मुंबई से लौटना नहीं था क्योंकि पटना के कॉल सेंटर में नौकरी करने के अलावा कोई ऑप्शन नहीं होता: अभिषेक झा
अभिषेक झा ने कहा, ''मेरा जन्म बेगूसराय में हुआ है. मैं ऐसे परिवार से आता हूं, जहां मेरे परिवार के सदस्य डॉक्टर और शिक्षक रहे हैं. मेरे पिता इसको में इंजीनियर रहे है, तो उनकी पोस्टिंग बलिया में हो गयी थी. हमलोग हर साल छुट्टियों में बिहार आते -जाते हैं, क्योंकि हमारे दादा-दादी वही रहा करती थीं.''
सोशल मीडिया पर कुछ दिनों पहले पंकज त्रिपाठी के साथ बैठे अभिषेक झा का एक वीडियो खूब वायरल हुआ. वजह थी कि एक एक्टर ने इस कदर डूब कर उनका किरदार निभाया कि सभी अचंभित रह गए. वो कलाकार कोई और नहीं, बल्कि बिहार और उत्तर से संबंध रखने वाले अभिषेक झा हैं, जो इन दिनों पंचायत समेत, ओटीटी की दुनिया में धाक जमा रहे हैं. शुरुआती दौर में मुंबई में संघर्ष करते हुए अब इन दिनों अभिनय के साथ-साथ पर्दे के पीछे की क्रिएटिव दुनिया में भी वह सक्रिय हैं. पेश है उर्मिला कोरी क़े साथ उनकी हुई बातचीत के मुख्य अंश…
किस तरह से क्रिएटिव प्रोड्यूसर ,डायरेक्टर और फिर एक्टर बनने का यह सफर शुरू हुआ?
मेरा जन्म बेगूसराय में हुआ है. मैं ऐसे परिवार से आता हूं, जहां मेरे परिवार के सदस्य डॉक्टर और शिक्षक रहे हैं. मेरे पिता इसको में इंजीनियर रहे है, तो उनकी पोस्टिंग बलिया में हो गयी थी. हमलोग हर साल छुट्टियों में बिहार आते -जाते हैं, क्योंकि हमारे दादा-दादी वही रहा करती थीं. दरअसल,बचपन से ही लोगों को मैं बहुत ज़्यादा ऑब्जर्व किया करता था. स्कूल के एक्स्ट्रा करिकुलम में भी मैं मिमिक्री ही किया करता था. कई बार लोगों ने सराहा कई बार लोग आहत भी हुए, लेकिन ये हुआ कि चलो लड़का मिमिक्री बहुत अच्छी करता है. मैंने कभी इसको करियर बनाने का नहीं सोचा था. लेकिन 12 वीं के बाद ऐसा हुआ कि पिताजी चाहते थे कि मैं साइंस लूँ ,लेकिन मेरी ऐसी कोई रुचि नहीं थी. मेरी बड़ी बहन इंजीनियर थी और पिताजी भी इंजीनियर ही थे. मैंने कहा कि मैं कॉमर्स लेता हूं, क्योंकि मेरे पास कोई विकल्प नहीं था. सो,मैं दिल्ली चला गया सीए करने और सीए करते -करते मुझे एहसास हुआ कि यार मैं इस चीज के लिए भी नहीं बना हूं. फिर दोस्तों ने कहा, तुम लिखते भी हो, मुंबई चले जाओ और उसी में ग्रेजुएशन भी कर लो, तो मैं 2008-2009 में मुम्बई आ गया. और बैचलर ऑफ मास मीडिया किया. मास मीडिया करते-करते मैं प्रोडक्शन हाउस से जुड़ गया. फिर मुझे इस काम में मजा आने लगा कि ये बिहाइंड द सीन कैसे होता है और कैमरे के सामने कैसे होता है. फिर वर्ष 2014 में, जब टीवीएफ नया-नया आया था. गुल्लक फेम वैभव गुप्ता, जो कि मेरे फ्लैटमेट भी रहे, उन्होंने कहा कि मेरे एक भाई हैं टीवीएफ में असिस्टेंट डायरेक्टर हैं, तो वहां स्क्रैच में एक्टिंग करना शुरू किया. और अब लगभग सात साल बीत गए और वर्ष 2021 में मुझे पहचान मिली. वो भी मिमिक्री में, लेकिन असली जो पहचान मिली है. वो मिली है पंचायत सीजन 2 से. मैं वो ड्राइवर था शराबी. उसके बाद मेरे पिछले छह महीने ऐसे बीते कि मेरे सारे काम अच्छे लग रहे हैं.मुझे शार्क टैंक सीजन 2 का एड भी मिला, तो वो मेरे लिए एक और टर्निंग पॉइंट हो गया. वेब सीरीज से लेकर फिल्मों तक के ऑफर आ रहे हैं. हालांकि अभी भी मैं प्रोड्यूसिंग के काम को आगे रखकर चल रहा हूं.मैं गुल्लक और पंचायत दोनों का क्रिएटिव प्रोड्यूसर रहा हूं.
