अंग्रेजी की मशहूर कहावत है ‘नयी बोतलों में पुरानी शराब!’ इसने हमें यह बात अचानक याद दिला दी ‘गरमाओ और खाओ’ प्रणाली के उन पैकेट बंद व्यंजनों ने जिन्हें अनेक देशी-विदेशी कंपनियों ने बाजार में उतारा है. गुजरे जमाने में मनपसंद स्वाद का सुख भोगने के लिए टिन में संरक्षित सामिष तथा निरामिष खाद्य पदार्थ मिलते थे. यह टेक्नोलॉजी आज प्रागैतिहासिक लगती है. नमकीन पानी या तेल में खाना अपना स्वाद बदल देता था और इसलिए टिन का पात्र मक्खन, चीज, सार्डीन मछलियों या बेतहाशा महंगी कावियार के लिए ही आज इस्तेमाल किया जाता है.
फ्रूट सलाद या अनानास भी आज इसके मोहताज नहीं. टेट्रापैक ने दशकों पहले यह संभव बना दिया था कि बिना रेफ्रिजरेटर या डील फ्रीजर के महीनों हम दूध, फलों के रस आदि को कैसे टिकाऊ बना सकते हैं. तकनीक की प्रगति का अगला चरण है रिटॉर्ट पैकिंग वाला. पका पकाया खाना विशेष संरक्षण प्रक्रिया के बाद खाते वक्त जरा-सा गर्म कर खाया जा सकता है. न तो रासायनिक संरक्षकों की दरकार होती है न कृत्रिम अतिरिक्त जायकों की. पैकेजिंग क्रांति के बाद जब जी चाहे सरसों के साग से लेकर, मखनी दाल, बटर चिकन, शाही पनीर, सांबर आदि को आप जब चाहें खा खिला सकते हैं.
यूरोप तथा अमेरिका में आमतौर पर एक ही व्यंजन पूरा खाना होता है, जिसे संतुलित तथा स्वादिष्ट मान लिया जाता है. माइक्रोवेव में गरमा कर टीवी देखते खाने का काम पूरा हो जाता है. इसलिए इस तरह के भोजन को ‘टीवी डिनर’ का नाम दिया गया. पश्चिमी औद्योगिक समाज में ताजा खाना बनाने का झंझट कोई नहीं पालता, इसलिए हैमबर्गर, हॉटडॉग, पिज्जा-पास्ता, फ्राइड चिकन, फिश, सैंडविच आदि का बाजार गर्म रहा है. भारत में खाने की थाली में चाहे रोटी को प्रधानता दें या चावल को, सूखी सब्जी, भाजा- तरीवाली तरकारी के बिना अधूरी ही लगती है. इसी कारण ‘गरमाओ और खाओ’ की प्रथा यहां पैर नहीं पसार पायी है. बड़ी कंपनियों ने क्षेत्रीय जायकों की अहमियत समझते हुए खिचड़ी, बिरयानी, दाल, पनीर की अनेक किस्मों, आलू-छोले के साथ साथ गोवा के विंडालू पंजाबी बटर चिकन का भी सहारा लिया है. यहीं से असली दिक्कत पेश आती है.
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हाल के वर्षों में निश्चय ही एक अखिल भारतीय स्वाद लोकप्रिय हुआ है. दक्षिण भारत तंदूरी मसाले तथा पनीर से अपरिचित नहीं रहा, तो उत्तर भारतीयों ने इडली, वडा, डोसा, इमली करी पत्ते को अपना लिया है. मगर अधिकांश ग्राहक इन व्यंजनों को तेज मसालों के साथ गरमागरम आंख के सामने ताजा तैयार किया खाना पसंद करते हैं. इन नयी बोतलों में पुरानी शराब फीकी लगती है. देशी-विदेशी-प्रवासी भारतीयों को समान रूप से आकर्षित करने के लिए रेसिपी को यथासंभव संतुलित किया जाता है.
खाने वाले को लेबल पर छपे नाम और खाद्य पदार्थ में दूर का ही रिश्ता नजर आता है. मुंह का जायका बदलने के लिए एक बार तो पारंपरिक पुराने जायकों को नये कलेवर में आजमाया जा सकता है, पर दूसरी बार नहीं. यही कारण है कि आलू की टिक्की, गोलगप्पे, समोसे, पिंडी चाट खोमचे रेहड़ी पर मात खाते रहे हैं. हिंदुस्तान के परिचित पारंपरिक व्यंजनों में जान डालते हैं- तड़का, छौंक, बघार. यह मजा पैकेट में कैद खाने में कहां? हमें लगता है स्वाद की दुनिया में उस मुहावरे को शीर्षासन कराने की जरूरत है. नयी शराब ही नयी बोतलों में जलवा दिखला सकती है. पुराने जायके नयी पीढ़ी के मुंह आसानी से नहीं लगने वाले!
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