बेतला (लातेहार), संतोष कुमार : पलामू टाइगर रिजर्व में बाघ आते हैं और कुछ दिन रुकने के बाद चले जाते हैं. ऐसा पिछले करीब 15 वर्षों से होता चला आ रहा है. विभागीय पदाधिकारियों का दावा है कि वर्तमान समय में पलामू टाइगर रिजर्व में दो बाघ मौजूद हैं. लेकिन, पिछले तीन महीने से बाघों को प्रत्यक्ष रूप से नहीं देखा जा सका है. अनुमान है कि बाघ पलामू टाइगर रिजर्व से बाहर चले गये हैं अथवा वहां तक पीटीआर का टाइगर ट्रैकर की टीम नहीं पहुंच पा रही है.
मानवीय दबाव के कारण बाघों को हाे रहा पलायन
एक समय था जब बाघों का स्थायी निवास किसी विशेष क्षेत्र में हुआ करता था. बाघ अपने किसी विशेष प्रवास में वर्षों निवास किया करते थे. ऐसे क्षेत्र के बाघिन अनुकूल वातावरण में न केवल स्वच्छंद रूप से विचरण करती थी, बल्कि शावकों को भी जन्म देती थी. शावक बडे़ होकर कुछ दिनों तक यहां रहने के बाद अन्य जगहों पर चले जाते थे. इनमें से कई कुछ समय के बाद लौट भी जाते थे. लेकिन, अब पर्याप्त वातावरण नहीं मिलने के कारण बाघ स्थायी रूप से निवास नहीं कर रहे हैं. इसका मुख्य कारण मानवीय दबाव माना जा रहा है. नक्सली गतिविधि, विभागीय पदाधिकारियों के दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव आदि कारणों के बीच धीरे-धीरे जंगल कम होता जा रहा है.
पीटीआर से सांभर खत्म
बाघों का प्रिय शिकार पीटीआर से सांभर खत्म हो गया है. विभागीय पदाधिकारियों की मानें, तो बाघ के अनुकूल परिस्थितियों को बनाने का प्रयास किया जा रहा है. पलामू टाइगर रिजर्व में जो भी कार्य कराये जा रहे हैं उसका केंद्र बिंदु बाघ को ही रखा गया है. यह प्रयास किया जा रहा है कि अधिक से अधिक संख्या में शाकाहारी जीव को भोजन व पानी उपलब्ध कराया जा सके. ऐसा होने से बाघों को स्थायी रूप से निवास करने में कोई समस्या नहीं होगी.
रानी से लेकर बंटी और बबली तक नहीं दिखते पीटीआर में
बेतला नेशनल पार्क में अलग-अलग समय में मौजूद रहे बाघ या बाघिन की कहानी की चर्चा होती रहती है. बुजुर्ग बड़े ही रोचक तरीके से इसे बयां करते हैं. बाघ और बाघिन की सुनहरी यादें लोगों की जुबान पर हैं. रानी, बेगम, बॉबी, बंटी, बबली और शेरा आदि ऐसे ही बाघों के परिवार का नाम लोगों के जुबान पर बनी रहती है. लेकिन अब ऐसी स्थिति ऐसी हो गयी है कि उनके दिखने की कोई गारंटी नहीं है. ढूंढने के बाद भी बाघ नहीं मिल रहे हैं.
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छत्तीसगढ़ से आया था बाघ
इस वर्ष 17 मार्च को बाघ पीटीआर में छत्तीसगढ़ की ओर से आया था.इसके बाद लगातार कुटकू इलाके में वह तीन दिनों तक रहा था. जहां मवेशी का भी शिकार उसके द्वारा किया गया था. उसकी तस्वीर को न केवल कैमरा ट्रैप में कैद किया गया था बल्कि पीटीआर के वरीय पदाधिकारियों के द्वारा स्वयं ही मोबाइल में तस्वीर की खींची गयी थी. इसके तीन दिनों के बाद वह बाघ वहां से करीब 60किलोमीटर की दूरी पर स्थित चुंगरू – कुमंडीह इलाके में पहुंच गया था. जहां उसके द्वारा तीन व्यक्तियों को घायल कर दिया गया था. इसके बाद बाघ का ट्रेस नहीं मिल पा रहा है. पदाधिकारियों के अनुसार बाघ का भी अपना कॉरिडोर होता है. जिसके जरिये उनका आना-जाना होता है. कॉरिडोर के हिसाब से वह बाघ लातेहार के पतकी, अथवा चतरा, लावालोंग अथवा लोहरदगा क्षेत्र के जंगलों में भी जा सकता है.अथवा वह पुनः छत्तीसगढ़ में भी लौट सकता है. छत्तीसगढ़- झारखंड के बॉर्डर पर वन विभाग के कर्मियों के द्वारा लगातार निगरानी की जा रही है.
अंग्रेजों के समय में हुआ था बाघों का अंधाधुध शिकार
अंग्रेजों के समय में बाघों का अंधाधुंध शिकार हुआ. जानकार बताते हैं कि उस समय बाघ मारने वाले को अंग्रेजो के द्वारा पुरस्कृत किया जाता था. आजादी के बाद भी यह सिलसिला जारी रहा. यही कारण था कि सरकार को टाइगर प्रोजेक्ट बनाने पड़े. 1972 के बाद बेतला सहित पूरे पलामू टाइगर रिजर्व में जब बाघों के संरक्षण के लिए काम शुरू किया गया तो उस समय आंकड़ों के अनुसार 50 बाघ बताये गये थे. कालांतर में इनकी संख्या घटती गयी. 2013,2014 व 2015 में बाघों के दिखने के प्रमाण मिले. बेतला में 2015 में तो मार्च महीने से लेकर अगस्त सितंबर महीने तक बाघ देखा जाता रहा.
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पलामू टाइगर रिजर्व में बाघों की स्थिति
वर्ष : बाघों की संख्या
1974 : 50
1990 : 45
2005 : 38
2006 : 17
2007 : 06
2010 : 06
2014 : 03
2018 : 00
2023 : 02