Jharkhand news: हाईटेक होते युग में छोटानागपुर में आदिवासियों की कई परंपरा विलुप्त होने के कगार पर है, लेकिन वहीं दूसरी तरफ कई ऐसी पंरपरा है, जो आज भी इस क्षेत्र में जीवित है. यह परंपरा कोई एक दिन की नहीं, बल्कि प्राचीनकाल से चली आ रही है. इन्हीं में काड़ा सरना, सरहुल सरना और देवी मां की पूजा है. आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में गांव को विभिन्न प्रकार के प्रकोपों से बचाने एवं सुख-शांति के लिए इन तीनों स्थानों पर पूजा करने की प्राचीन परंपरा कायम है और इसे जीवित रखा है आदिवासी समाज के प्रबुद्ध लोगों ने.
तीनों धार्मिक स्थलों की है अपनी खासियत
इन तीनों धार्मिक स्थलों की खासियत यह है कि हरेक मौजा में इनकी स्थापना होती है. काड़ा सरना और सरहुल सरना खुले आसमान के नीचे होता है, जबकि देवी मां झोपड़ीनुमा किसी छोटे भवन में स्थापित किया जाता है. परंपरा के अनुसार, काड़ा सरना में 12 वर्ष में एक बार और देवी मां और सरहुल सरना में साल में एकबार पूजा होती है. पूजा पाठ बैगा, पहान और पुजार द्वारा की जाती है. इनका चयन भी गांव के माध्यम से होता है. जिनका चयन एकबार हो जाता है. उसी के वंशज पीढ़ी दर पीढ़ी पूजा पाठ कराते हैं. यहां पूजा की विधि में पानी, आम पेड़ का पत्ता, अरवा चावल, धूप धुवन, अगरबत्ती, सिंदूर और अगर जरूरत पड़ी, तो मुर्गा को बलि दी जाती है.
अब काड़ा की बलि देने की प्रथा समाप्त
काड़ा सरना स्थल में आज से 20 साल पहले काड़ा और सूकर की बलि दी जाती थी, लेकिन जैसे-जैसे समय बदलता गया, काड़ा देने की प्रथा को खत्म कर दिया गया. अब अधिकांश स्थानों पर मुर्गे की बलि दी जाती है. अगर कोई धनी संपन्न है, तो वैसे लोग परिवार की सुख-शांति के लिए बकरा की बलि देते हैं. यहां 12 साल में एक बार पूजा होता है. इसमें गांव के सभी लोगों को भाग लेना अनिवार्य है. सरहुल सरना में साल में एक बार पूजा होता है. इसमें लोग पूरे रीति रिवाज के साथ पूजा-पाठ करते हैं.
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पूर्वजों की परंपरा आज भी है जीवित : सुखू बैगा
सुखू बैगा ने बताया कि समय सबकुछ बदल देता है, लेकिन आदिवासी समाज की परंपरा आज भी जीवित हैं. काड़ा सरना स्थल में जरूरत काड़ा के स्थान पर अब मुर्गा और बकरा की बलि दी जाती है, लेकिन पूजा पाठ की जो परंपरा पूर्वजों के समय से चली आ रही है. उसे आज भी जीवित रखा गया है. यही वजह है कि जिन गांवों में इन तीन देवी-देवताओं की पूजा होती है. उस गांव में सुख-शांति रहती है. हमलोग आनेवाली पीढ़ी को भी सीखा रहे हैं कि पूर्वजों की परंपरा को जीवित रखें.
सरहुल पर्व मनाने की मान्यता व परंपरा
डुमरी प्रखंड के जगरनाथ भगत ने बताया कि सरहुल के दिन सरना स्थल में बैगा पुजार द्वारा धरती माता और सूर्यदेव भगवान की पूजा अर्चना किया जाता है. उस दिन के पूजा का मान्यता यह है कि बरसात गिरने से पहले आदिवासी समाज आनेवाले दिनों में कृषि कार्य, खेती-बारी से जुड़े हैं. पूजा के बाद खेती-बारी का काम शुरू करता है. धरती की पूजा कर अच्छी खेती, अच्छी फसल उपज पैदावारी के लिए होता है. वहीं, सूर्यदेव की पूला अच्छी बरसात, फसल को रोग से बचाने के लिए होती है. इसके बाद बैगा पुजार द्वारा घड़ा में खिचड़ी पकाया जाता है.
सरहुल सरना पूजा आदिवासियों के लिए महत्वपूर्ण
उसकी मान्यता है कि घड़े के जिस ओर से खिचड़ी उबलना शुरू करता है. उसी ओर से बरसात का आगमन होता है. इसके बाद जब बैगा पुजार लोग खिचड़ी खाते हैं, तो उनके पीछे की ओर आग जला दिया जाता है. इसका मतलब यह होता है कि अगर बैगा पुजार आग के गर्मी को बर्दाश्त करते हुए शांतिपूर्ण ढंग से खिचड़ी खाते हैं, तो गांव में सुख-शांति रहती है और जहां आग लहर या गर्मी को बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं, तो गांव में मच्छर, बीमारी सहित अन्य प्रकार का कहर बढ़ जाती है. इसलिए सरहुल सरना पूजा आदिवासियों के लिए महत्वपूर्ण है.
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रिपोर्ट : दुर्जय पासवान, गुमला.