खाने में भी होता है ‘घास’ का इस्तेमाल, जानिए इसका स्वाद और कितना है फायदेमंद?
अगर अनाज की बात छोड़ भी दें तो बहुत सारी घास ऐसी हैं, जो हमारे खाने को सुवासित बनाती हैं और स्वादिष्ट भी. इनमें सबसे पहले याद आती है खस की जिसे अंग्रेजी में विटीवर कहते हैं. इसकी तासीर ठंडी होती है और गर्मियों में इसका शरबत हल्की कुदरती हरियाली के साथ तन-मन को शीतल कर देता है.
बचपन में सुनी और बाद में पढ़ी एक कहानी अक्सर याद आती है. हल्दी घाटी के युद्ध के बाद लंबे समय तक महाराणा प्रताप ने वनवासी भीलों के साथ निवास किया था. उसी दौरान उनकी बेटी लाड़ली राजकुमारी को घास से बनी रोटी खाने के लिये मजबूर होना पड़ा था. जब यह रोटी भी एक कुत्ता उसके हाथ से छीन ले गया तो पिता का ह्रदय विदीर्ण हो गया. पल भर के लिये उन्हें लगा कि मुगल बादशाह से समझौता कर लेना चाहिये. कहानी लंबी है, महाराणा ने अपना संघर्ष जारी रखा और शीश कभी झुकाया नहीं. बहरहाल, इस प्रसंग से यह बात उजागर होती है कि वन की आदिवासी संतानों के खानपान में घास-फूस किस प्रकार पौष्टिक तत्व और जायके भर देते हैं.
हमारे एक राजस्थानी जनजातीय मित्र ने कुछ बरस पहले हमें यह बात समझाई थी, कि राजस्थान के नमी वाले जिलों में उगने वाली अल्फा-अल्फा घास पौष्टिक तत्वों का खजाना होती है, और इसे मवेशियों के चारे में शामिल करना उनके दूध की धार को तो बढ़ाता ही है, उसके स्वाद को भी चित्ताकर्षक बनाता है. इस घास से कई रोटी बन सकती है या बनायी जाती है, इसका कोई अता-पता उसे नहीं था. वनस्पति शास्त्रियों का मत है कि बहुत सारे अनाज जो हमारे खाने का अभिन्न अंग हैं, वह हजारों साल पहले जंगली घास ही थे. बाद में जब हमारे पुरखों ने खेती-बारी शुरू की तो इन्हें ‘पालतू’ बना दिया. चावल की अनेक प्रजातियों और ज्वार, जौ के अलावा बहुतेरे श्री-अन्न (मिलेट्स ) को भी घासों के साथ ही वर्गीकृत किया जाता हैै.
अगर अनाज की बात छोड़ भी दें तो बहुत सारी घास ऐसी हैं, जो हमारे खाने को सुवासित बनाती हैं और स्वादिष्ट भी. इनमें सबसे पहले याद आती है खस की जिसे अंग्रेजी में विटीवर कहते हैं. इसकी तासीर ठंडी होती है और गर्मियों में इसका शरबत हल्की कुदरती हरियाली के साथ तन-मन को शीतल कर देता है. कुछ-कुछ यही बात केवड़े के बारे में भी कही जा सकती है, जिसे अंग्रेजी में स्क्रू पाइन कहते है. केवड़े की खुशबू खस से कहीं तेज होती है और कुदरती रंग हल्का पीलापन लिए होता है. केवड़ा जल का उपयोग नमकीन और मीठे दोनों ही तरह के व्यंजनों में किया जाता है. जापानी खाने में समुद्री झाड़ (सी-वीड) का उपयोग कई तरह से होता है. मोटे छोटे दाने के चिपकू चावल से जो शुशी बनाई जाती है उसमें सारा कमाल इसी का होता है. मिथकीय मत्स्य गंगा की तरह सागर की मछलियों की महक और खारे पानी का स्वाद इसमें रचा-बसा रहता है.
अवध के बावर्ची अपने मसालों की गोपनीयता की रक्षा किसी सामरिक रहस्य से कम सख्ती से नहीं करते थे. मोहम्मद फारूक का परिवार सौ साल से भी अधिक समय से अपने कोरमे और कबाबों के लिये मशहूर है. फारूक भाई ने ही हमारा परिचय जराकूश से कराया. देखने में यह भी एक घास ही है, जिसके सूखे तिनकों का इस्तेमाल किया जाता है. आयुर्वेद के ग्रंथों में इसका उल्लेख ज्वरांकुश के नाम से मिलता है. जैसा नाम स्पष्ट करता है, इसकी तासीर ज्वर हर, ताप हर और तृष्णा निवारक होती है. पश्चिमी खानपान में भी जिन अनेक हर्ब्स (जड़ी-बूटी) का प्रयोग होता है उनमें से अधिकांश घास-फूस ही है – रोजमेरी, ओरिगानो, टेलेगॉन, थाइम आदि. आजकल पित्जा के साथ जो इटैलियन सीजनिंग दी जाती है, उसने इनका परिचय हिंदुस्तानियों से भी करा दिया है. घास-फूस की स्वाद-सुगंध और पौष्टिक तत्वों के बारे में शोध जारी है.
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