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Sohrai 2022: गुमला के बिशुनपुर में ‘तहड़ी भात’ खाने की परंपरा, पशुओं को खिलाया जाता है ‘कुहंडी’

सोहराय पर्व नजदीक है. इसको लेकर आदिवासी समुदाय में उत्साह का माहौल अभी से देखने को मिल रहा है. दीपावली के दूसरे दिन मनाये जाने वाले इस पर्व में ग्रामीण अपने पशुओं की पूजा करते हैं. इस दिन जहां ग्रामीण 'तहड़ी भात' खाते हैं, वहीं पशुओं को 'कुहंडी' खिलाते हैं.

Sohrai 2022: आदिवासी बहुल गुमला जिले के बिशुनपुर प्रखंड में सोहराय पर्व (Sohrai Festival) उत्साह पूर्वक मनाया जाता है. 81 वर्षीय बलिराम भगत बताते हैं कि प्रकृति के पुजारियों के घर सोहराय पर्व को लेकर तैयारियां पहले से की जाती है. जिसमें घर गोहाल को लिपाई-पुताई कर तैयार की जाती है. उन्होंने बताया कि खास तौर पर सोहराय पर्व पर गाय बैलों को प्रसन्न करना होता है क्योंकि यही वह प्राणी है जो बेजुबान तो है ही, साथ ही इनकी मेहनत से खेतों में फसल लहलहाती है.

मवेशियों को ‘कुहंडी’ खिलाया जाता

हर साल खेतों में अच्छी फसल हो इसको लेकर पारंपरिक तरीके से पूजा की जाती है. दीपोत्सव के दूसरे दिन अहले सुबह जिसके घर में गाय, बैल एवं बकरी होती है. उन्हें वे नहला-धुलाकर उनके सिंघ और पैर में तेल और सिंदूर लगाकर उन्हें पूजा जाता है. उस वक्त गाय-बैलों की खुशी देखते बनती है. इसके बाद इन मवेशियों को स्वादिष्ट भोजन ‘कुहंडी’ खिलाया जाता है, ताकि लक्ष्मी स्वरूप हमारे गाय-बैल प्रसन्न हो. जिसके घर में मवेशी नहीं हैं. वे लक्ष्मी जी की पूजा करते हैं.

‘तहड़ी भात’ खाने की है परंपरा

दीप उत्सव के दूसरे दिन गोहारी पूजा के दौरान मुर्गा की बलि देते हैं. जिसके बाद ‘तहड़ी भात’ बनाकर उसे प्रसाद स्वरूप ग्रहण करते हैं एवं आस-पड़ोस के लोगों को भी प्रसाद खाने के लिए निमंत्रित किया जाता है.

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क्या होता है ‘तहड़ी भात’

बड़े-बड़े शहर के होटलों में जिसे हम चिकन बिरयानी के नाम से जानते हैं, लेकिन आदिवासी बहुल क्षेत्रों में सोहराय पर्व के अवसर पर प्राकृतिक के पुजारी किसान बली दिये गये मुर्गा से सु-स्वादिष्ट चिकन बिरयानी बनाते हैं. जिसे ‘तहड़ी भात’ के नाम से जाना जाता है.

कुछ परंपरा विलुप्त हो रही है : बलिराम

बलिराम भगत बताते हैं कि आज से 70 साल पूर्व सोहराय पर्व के दौरान मवेशियों को चराने वाले अहीर को विशेष रूप से सम्मान दिया जाता था. सोहराय पर्व के दिन पूरे गांव के लोग अहीर को धान, चावल, दाल जैसे खाने-पीने की वस्तुएं उन्हें देते थे. उस दिन परंपरा के अनुसार, गांव में एक जगह का चयन कर गांव के सारे लोग धान, चावल अहीर के लिए लाते थे. जिसके बीचों-बीच एक कटोरा में हड़िया रखा होता था. अहीर पैर और हाथ के बल मवेशियों के जैसा चल कर वहां पर पहुंचकर मुंह से ही उठाकर हड़िया का सेवन कर बहुत खुश होता था. लेकिन, धीरे-धीरे समय बीता जा रहा है. परंपरा में भी परिवर्तन हो रहा है. अब अहीर जाति के लोग मवेशी नहीं चराते हैं. जिस कारण यह परंपरा लगभग समाप्त हो गयी है.

रिपोर्ट : बसंत साहू, बिशुनपुर, गुमला.

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