Loading election data...

औषधीय गुणों की खान है तिल, जानिए इसके फायदे

मकर संक्रांति न केवल नयी फसल के स्वागत का उत्सव है, बल्कि यह हमारे जायके की विविधताओं का प्रतीक पर्व भी है. जायकों की इस विविधता में आप समाज और परिवार के एकात्मवाद का दर्शन भी देख सकते हैं. बिहार-झारखंड और बंगाल जायकों के साथ सर्वाधिक प्रयोग करनेवाले राज्यों में शामिल रहे हैं.

By Prabhat Khabar News Desk | January 15, 2023 12:15 PM
an image

रविशंकर उपाध्याय

हमारे यहां संक्रांति आते ही चूड़ा हमारी थाली का अहम हिस्सा हो जाता है, बादाम हमें गुड़ में लपेटे हुए मिलते हैं और तिल व मूंगफली इसके साथ हमारे स्वास्थ्य को और बेहतर बनाने में लग जाते हैं. इसी दौरान हमें खाने को तिल-बादाम के लड्डू भी मिलते हैं, तो तिलवा-तिलकुट भी. चूड़ा-दही और तिलकट इसे पूर्णता प्रदान करते हैं. यही वजह है कि इस पर्व का नाम तिल संक्रांति भी है.

उत्तर, पूर्वोत्तर से लेकर मध्य और दक्षिण भारत में नये धान का बना हुआ चूड़ा मनुष्यों द्वारा अनाजों पर किये गये शुरुआती प्रयोगों के साथ इस्तेमाल में अपने विविध प्रयोगों के लिए भी जाना जाता है. बिहार और उससे सटे झारखंड, पश्चिम बंगाल के साथ ही उत्तर प्रदेश और नेपाल में चूड़ा का विविध प्रयोग देखने को मिलता है. खाने का तरीका भी अलग-अलग. दही-चूड़ा, दूध-चूड़ा, मीट-चूड़ा, आम-चूड़ा, गुड़-चूड़ा, सब्जी-चूड़ा, मटर-चूड़ा और भी विविध तरीके से खाने का चलन है. चिउड़ा यानी चूड़ा की इस लोकप्रियता की वजहें भी हैं. पीढ़ियों से यह लोक-परंपरा का हिस्सा रहा है. हमारी नयी फसल का सबसे पहला आहार चूड़ा है. इसका उत्सव हम मकर संक्रांति के रूप में मनाते हैं और दही-चूड़ा इस त्योहार का उत्सवी आहार बनता है.

उत्तर भारत के कई राज्यों में तो दही-चूड़ा नाश्ते का बरसों से हिस्सा रहा है. इसकी खासियत कई सारी हैं. यह आसानी से तैयार होता है. दही-चूड़ा आसानी से हर जगह मिल भी जाते हैं. इसे बनाने का कोई खास झंझट भी नहीं होता है.

औषधीय गुणों की खान है तिल

तिल प्रकृति से तीखी, मधुर, भारी, स्वादिष्ट, स्निग्ध, गर्म तासीर की, कफ तथा पित्त को कम करने वाली, बलदायक, बालों के लिए हितकारी, स्पर्श में शीतल, त्वचा के लिए लाभकारी, दूध को बढ़ाने वाली, घाव भरने में लाभकारी, दांतों को उत्तम करने वाली, मूत्र का प्रवाह कम करने वाली होती है. आयुर्वेद में तिल के जड़, पत्ते, बीज एवं तेल का औषधि के रूप में ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है. तिल तेल का बाहरी प्रयोग इन बीमारियों में करने से लाभ मिलता है. आधुनिक विज्ञान की मानें, तो तिल के बीज में उच्च गुणवत्ता वाले प्रोटीन, विटामिन ए, बी-1, बी-2, कैल्शियम, फॉस्फोरस, आयरन, पोटैशियम पाया जाता है, जो आपको खूब ताकत देता है. तिल के साइड इफेक्ट भी हैं. कुष्ठ, सूजन होने पर और मधुमेह यानी डायबिटीज के रोगियों को भोजन आदि में तिल का प्रयोग नहीं करना चाहिए.

प्रयोग से प्रेरित हैं तिल के व्यंजन

एक और दिलचस्प तथ्य है कि अन्य राज्यों के मुकाबले कम खेती करने के बावजूद बिहार-झारखंड और पश्चिम बंगाल ने तिल पर सर्वाधिक प्रयोग किये हैं. बिहार की धार्मिक नगरी गयाजी यूं तो देश में हिंदू धर्म की सबसे बड़ी तीर्थ स्थली में से एक है, जहां ना केवल पितरों की आत्मा को शांति मिलती है, बल्कि दुनिया भर में भगवान विष्णु के पदचिन्ह भी यहीं मिले हैं. कहते हैं विष्णु यहां गयासुर राक्षस का वध करने पहुंचे थे, उसी वक्त उनके पदचिन्ह उत्कीर्ण हो गये थे. गयासुर के नाम पर ही इस शहर का नाम गया पड़ा जो अब भी बरकरार है. लेकिन गया की पहचान तिल पर सर्वाधिक प्रयोग से जुड़ी हुई है, जो सर्दी में देश में पसंद के लिहाज से बहुत ही खास व्यंजन हो जाता है. तिलकुट, तिलपापड़ी, तिलछड़ी, तिलौरी, तिलवा-मस्का और अनरसा. यह सब तिल के प्रयोग से जुड़े स्वाद हैं.

