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ओलचिकी लिपि : संताल समुदाय का होड़-रोड़

संताल समुदाय इसे ‘होड़ रोड़ ‘ कहके बुलाते हैं यानी कि होड़ लोगो की वाणी. हंटर कमीशन ने जब संथाली भाषा को रोमन लिपि में पढ़ने की बात कही तो इसका व्यापक विरोध हुआ. 1941 से संथाली देवनागरी लिपि में पढ़ाया जाने लगा.

दीपक ठाकुर, शोध छात्र, कोयलांचल विश्वविद्यालय: वें संविधान संशोधन, 2003 के अंतर्गत संथाली को संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल किया गया है. ओलचिकी इसकी लिपि है जिसे पंडित रघुनाथ मुर्मू ने 1941 में तैयार किया. ओलचिकी में कुल 31 वर्ण है. यह संताल और मोहली समुदाय की मुख्य भाषा है. संताल समुदाय इसे ‘होड़ रोड़ ‘ कहके बुलाते हैं यानी कि होड़ लोगो की वाणी.

संस्कृति और साहित्य का संबंध अन्योन्याश्रित है. इसमें से कोई भी विलगित एकांगी विकास की ओर उन्मुख नहीं हो सकता. संथालों की संस्कृति हमारी सामाजिकता की मूल अवधारणाओं की निर्मिति है, अत: संथाली संस्कृति को व्यक्त करने के लिए अपनी भाषा की जरूरत थी. 92वें संविधान संशोधन, 2003 के अंतर्गत संथाली को संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल किया गया है. ओलचिकी इसकी लिपि है जिसे पंडित रघुनाथ मुर्मू ने 1941 में तैयार किया. ओलचिकी में कुल 31 वर्ण है. यह संताल और मोहली समुदाय की मुख्य भाषा है. संताल समुदाय इसे ‘होड़ रोड़ ‘ कहके बुलाते हैं यानी कि होड़ लोगो की वाणी.

हंटर कमीशन ने जब संथाली भाषा को रोमन लिपि में पढ़ने की बात कही तो इसका व्यापक विरोध हुआ. 1941 से संथाली देवनागरी लिपि में पढ़ाया जाने लगा. इसके शुरुआती रचनाओं की बात करें तो मुख्य रूप से ‘एन इंट्रोडक्शन टू द संताल लैंग्वेज’ , ‘ए वोकेबलरी ऑफ संताल लैंग्वेज’, सिंथालिया एंड द संथाल्स , ए ग्रामर ऑफ द संताल लैंग्वेज, होडको रने मारे हांपडाम को रेयाक कथा जैसी रचनाओं का जिक्र आता है. रेयाक कथा मिशनरियों द्वारा तैयार किया गया था. जिसे केराप साहब ने कल्याण नामक एक संथाल से सुनकर लिखा था. इस पुस्तक में संथालों की परंपरागत सृष्टि कथा, मानव के जन्म की कथा, चाय – चंपा की समृद्धि की कथा तथा वहां से पलायन की कथा लिपिबद्ध की गयी है. डोमन साहू समीर, केवल सोरेन, शारदा प्रसाद किस्कू ,पाल जुझार सोरेन , ठाकुर प्रसाद मुर्मू जैसे कई नाम आते है जो इस समृद्ध परंपरा के विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.

“हाड़मवाक आतो” अर्थात हाड़मा का गांव को संथाली भाषा का पहला उपन्यास माना जाता है. इसका प्रकाशन 1946 में रोमन लिपि में हुआ था. इसके लेखक आर कास्टेयर्स थे. कास्टेयर्स स्नेही ने ही दुमका के हिजला मेला की नींव रखी थी. इसे एक ऐतिहासिक उपन्यास माना जाता है क्योंकि इसमें संतालो के विद्रोह की एवं उनके सशस्त्र क्रांति की कथा है. इस कड़ी में मुहीला चेचेत दाई , कुकमू , बसमुंडा आदि रचनाएं उल्लेखनीय है. संथाली साहित्य के विकास में “होड़ संवाद” और “संथाल पहाड़िया सेवा मंडल” का योगदान उल्लेखनीय है.