पंकज त्रिपाठी की मिमिक्री का सिलसिला कैसे शुरू हुआ?
शिवांकित सिंह परिहार( रवीश कुमार फेम) एक बढ़िया आर्टिस्ट है. उनसे आप भी परिचित होंगी. हमदोनों लॉक डाउन के वक़्त फ्लैटमैटस थे.सबकी तरह हमारे पास भी बहुत खाली समय था.हम कुछ ना कुछ टाइमपास करते रहते थे. एक दिन शिवांकित ने कहा कि तुम्हारी आवाज़ पंकज त्रिपाठी जी के साथ बहुत मैच हो रही है,जिसके बाद हमने इंस्टाग्राम पर एक वीडियो डाला, जिसमें जर्नलिस्ट लोग सवाल पूछ रहे हैं और मैं पंकज त्रिपाठी बना हूँ. वो वीडियो काफी वायरल हो गया.पंकज जी ने भी उसे नोटिस किया. हाथ जोड़े एक इमोजी के साथ उन्होंने रिप्लाई भी किया. फिर कट टू 2022 में मैंने टीवीएफ के साथ एक स्क्रैच किया. कांसेप्ट था पंकज त्रिपाठी भी ब्रह्मास्त्र के ऑडिशन देने गए थे. ये स्क्रैच खूब वायरल हुआ था. एक बार फिर पंकज जी ने नोटिस किया. क्रिमिनल जस्टिस के प्रमोशन के वक्त उन्होंने ही बोला कि हमें ये लड़का चाहिए. हम टीवीएफ़ के साथ एक वीडियो करना चाहते हैं.वीडियो बनाया गया,जिसमें ऐसा दिखाया गया कि वो नकली हैं और मैं असली पंकज त्रिपाठी तो कह सकते हैं कि वो मेरे लिए एक सपने के पूरे होने जैसा था.
फिर पंचायत 2 में शराबी ड्राइवर की एक्टिंग का मौका कैसे मिला?
मुझे मौका ऐसे मिला क़ि फलाना एक्टर शूटिंग पर नहीं आ पाएंगे, तुम कर लो ना . इस किरदार क़े लिए अभिषेक बनर्जी पहले लॉक हुए थे. उनके डेट्स क़ि समस्या हुई क्योंकि पताल लोक क़े बाद वो बहुत फेमस हो गए थे. डायरेक्टर दीपक मिश्रा को मैं पहले से जानता था. उन्होने कहा कि अभिषेक एक कोशिश करके देख. मैंने कहा कि मैं मिमिक्री करता हूं. एक्टिंग का मुझे नहीं पता है.उन्होंने कहा कि अगर कभी तुमने दारू पी है. उसके बाद जैसे करते हो, वैसे करो. मैंने किया और सभी को पसंद आया. ये सब एक्सीडेंटल था. शायद ये सब होना था इसलिए हुआ.
क्रिएटिव डायरेक्टर, प्रोड्यूसर और एक्टर तीनों हैं किस तरह से ये तीनों विधाओं को बैलेंस करते हैं और संघर्ष क्या रहता है?
संघर्ष कुछ नहीं है. यह पूरी तरह से इंसान पर निर्भर करता है. प्रोड्यूसिंग में जो मेरे सहयोगी हैं,वो बहुत ही सपोर्टिंव हैं. वो मेरी एक्टिंग को पसंद करते हैं और हमेशा मुझे कहते हैं क़ि यार तुम्हें ये भी करते रहना चाहिए. मैं प्रोड्यूसिंग और क्रिएटिव डायरेक्शन का मुख्य काम करने के साथ – साथ एक्टिंग क़े लिए भी पांच से दिनों दिनों तक समय निकाल लेता हूं.
आप क्रिएटिव डायरेक्टर , प्रोड्यूसर और एक्टर के तौर पर अगला प्रोजेक्ट क्या कर रहे हैं?
