भूटान यात्रा को लेकर हमलोगों का उत्साह चरम पर था. पतिदेव भी हंसते हुए कहने लगे- “चलो इसी बहाने एक विदेश यात्रा भी हो जायेगी”. हमने एक-दो दिनों में भूटान के बारे में तमाम जरूरी जानकारियां एकत्रित करनी शुरू कीं, तो मालूम हुआ कि भूटान हिमालय के गोद में बसा दक्षिण-पूर्व एशिया का एक छोटा और महत्वपूर्ण देश है. यह चीन और भारत के बीच एक लैंड लॉक देश है, सो सामरिक दृष्टि से ये भारत के लिए महत्वपूर्ण है. बौद्ध धर्म की मान्यता वाला यह देश सांस्कृतिक व धार्मिक तौर पर तिब्बत से साम्यता रखता है, लेकिन राजनैतिक और भौगोलिक स्तर पर हमारे करीब है और भारत के परम मित्रों में से एक है. भूटान का धरातल विश्व के सबसे ऊबड़-खाबड़ धरातलों में एक है, जहां 100 किमी की दूरी में 150 मी से 7000 मी की ऊंचाई पायी जाती है. फिर हमने एक टूर एजेंसी से संपर्क किया और पांच दिनों का ‘भूटान-टूर’ बुक कर लिया.
भारत से भूटान सड़क मार्ग और वायु मार्ग दोनों से पहुंचा जा सकता है. हमने वायु मार्ग चुना, क्यूंकि वहां के पारो अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा के बारे में हमने बहुत सुन रखा था. पारो विमान क्षेत्र 7,300 फीट ऊंचाई पर स्थित एक गहन घाटी में है. दुनिया भर में कुछ ही चालकों को यहां विमान उतारने का लाइसेंस प्राप्त है. सचमुच बहुत ही अनोखा अनुभव था. ऊंची-ऊंची संकरी पर्वत शृंखलाओं के बीच से आड़े-तिरछे हो विमान का हिलता-डोलता उड़ान, ऐसा लगा मानो हाथ बढ़ा हम उन चोटियों को छू लेंगे!
विमान के उतरते ही ताजी-ठंडी हवाओं और स्वच्छ नीले आसमान ने हमारा स्वागत किया. ऐसा अनुभव होना लाजिमी है, क्यूंकि भूटान दुनिया का एकमात्र कार्बन नकारात्मक देश कहलाता है. उस वक्त तो हम भारतीयों को भूटान यात्रा के लिए अलग से कोई शुल्क नहीं देना पड़ता था, पर आजकल 1200 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से स्पेशल डेवलपमेंट फीस देनी पड़ती है, जो अन्य देशों के नागरिकों के लिए करीब 200 डॉलर प्रतिदिन है. ये एक तरह से पर्यटन के नाम पर भीड़ नियंत्रित रखने का प्रयास भी है.
हवाई अड्डे के बाहर हमारा टूर ऑपरेटर हमारा इंतजार कर रहा था. वह हमें राजधानी थिंपु में हमारे होटल में पहुंचा कर चल गया. टूर की शुरुआत अगले दिन से थी. होटल का लोकेशन ऐसा था, जहां से चारों तरफ पहाड़ ही पहाड़ दिख रहे थे, कुछ तो सफेद बर्फ से भरी चोटियां धूप में चमक कर हमें छू लेने को आकर्षित कर रही थीं. एक बात गौर करनेवाली थी कि वहां मानो स्त्रियों का साम्राज्य हो. होटल में लगेज उतारने से ले कर काउंटर पर, दुकानों में महिलायें ही महिलायें ही दिख रही थीं, हाट-बाजार हर जगह. हर चेहरा खुशनुमा, सुंदर, मुस्कुराता हुआ अपने देश में मानो हमारा स्वागत कर रहा हो. यूं ही नहीं भूटान का हैप्पीनेस इंडेक्स दुनिया में अपना स्थान रखता है. बाजार में भारतीय रुपये आसानी से चल रहे थे.
