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छोटे बच्चों में बढ़ रहे हैं टाइप-1 डायबिटीज के मामले

जीवनशैली आधारित टाइप-2 डायबिटीज के साथ-साथ छोटे बच्चों में टाइप-1 डायबिटीज के मामले भी तेजी से बढ़े हैं. द इंटरनेशनल डायबिटीज फेडरेशन की रिपोर्ट के अनुसार, दुनियाभर में डायबिटीज से ग्रस्त लोगों में से 5 से 10 प्रतिशत लोग टाइप-1 डायबिटीज से ग्रसित हैं.

बीते दो दशकों में दुनियाभर में मधुमेह के मामलों में तेजी से बढ़ोतरी हुई है. जीवनशैली आधारित टाइप-2 डायबिटीज के साथ-साथ छोटे बच्चों में टाइप-1 डायबिटीज के मामले भी तेजी से बढ़े हैं. द इंटरनेशनल डायबिटीज फेडरेशन की रिपोर्ट के अनुसार, दुनियाभर में डायबिटीज से ग्रस्त लोगों में से 5 से 10 प्रतिशत लोग टाइप-1 डायबिटीज से ग्रसित हैं.

टाइप-1 डायबिटीज या टी1डी एक जानलेवा मल्टी फैक्टोरियल ऑटोइम्यून डिसऑर्डर है, जिसमें पैंक्रियाज की बीटा कोशिकाओं में मौजूद टी-सेल नष्ट हो जाते हैं. इस कारण इंसुलिन का निर्माण और स्राव नहीं हो पाता है. इससे रक्त में शर्करा की मात्रा बढ़ जाती है. विविध शोध के अनुसार, पिछले 25 वर्षों में टी1डी के मामलों की तेजी से बढ़ोतरी हुई है. टी1डी एक आनुवंशिक समस्या है. इसके शिकार लोगों को गंभीर दीर्घकालिक जटिलताएं, जैसे कि हृदय संबंधी बीमारियां, किडनी संबंधी तकलीफ, स्ट्रोक तथा कमजोर नजर आदि से बचने के लिए इसके बेहतर प्रबंधन की जरूरत होती है. चूंकि, इसके शिकार मूलत: छोटी उम्र के बच्चे होते हैं, ऐसे में इसका प्रबंधन करना बेहद चुनौतीपूर्ण हो जाता है.

भिन्न हो सकते हैं लक्षण

इस दिशा में अब तक हुए विभिन्न शोध व अनुसंधानों के आधार पर यह पता चलता है कि टी1डी के मामले में समान आनुवंशिक पृष्ठभूमि होने के बावजूद इस बीमारी से प्रभावित लोगों में इसके लक्षण अलग-अलग समय में अलग-अलग तरीके से उभरते हैं. यही नहीं उनकी उत्पत्ति के कारण व उनकी गंभीरता के स्तर में भी भिन्नता होती है.

इंसुलिन पर होती है निर्भरता

टाइप-1 डायबिटीज का मूल कारण हमारे शरीर में अग्नाशय द्वारा स्वत: रूप से इंसुलिन का स्राव करनेवाले बीटा कोशिकाओं की अनुपस्थिति या उनकी धीमी कार्यप्रणाली है. आनुवंशिकी तथा पर्यावरणीय कारक इस बीमारी की उत्पति में अहम भूमिका निभाते हैं, खासतौर से बाल्यावस्था में. वर्ष 1921 में इंसुलिन की खोज से पूर्व टी1डी के ज्यादातर मरीज इस बीमारी से ग्रस्त होने के बाद अधिक-से-अधिक एक या दो वर्ष ही जीवित रह पाते थे. वर्तमान में टी1डी मरीजों की बहुसंख्यक आबादी पूरी तरह से इंसुलिन पर निर्भर है. इसके अलावा कोशिका प्रत्यारोपण, आनुवंशिक सुधार तथा स्टेम सेल चिकित्सा के क्षेत्र में भी फिलहाल शोध जारी है.

बेहतर इलाज है संभव

कई बार कुछ मरीजों में लंबे समय तक इस बीमारी के लक्षण नहीं उभरते, जिसकी वजह से चिकित्सकों को ऐसे लोगों की पहचान करने, उनका इलाज करने अथवा बीमारी की अवधि को कम करने में परेशानी होती है. अगर समय रहते यह पता चल जाये, तो काफी हद तक इसका बेहतर इलाज संभव है.

टाइप-1 डायबिटीज के लक्षण अमूमन जन्म के शुरुआती 5-6 वर्षों में ही स्पष्ट हो जाते हैं. अब तक इसका कोई स्पष्ट कारण हमें ज्ञात नहीं है, लेकिन इंसुलिन के डोज सहित एक व्यवस्थित और अनुशासित जीवनचर्या अपनाकर व्यक्ति सामान्य जीवन जी सकता है. एक सामान्य बच्चे की तरह ही पढ़ाई ओर खेलकूद भी कर सकता है. हालांकि, बच्चों के मामले में यह थोड़ा मुश्किल होता है, किंतु उसकी बेहतरी के लिए फिलहाल यही एक उपाय है.

जेस्टेशनल यानी जन्मजात डायबिटीज (टाइप-1) की एक बड़ी वजह लेट मैरिज भी हो सकता है. हालांकि, अब तक इस दिशा में शोध जारी है, लेकिन यह प्रमाणित तथ्य है कि लेट कंसीविंग वाले कई बच्चों में क्रोमोजोमल एब्नॉर्मिलिटी मामले तुलनात्मक रूप से अधिक देखने को मिलते हैं. लेट कंसीविंग की वजह से बच्चों में हाइपरटेंशन, कार्डियोवैस्कुलर डिजीज तथा मेंटल एबनॉर्मैलिटी का खतरा भी बढ़ जाता है.

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