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झारखंड : सरना सनातन धर्म की मिसाल है गुमला का हापामुनी मंडा मेला, 200 साल पुराना है इतिहास

सरना सनातन धर्म के आस्था का केंद्र गुमला के हापामुनी का मंडा मेला काफी पुराना है. 200 साल पहले इस मेले की शुरुआत हुई. मंडा मेला में दूर-दूर से लोग अपनी मनोकामना पूर्ति के लिए पूजा-अर्चना करने यहां आते हैं.

घाघरा (गुमला), अजीत कुमार साहू : 200 वर्ष पूर्व सरना सनातन धर्म के लोगों ने मिलकर गुमला के हापामुनी गांव में मंडा मेला की शुरुआत की जो अब पूरे राज्य में प्रचलित है. मंडा मेला में दूर-दूर से लोग अपनी मनोकामना पूर्ति के लिए पूजा-अर्चना करने के लिए आते हैं. इस मंडा मेला से लाखों लोगों का आस्था जुड़ा है. जिस समय पूजा की शुरुआत हुई उस समय मंडा मेला के समय का चुनाव आकर्षण तरीके से किया गया. चैत्र शुक्ल पक्ष महीना मनोरम चांदनी रात में न अधिक गर्मी और न अधिक ठंडक वाले खुशनुमा मौसम में इस पर्व में शामिल होने वाले सभी धर्म प्रेमी और भोक्ताओं को उल्लास और उत्साह से भर देता है. यह मेला पांच दिवसीय होता है. मेला के सफल संचालन के लिए कमिटी का गठन किया जाता है. सभी गांव के लोग पूरी लगन के साथ मेला को सफल बनाते हैं. महामाया मंदिर से लगभग 200 मीटर की दूरी पर चबूतरा और मंडप का निर्माण किया जाता है जहां मंडा मेला लगता है. मंडा मेला रामनवमी के दूसरे दिन भोक्ता प्रवेश कर मेला का शुभारंभ होता है जिसमें भगवान शिव को पूजा अर्चना के साथ मुख्य मंदिर से मंडा मेला स्थल पर बने मंडप पर लाया जाता है जहां रुद्राभिषेक किया जाता है.

200 साल पुरानी है मंडा मेला

बता दें कि 200 वर्ष पूर्व मंडा मेला की शुरुआत हई. इसके बाद 1992 में मेला विलुप्त के कगार पर आ गया. सिर्फ छह भोक्ता और एक चाय की दुकान थी. इसके अलावा कुछ भी नहीं था. लेकिन, प्रोफेसर अवध मनी पाठक के प्रयास से मेला को फिर से भव्य रूप दिया गया. उन्होंने कहा जब तक मेरा जीवन रहेगा तब तक मैं मंडा मेला का नेतृत्व करुंगा. इसके बाद से भव्य मेला का आयोजन होता रहा है. वर्तमान समय में लगभग 250-300 भोक्ता और लगभग 10,000 से अधिक लोगों की भीड़ होती है. मेला में पूजा-अर्चना सांस्कृतिक कार्यक्रम के साथ-साथ खोड़ा दल भी आते हैं.

भगवान भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए भोक्ता करते हैं कड़ी भक्ति

भगवान भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए भोक्ता महादेव उरांव के नेतृत्व में सैकड़ों भोक्ता लगातार पांच दिनों तक सिर्फ शाम में नियमानुसार सात्विक भोजन करते हैं और पांचों दिन भक्ति में लीन रहते हैं. इस दौरान सभी भोक्ता धोती पहनकर और धोती उड़कर मेला स्थल पर ही रहते हैं. इस दौरान सभी भोक्ता न तो अपने परिजन से और न ही बाहरी लोगों से बात करते हैं. कार्यक्रम के चौथे दिन भोक्ता स्नान के बाद महामाया मंदिर का परिक्रमा कर मेला स्थल पहुंचते हैं जहां भगवान शिव का आशीर्वाद फूल माला गिरने के बाद उसी फूल को जलते लकड़ी के पवित्र कोयले में छीटा जाता है जिसके बाद ही भोक्ता धधकते आग को फूल मान कर उसमें चलते हैं. जिसे फुलखूंदी कहा जाता है. पांचों दिन भोक्ताओं द्वारा लोटन सेवा किया जाता है जिसमें चबूतरे का परिक्रमा लेटते हुए किया जाता है.

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कार्यक्रम की रूपरेखा

पहले दिन भोक्ता द्वारा मुख्य मंदिर से शिवलिंग को लाकर मेला स्थल पर बने चबूतरे में रखा जाता है जिसके बाद पूजा अर्चना की जाती है. दूसरे दिन कलश यात्रा का कार्यक्रम होता है जिस कलश के जल से शिवलिंग का जलाभिषेक किया जाता है. तीसरे दिन रुद्राभिषेक, चौथे दिन फूलखुंदी और रात्रि में सांस्कृतिक कार्यक्रम. पांचवें दिन भोक्ता झूला, मेला और मेले में खोड़हा दल का आगमन होता है.

लोगों की आस्था से जुड़ा है मंडा मेला

मंडा मेला के आजीवन संरक्षक प्रोफेसर अवध मनी पाठक ने बताया कि इस मंडा मेला से क्षेत्र के लोगों की आस्था जुड़ा है. सभी मंडा मेला में आकर अपनी मनोकामना पूर्ति के लिए पूजा-अर्चना करते हैं. मनोकामना पूर्ति होने पर भक्त बड़े उत्साह के साथ मेला में आते हैं और पूजा अर्चना करते हैं. साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि पारंपरिक सांस्कृतिक कार्यक्रम चाहे वह खोड़हा दल हो, नागपुरी गीत या आदिवासी गीत यहां तक कि पुराने समय में भी बिना किसी बिजली व्यवस्था के लोग नाचते-गाते नहीं थकते थे. मंडा मेला के पांचों दिन बहुत ही आकर्षक झांकी और मंत्रोच्चारण तथा सांस्कृतिक कार्यक्रम एवं भोक्ता नाच देखने लायक होता है जिसे देखने के लिए लोग दूर-दूर से लोग आते है.

भाईचारगी के साथ मेले की हुई शुरुआत

वहीं, पूर्व मुखिया सह समाजसेवी आदित्य भगत ने कहा कि जिस भाईचारगी के साथ 200 वर्ष पूर्व इस मंडा मेले की शुरुआत हुई थी वो भाईचारगी आने वाले समय में भी चलता रहेगा. युवा पीढ़ी भी इन सभी परंपरा को देखें और जन्मो-जन्मांतर से चले आ रहे मंडा मेला को दिन-ब-दिन भव्य बनाने की दिशा में सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़े. यह मंडा मेला क्षेत्र के लोगों के लिए आस्था का केंद्र है.

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छत्तीसगढ़ की पहाड़ी से मां भगवती की प्रतिमा आया

बताया गया कि लरका आंदोलन से पूर्व बरजू राम ने मां भगवती की प्रतिमा छत्तीसगढ़ की पहाड़ी से लेकर आये और हापामुनी गांव में स्थापित किया. साथ ही पूरे भक्ति-भाव के साथ पूजा-अर्चना शुरू किया. उसी समय से पूजा-अर्चना शुरू हुई.

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