इन दिनों मैं जिओ स्टूडियो से जुड़ा हूं. मैं छोटे शहर से आता हूं, तो मैं हमेशा वही कहानियां कहने की कोशिश करता हूँ.अपना स्वाद, अपना सार, उसका जो थोड़ा-सा अंश है, उसको मैं कहीं ना कहीं डालने की कोशिश करता हूं.जैसी गुल्लक और पंचायत में हमने कोशिश की,जिसको देखकर लगता है कि हमने भी ऐसी जिंदगी जी. मैं उसी कहानी को महत्व बतौर क्रिएटिव डायरेक्टर और प्रोड्यूसर के तौर पर दे रहा हूं, अगले साल तक ये प्रोजेक्ट दिखने लगेंगे, जिसमें क्रिएटिव डायरेक्टर और प्रॉड्यूसर के तौर आपको मेरा काम दिखने लगेगा.जहाँ तक एक्टिंग की बात है,तो नए साल में कई प्रोजेक्ट में आपको एक्टिंग भी करते दिखूंगा, जिसमें प्रकश झा की एक वेब सीरीज भी है.
आप मुंबई 2008 से हैं, आपको पहचान अब मिली है, अपने मुश्किल दिनों को कैसे याद करते हैं ?
जैसे पुलिस भर्ती और आर्मी भर्ती होती है.बहुत सारे पहले आपको सब टेस्ट देने पड़ते हैं, सारी एक्सरसाइजेस से गुज़रना पड़ता है.सबकुछ दिखाना पड़ता है, मुंबई आपके साथ वैसा ही करता है. शुरुआत के तीन -चार साल मैं बहुत बीमार रहता था. मां मुझे फोन करके यही कहती थी कि काहे परेशान हो रहे हो बाबू ,घर आ जाओ. मैं बोलता नहीं मां, कुछ सोच कर आए हैं.ये बात अच्छे से जानता था कि अगर मुम्बई में कुछ नहीं कर पाया, तो पटना जाकर कॉल सेंटर में नौकरी करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचेगा. जो मैं करना नहीं चाहता था.2008 के आसपास की बात है.मेरे पापा 5 हजार महीना की मदद कर पाते थे, क्योंकि उन्होंने भी वीआरएस ले ली थी. और 5 हजार में मुंबई जैसी महंगी जगह में रहना नामुमकिन है. हम पांच लोग एक साथ रहते थे. आखिर के दस दिन तो खाने क़े लाले हो जाते थे. सब अपनी जेब झाड़ते थे. किसी के पास दस तो किसी के पास 50 रुपये मिलते थे. शुरू में ऐसे ही दिन गुज़रते थे, लगभग 2008 से 2013 तक. फिर 2013 के बाद चीज़ें बदली. फिर 2018 से ज़िन्दगी पटरी पर आ गयी. मुंबई शहर की खासियत है अगर आप में मेहनत, धैर्य और प्रतिभा है, तो यह शहर ज़रूर आपके सपनों को पूरा करता ही है.
आपके परिवार आपकी मौजूदा पहचान से कितने खुश हैं?
जब तक डिजिटल पर चीज़ें आ रही थी, तब तक वो इससे अनजान ही थे, क्योंकि हमारे घर पर केबल ही आता है.उनको मैं बताता भी था, तो वो यही कहते थे कि अच्छा बाबू टीवी पर नहीं आ रहा है.बताते भी हैं कि पापा उससे बड़ा है, लेकिन उनको ज़्यादा फर्क नहीं पड़ा. क्रिएटिव डायरेक्टर और प्रोड्यूसर में क्या करते हो. ये उनको कभी नहीं समझ में आया. शार्क टैंक वाला एड आया जब सोनी टीवी पर, तो वो लोग बहुत खुश हुए. शार्क टैंक वाले एड आने के बाद मुझे ऐसे लोगों के फोन आने लगे हैं, जिनसे 20 साल पहले बात हुई थी, जिसके बाद उन्हें भी लगता है कि मेरा बेटा कुछ तो हो गया.
काम के व्यस्तता के बीच बिहार और आपने लोगों से कितना जुड़ाव बनाए रखा है?
मेरे पिता रिटायरमेंट के बाद पटना शिफ्ट हो गए हैं , तो हर साल पटना उनसे मिलने जाता ही हूँ. बेगूसराय में मेरा जन्म हुआ है ,तो मैं उस जुड़ाव को भी हमेशा खुद से जोड़े रखना चाहता हूँ ,मैं हर दो साल में वहां भी जाने की कोशिश करता हूँ. आज मैं जो भी हूँ ,वो उसी दुनिया की वजह से हूँ, क्योंकि अब तक के मेरे प्रोजेक्ट्स में मैंने वही दुनिया से इनसाइट लाया हूँ. मुझे शहरी लोगों को देखकर कई बार बुरा लगता है कि आपने हमारे देश का ग्रास रुट नहीं देखा है. आपको नहीं पता कि हमारा देश कहाँ से शुरू हुआ. मैं लकी हूँ कि मैंने वो दुनिया देखी है इसलिए उसे अपने काम में भी ला पाया.