गया एक तरह से तिल से बने व्यंजनों का पर्याय है, तो उसके ऐतिहासिक कारण भी हैं. महर्षि पाणिनी ने अपनी पुस्तक अष्टाध्यायी में पलल नामक सुस्वादु मिष्ठान्न का जिक्र किया है. उन्होंने लिखा है कि इसमें तिल का चूर्ण, शर्करा या गुड़ मिलाकर बनाया जाता है. प्राचीन मगध में इसका पर्याप्त प्रचार रहा होगा तभी तो आज भी गया के तिलकुट की शान ना केवल देश, बल्कि विदेशों तक है. तिलकुट की कई किस्में होती हैं. मावेदार तिलकुट, खोया तिलकुट, चीनी तिलकुट व गुड़ तिलकुट बाजार में मिलते हैं. हाथ से कूटकर बनाये जाने वाले तिलकुट बेहद खस्ता होते हैं.

उपनिषदों में तिल उपजाने का जिक्र

उपनिषदों में मगध में उपजाई जाने वाली दस फसलों में चावल, गेहूं जौ, तिल, मसूर, कुल्थी आदि दाल की फसलों के उत्पादन का जिक्र है. उत्तर वैदिक काल में भी तिलहन में तिल, रेड़ी और सरसो का जिक्र है. अनाज में जौ, गेहूं, ज्वार, चना, मूंग, मटर, मसूर, कुल्थी का. तिल शब्द का संस्कृत में व्यापक प्रयोग है. कहते हैं कि यह पहला बीज है, जिससे तेल निकाला गया, इससे ही इसका नाम तैल पड़ा. तैल यानी तिल से निकाला हुआ. हिंदी में यही तेल हो गया. तिल का इतना महत्व है कि पूरे तिलहन का नाम इस पर पड़ गया. अथर्ववेद में तिल के दैनिक के साथ आध्यात्मिक प्रयोग का वर्णन मिलता है. तिल हवन में प्रयोग में आता है, तो तर्पण में भी. मकर संक्रांति में तिल का दान करने की परंपरा इसी वजह से रही है, ताकि सभी धार्मिक रीतियों में भी तिल की महत्ता से परिचित हों. भारतवर्ष में तिल की प्रचुर मात्रा में खेती की जाती है. तिल (बीज) एवं तिल का तेल भारतवर्ष के प्रसिद्ध व्यावसायिक द्रव्य है. भारत में तिल की कुल तेल में हिस्सेदारी 40 से 50 फीसदी है. गुजरात, राजस्थान, एमपी, यूपी और पंजाब ऐसे राज्य हैं, जहां इसकी सर्वाधिक खेती होती है. भारत जितना तेल निर्यात करता है, उसमें सर्वाधिक हिस्सेदारी तिल की होती है.

Also Read: Makar Sankranti 2023: ‘खिचड़ी के चार यार- दही, पापड़, घी और अचार’, मकर संक्रांति पर इसे बनाने की है खास वजह
बालकांड में दही-चूड़ा का सुंदर प्रसंग

दही-चूड़ा का पारंपरिक स्वाद सोलहवीं शताब्दी में लिखित श्री रामचरितमानस में भी उल्लेखित है. गोस्वामी तुलसीदास रामचरितमानस में लिखते हैं कि जब श्रीराम की बारात मिथिला में आयी, तो राजा जनक ने चवर्य, चोष्य, लेह्य और पेय यानी चबाकर, चूसकर, चाटकर और पीकर खाने योग्य भोजन भी इसके साथ दिये थे. बालकांड में दही-चूड़ा का जिक्र करते हुए तुलसीदास लिखते हैं- ‘मंगल सगुन सुगंध सुहाये, बहुत भांति महिपाल पठाये, दधि चिउरा उपहार अपारा, भरि-भरि कांवरि चले कहारा.’ बालकांड में राम-विवाह का यह वह प्रसंग है जब राम की बारात अयोध्या से चलती है, तो राजा जनक रास्ते में बारातियों के लिए कई जगह ठिकाने बनवाते हैं, जहां तरह-तरह के खानपान का प्रबंध होता है.

Disclaimer: हमारी खबरें जनसामान्य के लिए हितकारी हैं. लेकिन दवा या किसी मेडिकल सलाह को डॉक्टर से परामर्श के बाद ही लें.

Exit mobile version