जायका: सर्दियों में बदलने लगता है खाने का स्वाद, घरों में बनती हैं तरह तरह की रोटियां
दक्खन के पठार में सबसे अधिक प्रतिष्ठित रोटी ज्वार की रोटी है. कभी यह भी मड़ुवे या रागी की तरह गरीबों की खुराक समझी जाती थी, पर आज ज्वार का आटा गेहूं के आटे से अधिक महंगा बिकता है.
पुष्पेश पंत
जाड़े की सुगबुगाहट के साथ ही घर में खाने के जायके बदलने लगते हैं. अगर कोई अंग्रेजीयत परस्त हो, तो खाने के पहले सूप या शोरबे नजर आने लगते हैं. कुछ मौसमी व्यंजनों ने अपनी इतनी जबरदस्त पहचान बना ली है कि उनके बिना जाड़े का मौसम अधूरा सा लगता है. इन्हीं में एक जोड़ी मक्के की रोटी और सरसों के साग की है, जो पंजाब में बेहद लोकप्रिय है. जितनी कलाकारी सरसों, पालक, बथुवा और मूली के पत्तों के साग को हाथ से मथ कर बनाने की दरकार है, उससे कम मक्के की रोटी के लिए जरूरी नहीं. मक्के की आटे की मिठास जीभ में तभी अच्छी तरह घुलती है, जब इन रोटियों को हथेलियों के बीच थपथपाकर बनाया जाता है. बेलन का प्रयोग कोई भी कुशल गृहणी नहीं करती.
हमारे बचपन के दिनों में उत्तराखंड के पहाड़ी गांव में मड़ुवे की रोटी को पकाने का पारंपरिक तरीका भी यही था. मड़ुआ गरीबों का आहार समझा जाता था क्योंकि यह ऐसा मोटा अनाज था जो बंजर जमीन में उग जाता था. मगर इसके बारे में भी मिठास शब्द का प्रयोग किया जाता था. इसका जायका गेहूं की रोटी की तुलना में अधिक मीठा महसूस होता था. जाड़े के मौसम में यह संपन्न परिवारों की थाली में भी प्रवेश कर लेता था. मड़ुवे की तासीर गरम समझी जाती है और इसका लाभ उठाने के लिए इसका खुरदरापन दूर करने के लिए इसमें गेहूं के आटे का जरा सा पुट भी दिया जाता था. गेहूं और मड़ुवे के मिले-जुले आटे से बनी रोटी लेसुवा कहलाती थी. तीसरी रोटी, जो जाड़ों में बहुत सुहाती है, बेड़वी रोटी है. इसमें मास के दाल की मसालेदार पीठी भरी रहती है. इसे मड़ुवे या गेहूं के आटे के रूप में पेश किया जा सकता है. दिल्ली में या उत्तरी भारत के कुछ और राज्यों में जो बेड़वी पूड़ी-कचौड़ी की बहन के रूप में प्रकट होती है, वह बेड़वी रोटी का ही परिष्कृत विकल्प है.
दक्खन के पठार में सबसे अधिक प्रतिष्ठित रोटी ज्वार की रोटी है. कभी यह भी मड़ुवे या रागी की तरह गरीबों की खुराक समझी जाती थी, पर आज ज्वार का आटा गेहूं के आटे से अधिक महंगा बिकता है. इस रोटी का आटा तैयार करते वक्त इस बात का भी ध्यान रखना पड़ता है कि आप ठंडे पानी का इस्तेमाल कर रहे है या गरम पानी का. हमें यह ज्ञान दान हमारे पत्रकार मित्र नागपुर में जन्मे फिलहाल दिल्ली निवासी अशोक वानखेड़े ने दिया. वास्तव में इससे रोटी के जायके में फर्क पड़ता है. महाराष्ट्रीय ग्रामीण अंचल में ज्वार की रोटी भाखरी भी कहलाती है.
दक्षिण भारत में चावल के आटे की रोटी बनायी जाती है, जो तमिलनाडु में पथीरी और कर्नाटक तथा गोवा में गस्सी कहलाती है, जिसकी जुगलबंदी चिकन करी या तरकारी के साथ सधती है. गुजरात और राजस्थान में बाजरा सदा बहार है, पर जाड़ों में इस मोटे अनाज की तरफ उन लोगों का ध्यान भी खींचने लगता है, जो आमतौर पर इसकी तरफ नहीं देखते. कश्मीर में तरह-तरह की रोटियां पकायी जाती है, जिनमें चावल के आटे के घोल से पकायी जाने वाली चुरचट उत्तराखंड की छोलिया रोटी की बहन लगती है. कश्मीर, अवध, दिल्ली, भोपाल और हैदराबाद में अनेक जायकेदार रोटियां और भी है- शीरमाल, बाकरखानी, रोगनी, ताफतान वगैरह. मगर यह रोटी कम, केकनुमा ज्यादा लगती है. अत: इनके जायकों के बारे में फिर कभी.
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