डोमन साहू समीर जिस तरह संथाली साहित्य के भारतेन्दु है उसी तरह होड़ संवाद ने सरस्वती पत्रिका की भूमिका निभाई. आज के लेखकों में यदि प्रमुख रूप से कुछ नाम लिया जाय तो उसमें निर्मला पुतुल, हांसदा शोभेन्द्र शेखर जैसे नाम प्रमुखता से उभर कर आता है .

अर्थात आपने घर और द्वार परिवार से इतर दूसरा व्यक्ति दिखेगा नहीं, अपने को ही देखना पड़ेगा. यहां पर भी अपनी मातृभाषा में लेखन खुद को ही करना पड़ेगा, इसके लिए दूसरा कोई आयेगा नहीं. दरअसल किसी भी भाषा के विकास के लिए एक पक्ष जिसका मजबूत होना काफी जरूरी है वो है आर्थिक पक्ष . जिस भारत में आज तक हिंदी को ही आर्थिक पक्ष का माध्यम बनाने में सफलता हासिल नही हुई है वहां संथाली जैसी भाषाओं को शीर्ष तक पहुंचाने की यात्रा काफी लंबी है. संथाली साहित्य को समृध्दि की ओर ले जाने के लिए संपूर्ण वाचिक परंपरा का जहां पूर्णत: लिपिबद्ध होना आवश्यक है. वहीं अनुदित साहित्य का प्रचलन भी किसी भाषा के साहित्य को समृध्द करने में महत्तवपूर्ण भूमिका निभाती है.

इस मामले में सत्ताओं की उपेक्षा दृष्टि का रेखांकन भी जरूरी हो जाता है . झारखंड साहित्य अकादमी के गठन की गुंजाइश और उसपर अब तक की उत्तरोत्तर उपेक्षापूर्ण दृष्टि स्थानीय भाषाओं और उनके साहित्य के विकास के प्रति सरकारी रवैये को भी व्यक्त करता है . जरूरत है हर पक्ष अपनी जिम्मेदारी को समझे जहां सत्ता को ये समझने की जरूरत है कि उसके राजनीति से प्रेरित मनसूबे इतिहास गढ़ने की प्रक्रिया में अवरोधक बन रहे हैं वही संथाली भाषा में काम कर रहे रचनाकारों को भी बड़ी जिम्मेदारी उठाते हुए उन महत्त्वपूर्ण विषयों पर काम करना पड़ेगा जो कि किसी भी भाषा को स्थाई संपन्नता प्रदान करती है. संथाली साहित्य में वर्तमान समय में जिस तरह का काम हो रहा है उससे इसके हाल के वर्षों में और उन्नति की आशा बंधती है. सेनगे सुसुन काजिगे दुरंग की जो व्याख्या है, उसके पीछे निश्चित ही उसकी समृध्द विरासत का ही आधार है; और जरूरत है इस आधार को उपजीव्य बनाकर अनंत धाराओं के निर्माण का. दरअसल यही किसी भाषा और साहित्य को ऊर्ध्वाधर दिशा में ले जाता है.

निर्मला पुतुल जहां नगाड़े की तरह बजते ढोल, अपने घर की तलाश में, ओनोंड़हें जैसी रचनाओं से संथाली समाज व संस्कृति को पंक्तिबद्ध कर रही हैं वहीं हांसदा शोभेंद्र शेखर ने ‘मिस्टरीअस एलमेंट ऑफ रूपी बास्के’ से बहुत यश कमाया . इसके अलावा रामचंद्र मुर्मू द्वारा रचित जीवनी , गुरु गोमके पंडित रघुनाथ मुर्मू , खेरवाल सोरेन द्वारा रचित नाटक चेत रे चिकायेना, बादल हेंब्रम द्वारा रचित कहानी संग्रह मानमि, दयमंती बेसरा द्वारा रचित कहानी संग्रह शाय साहेंद, भोगला सोरेन द्वारा रचित नाटक राही खांक काना, रानी मुर्मू द्वारा रचित कहानी संग्रह “ हापोन मायक कुकमु, गुहीराम किस्कू का जरपी दिसोमरीन मानमी आदि उल्लेखनीय है .

पंडित रघुनाथ मुर्मू ने लिखा है

1. आमाग ओड़ाग लागिद

2. आमाग दुवार लागिद

3. जांहाय दो बाय नेला

4. आमगेम नेला

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