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सुविधा और स्वाद के लिए बासी खाने का चलन

ओडिशा, बंगाल और असम के कुछ हिस्सों में पका भात खाने का रिवाज है. रात के बने भात को पानी में डुबो कर रखा जाता है ताकि अगले दिन सुबह उसमें हल्का सा खमीर उठ जाए. इसे बासी या त्याज्य नहीं समझा जाता, बल्कि गर्मियों या बारिश के मौसम में सुपाच्य और सेहत के लिये बेहद फायदेमंद समझा जाता है.

आमतौर पर यह माना जाता है कि ताजा पका भोजन ही सर्वश्रेष्ठ होता है. यह मान्यता गलत भी नहीं. ना केवल ताजा पके व्यंजन, बल्कि ताजा खाद्य पदार्थों का उपयोग भी- फल, सब्जियां, दूध आदि पुराने रखे हुए खाने के सामान से बेहतर समझे जाते हैं. अभी हाल तक जब तक रेफ्रिजरेटर विलासिता का उपकरण समझा जाता था और घर-घर नहीं पहुंचा था, तब तक घरों में ताजा खाना ही पकाया और खाया जाता था. भारत जैसे देश में जहां अधिकतर भू-भाग में तेज गर्मी पड़ती है, उमस रहती है, बचा-खुचा खाना अर्थात बासी खाना विषाणुओं को पनपने का मौका देता है और इसी कारण जानलेवा संकट पैदा करने वाला समझा जाता रहा है. बासी खाना खाने को वही बेचारे मजबूर थे, जिनके लिये या तो दो बार खाना पकाने के लिये साधन जुटाना कठिन था या जो दूसरों से दिये भिक्षान्न पर ही निर्वाह करते थे. ऐसे में यह बात अटपटी लग सकती है कि आखिर बासी खाने का जायका किसको ललचा सकता है?

यह बात भुलाई नहीं जानी चाहिए कि जिसे पक्की रसोई कहा जाता है अर्थात गहरे तले पकवान- पूड़ी, कचौड़ी, पराठे आदि कहीं अधिक टिकाऊ होते हैं, और इन्हें कम स्वादिष्ट नहीं समझा जाता. इन्हें बासी करार देकर खारिज करने वाले बहुत कम लोग हैं. खानपान की विशेषज्ञ और लेखिका गुंजन गोयला ने हाल ही में दिल्ली के बनियों पर एक बहुत रोचक पुस्तक प्रकाशित करायी है. जिसमें उन्होंने इस बात को रेखांकित किया है कि संपन्न वैश्य परिवारों में बासी पराठों का नाश्ता आम था. यह बचे-खुचे पराठे नहीं होते थे, बल्कि खासकर अगली सुबह नाश्ते पर परोसने के लिये रात से ही बना कर रख लिये जाते थे. इसी तरह जो देहाती किसान तड़के उठकर खेतों पर काम करने के लिए निकल जाते थे, उनके लिये सवेरे-सवेरे ताजी रोटियां बनाना असंभव ही था. रात की बची अर्थात बासी रोटियां ही साथ देती थीं. ‘उसकी रोटी’ नामक प्रसिद्ध हिंदी फिल्म में इसी चलन की झलक मिलती है. पंजाब में यह मान्यता रही है कि यदि पहले दिन बने राजमा को अगले दिन खाया-खिलाया जाए, तो उनमें मसाला अच्छी तरह रस-बस जाता है. यही रहस्य है रस्से-मिस्से राजमा का.

गोवा में यह परंपरा है कि विंडालू और सारपोटेल जैसे सामिष व्यंजनों को किसी बड़े सामूहिक भोज के अवसर पर एक-दो दिन पहले ही पका कर अलग रख दिया जाता है ताकि उसमें तमाम स्वाद अच्छी तरह रच जाये. दिल्ली में निहारी बनाने वालों का यह दावा है कि वह निहारी के तार (स्वादिष्ट रोगन) वाले हिस्से को बचा कर रखते हैं और हर बार ‘ताजा’ निहारी बनाते वक्त उसमें मिला देते हैं. कुछ लोग तो कहते हैं कि जिस जायकेदार तार का इस्तेमाल वह करते हैं, वह पहले-पहल सौ साल किसी निहारी में काम आया था. ओडिशा में तथा बंगाल और असम के कुछ हिस्सों में पका भात खाने का रिवाज है. रात के बने भात को पानी में डुबो कर रखा जाता है ताकि अगले दिन सुबह उसमें हल्का सा खमीर उठ जाए. इसे बासी या त्याज्य नहीं समझा जाता, बल्कि गर्मियों या बारिश के मौसम में सुपाच्य और सेहत के लिये बेहद फायदेमंद समझा जाता है. इसे अचार की एक फांक, चुटकी भर नमक, हरी मिर्च, और सुलभ हो तो किसी भी भाजे के साथ मजे से खाया जाता है. बंगाल में ही वर्षा ऋतु के आरंभ में अरांधन नामक पर्व संपन्न होता है, इस दिन रसोई की सफाई, लिपाई, पुताई के बात जो कुछ पकाया जाता है, उसे ताजा नहीं खाया जाता, बल्कि एक दिन बाद बासी ही खाया जाता है. इसका कारण इस बात की जांच करना है कि घर की रसोई में बना खाना कितना साफ-सुथरा और निरापद है, जिसमें इस मौसम के उदर रोग उत्पन्न करने वाले विषाणु नहीं पनप सकते हैं.

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