तला खाने की तलब इतनी बुरी नहीं
वर्षा ऋतु में पानी गंदलाने लगता है और उदर रोग फैलते हैं. जिस खौलते तेल-घी में व्यंजन तले जाते हैं, उसका तापमान उबलते पानी से अधिक होता है और वह रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणुओं को नष्ट कर देता है.
आजकल नौजवान पीढ़ी ही नहीं अधेड़ भी, अपनी सेहत के बारे में इतने फिक्रमंद हो गये हैं कि उन्होंने तले व्यंजनों को अपने खानपान से बाहर निकाल फेंका है. डाक्टरों और पोषण वैज्ञानिकों ने उनके मन में यह भय पैदा कर दिया है कि तला खाना ही इन सारी बीमारियों की जड़ है – हृदय रोग, रक्तचाप, मधुमेह और दर्दनाक मोटापा. इस बात को लोग बहुत आसानी से भूल जाते हैं कि थोड़ी मात्रा में वसा- तेल, घी और चर्बी- हमें स्वस्थ रखने के लिये बेहद जरूरी है. संतुलित आहार पर ही स्वास्थ्य की पक्की नींव रखी जा सकती है. यह तमाम बातें हमारे मन में अचानक घुमड़ने लगती हैं जब आसमान में काले-काले बादल उमड़-घुमड़ कर गरजने लगते हैं, और जब बिजली चमकने- कड़कने के बाद मूसलाधार बारिश शुरू हो जाती है, तब जी मचलने लगता है तला हुआ कुछ खाने के लिये.
भोजन वैज्ञानिकों का मानना है कि तले जायके की तलब के वैज्ञानिक कारण हैं. वर्षा ऋतु में पानी गंदलाने लगता है और उदर रोग फैलते हैं. जिस खौलते तेल-घी में व्यंजन तले जाते हैं, उसका तापमान उबलते पानी से अधिक होता है और वह रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणुओं को नष्ट कर देता है. अर्थात् अगर आप सीमित मात्रा में पकौड़े, समोसे, कचौड़ी या जलेबी का सुख भोगते हैं, तो आपको धमनियों के कोलेस्टरोल से अवरुद्ध होने के वहम से आतंकित नहीं होना चाहिए. उत्तर भारत में तले जायके से अभिप्राय है पकौड़े, समोसे और भजिया से, तो वहीं देश के समुद्री तटवर्ती इलाके उड़ीसा से लेकर बंगाल तक, तरह-तरह के भाजे, तले जायकों की नुमाइश कराते हैं.
बंगाल और उड़ीसा में बेगून भाजा और आलू भाजा सबसे अधिक लोकप्रिय है. इन इलाकों में पोखर और नदी की मछली भी सुलभ होती है और माछ का भाजा भी चाव से खाया जाता है. बंगाल और उड़ीसा में ही नहीं इनसे जुड़े बिहार-झारखंड और छत्तीसगढ़ वाले इलाकों में भी छोटी या बड़ी तली मछली खाने का स्वाद बदलती और बढ़ाती है. मानसून में समुद्री तूफान के डर से मछुआरे अपनी नौकाएं ज्यादा दूर नहीं ले जाते. मछलियां पकड़ना बंद कर देते हैं और ऐसे में सूखी मछलियां इस्तेमाल की जाती हैं. गोवा, कर्नाटक और केरल में भी तली मछली को तरह-तरह से जायकेदार बनाया जाता है. कर्नाटक की रवा पर बेसन नहीं, सूजी को लपेट कर तला जाता है. वहीं केरल में कारीमीन को लाल मिर्च, लहसुन और कद्दूकस किये नारियल में अच्छी तरह लपेटकर गहरा तला जाता है.
यहीं नाजुक झींगों को सिर्फ काली मिर्च के साथ मक्खन में नाम मात्र के लिये तला जाता है. यह जरूरी नहीं कि आप तले के जायके का आनंद पकौड़ों या भाजा के रूप में ही ले सकते हैं. सबसे किफायती और मजेदार तो तले पापड़ और कचरियों का स्वाद होता है जिन्हें आप दाल-चावल, रोटी-सब्जी अपनी मन पसंद किसी भी चीज के साथ खा सकते हैं, बहुत थोड़ी मात्रा में और तले का सुख भोग सकते हैं. प्रयोगशाला में कार्यरत वैज्ञानिकों ने इस बात को भी प्रमाणित किया है कि तेल या घी में एक खासियत यह होती है कि उसके संपर्क में कुछ-कुछ घुलनशील और वाष्पीकृत होने वाले तत्व भोजन को अधिक जायकेदार बना देते हैं. यदि इन्हें सिर्फ उबाला जाये तो इनका असली रस हम नहीं ले सकते. आजकल भले ही तले की जगह भुने को तरजीह दी जाती है या फिर सेंकने को. मगर हमारी समझ में तले जायके हमारा साथ कभी नहीं छोड़ेंगे.
Disclaimer: हमारी खबरें जनसामान्य के लिए हितकारी हैं. लेकिन दवा या किसी मेडिकल सलाह को डॉक्टर से परामर्श के बाद ही लें.