बाजारवाद के इस दौर में शिक्षा का भी व्यवसायीकरण हुआ है. ऐसे में वे शिष्य भाग्यशाली हैं, जिन्हें सच्चे अर्थों में गुरु मिलते हैं. एक सच्चा शिक्षक बनना आसान नहीं है. खूंटी जिले के अड़की प्रखंड की बाड़ी निजकेल पंचायत के हाड़म सेरेंग गांव के टोला बेड़ाडीह स्थित उत्क्रमित प्राथमिक विद्यालय के दो शिक्षक अपने स्कूल के बच्चों को पढ़ाने के लिए रोजाना जितनी मेहनत करते हैं, वह शिक्षकों की कर्तव्य निष्ठा पर उठनेवाले सवालों का माकूल जवाब है.
चंदन कुमार, खूंटी :
हाड़म सेरेंग गांव तराई में स्थित है. यहां तक पहुंचने के लिए न तो कोई पक्की सड़क है, न पगडंडी. गांव के बेड़ाडीह में उत्क्रमित प्राथमिक विद्यालय स्थित है. स्कूल के प्रधानाध्यापक जोहन मुंडू हैं, जबकि सहायक शिक्षिका जौनी पूर्ति हैं. स्कूल तक पहुंचने के लिए दोनों शिक्षकों को रोजाना करीब डेढ़ किमी पहाड़ की ढलान से नीचे उतरना पड़ता है.
स्कूल बंद होने के बाद इसी रास्ते से पहाड़ पर चढ़ कर दोनों घर लौटते हैं. गर्मी हो या बरसात, स्कूल का कोई भी सामान शिक्षक अपने कंधे पर लेकर पहाड़ पर चढ़ते और उतरते हैं. प्रधानाध्यापक जोहन मुंडू ने बताया कि वे रोजाना अपने गांव हूंठ से हड़ाम सेरेंग तक किसी तरह वाहन से पहुंचते हैं. वहां वाहन को छोड़ पहाड़ के नीचे उतर कर स्कूल पहुंचते हैं. वहीं, बागरी निवासी सहायक शिक्षिका जौनी पूर्ति भी पैदल ही स्कूल तक पहुंचती हैं. उन्होंने बताया कि गर्मी के मौसम में वे पसीने से तर-बतर हो जाते हैं, जबकि बारिश में भींग कर स्कूल तक पहुंचते हैं.
यह सब वह इसलिए करते हैं, ताकि बच्चों को शिक्षा मिले और उनका सामाजिक विकास हो. शिक्षक बताते हैं कि कई बार तो स्कूल जाने और वापस लौटने के क्रम में उनके पांव तक लड़खड़ा जाते हैं और गिरने की संभावना रहती है. इसके बाद भी वह कभी थकते नहीं हैं.
बताया जाता है कि उक्त स्कूल में कुल 25 बच्चे पढ़ते हैं. इनमें बेड़ाडीह और बारगी के बच्चे भी शामिल हैं. हड़ाम सेंरेग का टोला बेड़ाडीह भगवान बिरसा मुंडा के गांव उलीहातू से महज चार किमी की दूरी पर है. चारों ओर से पहाड़ों से घिरे इस गांव में सरकार की कोई भी योजना अब तक नहीं पहुंची है. पहाड़ के नीचे बसे होने के कारण यहां पहुंचना कठिन है.