंटवारे की घोषणा हुई थी. शुरुआत में गांधी के साथ नेहरू और सरदार पटेल भी विभाजन के खिलाफ थे, लेकिन बंगाल, पंजाब और बिहार में सिलसिलेवार दंगों से आहत हो सरदार पटेल गांधीजी को कहते हैं कि हाथ बचाने के लिए अगर उंगलियां काटनी पड़ी ,तो काट देना चाहिए. कहानी साल 1946 से 1947 के टाइमलाइन पर ही नहीं चलती है, बल्कि यह उससे पीछे अतीत के महत्वपूर्ण घटनाओं को भी कहानी में लेकर आती है. जो मौजूदा परिस्थितियों के बनने में अहम भूमिका निभा चुके हैं.बंटवारे में पंजाब और बंगाल के किन इलाकों को पाकिस्तान से जोड़ा गया. वे इलाके कैसे तय किये गए थे.इन पहलुओं को कहानी में जोड़ा गया है. इसके अलावा गांधी और नेहरू के आदर्शवाद, पटेल की व्यावहारिकता, जिन्ना के स्वार्थ को भी बंटवारे के इस त्रासदी में जगह दी है.
सीरीज की खूबियां और खामियां
सात एपिसोड की यह सीरीज एक ऐसे इतिहास को बताने का वादा करती है, जो आप नहीं जानते हैं और सीरीज देखते हुए आपको यह बात बहुत हद तक सही महसूस भी होती है. पटेल और नेहरू की दोस्ती,हम अपने आज़ादी के नायकों को हमेशा लार्जर देन लाइफ देखते आये हैं,लेकिन यह उनके ह्यूमन साइड को भी दिखाती है(वायसरॉय हाउस में पटेल और नेहरू का रास्ता भूल जाने वाला प्रसंग ) पांचवे एपिसोड में वीपी मेनन का पूरा चैप्टर. बंटवारे के वक़्त हिन्दू , मुस्लिम ही नहीं बल्कि सिख भी संकट में थे .सीरीज कुछ सवालों के जवाब भी देती है. गांधीजी ने क्यों नेहरू को पटेल के बजाय चुना था. गांधीजी आखिरी वक्त तक बंटवारे के खिलाफ थे. सीरीज डॉक्यूमेंट्री का फील लिए हुए है, लेकिन यह डॉक्यूमेंट्री नहीं है,इसलिए मेकर्स ने सिनेमैटिक लिबर्टी भी ली है. बंद कमरों में होनेवाली बातचीत में खासकर, लेकिन इतिहास के साथ उन्होंने किसी तरह से छेड़छाड़ नहीं की है,यह सीरीज की खासियत है.सीरीज में काबिले तारीफ काम करने वालों में सिनेमेटोग्राफर, कला निर्देशक, कॉस्ट्यूम डिजाइनर और एडिटिंग टीम का नाम सबसे आगे है. सीरीज के संवाद की बात करें तो अंग्रेज पात्रों को टूटी फूटी हिंदी बोलते नहीं दिखाया गया है ,बल्कि उनकी पूरी बातचीत अंग्रेजी भाषा में ही है.हिंदी ,अंग्रेजी के अलावा पंजाबी ,गुजराती और बांग्ला भाषा का भी इस्तेमाल हुआ है. जो सीरीज की विश्वसनीयता को बढ़ाता है.सीरीज में कुछ कमियां भी रह गयी हैं. सीरीज में बंटवारे के लिए पूरी तरह से जिन्ना और मुस्लिम लीग को ही जिम्मेदार ठहरा दिया गया था. माउंटबेटन की क्या कोई भागीदारी नहीं थी. अंग्रेजो की डिवाइड एंड रूल की बातें क्या बातें ही थी.आरएसएस और हिन्दू महासभा की क्या भूमिका उस वक़्त थी. यह सीरीज इस विषय पर नहीं जाती है. प्रोस्थेटिक मेकअप इस सीरीज की खासियत है, लेकिन उसमें भी चूक रह गयी है. उम्रदराज नेहरू का लुक सही ढंग से परदे पर नहीं आ पाया है. वैसे सीरीज देखते हुए आपके मन में यह सवाल भी आ सकता है कि निखिल आडवाणी ने अपनी इस सीरीज में युवा कलाकारों के बजाय बड़े उम्र के कलाकारों को क्यों नहीं चुना.इस सीरीज में महिला पात्रों की उपस्थिति अखरती है. दरअसल उनके करने को ज्यादा कुछ नहीं था.सरोजिनी नायडू की भूमिका में मलिश्का कुछ सीन में दिखती हैं, तो इरा दुबे सीरीज में लगातार नजर तो आयी हैं लेकिन उनके करने को कुछ नहीं था.वह अपने भाई मोहम्मद अली जिन्ना की केयरटेकर के तौर पर ही दिखती हैं. लेडी एडविना (कॉर्डेलिया )की भूमिका को भी इस कहानी में अहमियत नहीं दी गयी हैं. सीरीज का बैकग्राउंड म्यूजिक ड्रामा को बढ़ाता है.
आरिफ जकारिया की तारीफ बनती है
अभिनय की बात करें तो जुबली के बाद अभिनेता सिद्धांत गुप्ता ने एक बार फिर इस सीरीज में अपनी छाप छोड़ी है. नेहरू के किरदार को वह बखूबी जीते हैं. चिराग वोहरा की मेहनत गांधी के किरदार में नजर आती है. राजेंद्र चावला पर निर्देशक निखिल आडवाणी ने जो भरोसा जताया था ,उन्होंने उसी भरोसे के अनुरूप सरदार पटेल की भूमिका को बढ़िया तरीके से निभाया है.आरिफ जकारिया की तारीफ बनती हैं.उन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना को अपने बॉडी लैंग्वेज,संवाद और एक्सप्रेशन से परदे पर जिंदा कर दिया है. यह कहना गलत ना होगा. राजेश कुमार भी असरदार रहे हैं. इसके अलावा बाकी के सभी कलाकार भी अपनी -अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय करते हैं.
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