एक और खास बात. हर दुकान, होटल या संस्थानों में राजा-रानी के चित्र लगे हुए थे और पर्यटन से जुड़ा हर व्यक्ति अपनी पारंपरिक भेषभूषा में नजर आ रहा था. महिलायें “किरा” और पुरुष “घो” पहने हुए थे. हमने कुछ स्ट्रीट फूड भी ट्राइ किया, जैसे- थुकपा, जिसमें नूडल्स, सूप, लहसुन, प्याज और हरी मिर्च थी, स्वाद का तीखापन उसे बेचने वाली युवती की उन्मुक्त हंसी से कुछ अधिक ही थी. यह व्यंजन शाकाहारी और मांसाहारी दोनों होता है. इसके अलावा लाल चावल, मिर्ची का सालन, एमा दतशी, जशा मारू जो एक मसालेदार चिकन स्टू है, इत्यादि व्यंजन भी बिकते दिखे. हमने सिर्फ उनके नाम नोट किये. थुकपा के तीखेपन के बाद हिम्मत नहीं हुई. टूर ऑपरेटर ने जिस-जिस होटल/रिजॉर्ट में हमें ठहराया, वहां भारतीय स्वादिष्ट व्यंजन उपलब्ध थे.
चार दिन हम भूटान में थिंपु, पारो, पुनखा के मोहक पहाड़ों, घुमावदार घाटियों, वास्तुकला और बेजोड़ शिल्प के उत्कृष्ट बौद्ध मठों और दिलचस्प जादुई कहानियों से रहस्यमयी किलों के सैर करते रहें.
अंतिम पूरा दिन ‘टाइगर नेस्ट’ ट्रैक के लिए सुरक्षित था. टाइगर नेस्ट यानी बाघ का घोंसला एक शानदार बौद्ध मठ है, जो 10,000 फीट की ऊंचाई पर एक चट्टान पर स्थित है. पद्मसंभव जिन्हें वहां गुरु रिन्पोछे कहते हैं, एक बौद्ध आध्यात्मिक गुरु थे. उन्होंने 8वीं शताब्दी में भारत से भूटान जाकर बौद्ध धर्म की स्थापना की थी. वह देश के सरंक्षक देवता माने जाते हैं. माना जाता है कि उन्होंने चार महीने तक उसी स्थान पर एक गुफा में तपस्या किया था. यह मठ उन्हीं के सम्मान में बनाया गया है. माना जाता है कि गुरु पद्मसंभव ने इस ऊंचाई तक पहुंचने के लिए एक बाघिन की पीठ पर बैठ कर उड़ान भारी थी. हमारे गाइड वांगडू ने जब ये सब कहानियां सुनायीं, तो उत्सुकता चरम पर पहुंच गयी.
हमने ट्रेकिंग शूज पहन रखे थे. गाइड के सलाहनुसार हमलोग अलसुबह ही निकल पड़े थे. पूरी ट्रेक कोई 5-6 किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई है. कुछ दूर तक घोड़े पर जाया जा सकता है, तो मैं घोड़े पर बैठ गयी जबकि पतिदेव ने पैदल ही चलने का निर्णय लिया. हां, साथ में छड़ी लेनी आवश्यक थी, वरना चढ़ना-उतरना-चलना असंभव होता. चारों तरफ का दृश्य बेहद मनोरम था, रंग-बिरंगी बौद्ध पताकाएं, कलकल गिरती पहाड़ी झरने का संगीत, चारों तरफ हरियाली और ऊंचे देवदार. रुनझुन-रुनझुन बजती बौद्ध घंटियां, अहा! क्या स्वर्गिक दृश्य था कि अचानक घोड़े के लड़खड़ाते खुरों ने ध्यान भंग किया. नीचे देखा तो मेरी चीख ही निकल गयी, घोड़े पहाड़ों की पतली पगडंडियों के बिल्कुल किनारों पर चल रहे थे.
पैदल चलने वाले भीतर की तरफ छड़ियों के सहारे धीमी गति से. ट्रेक के बीच में, रास्ते से हट कर अति मनोरम दृश्यों के कुंज में एक कैफेटेरिया था, जहां जलपान और आराम की व्यवस्था थी. अधिकतर लोग वहीं रुक गये, अब मठ दिखने लगा था. कई लोग वहीं से परिदृश्य का आनंद उठाने लगे पर हमने तो ऊंचाई को छू कर आने का ठान कर ही प्रोग्राम बनाया था, सो आगे की चढ़ाई घोड़ों से उतर पैदल छड़ी ले कर चलने की थी. उतरते हुए लोग हौसला बढ़ा रहे थे, उनके संतुष्ट मुस्कुराते चेहरे वाकई हमें ऊर्जावान बना रही थी. मठ से करीब एक किलोमीटर पहले एक व्यूपॉइन्ट आता है, यहां से मठ की शानदार तस्वीरें ली जा सकती हैं. मठ की सुंदरता वाकई रास्ते की थकान हर लेती है, इसके बाद मठ तक पहुंचने के लिए 750 सीढ़ियां हैं, क्यूंकि घाटी में फिर उतराई शुरू हो जाती है. मठ में आठ गुफाएं हैं. आध्यात्मिक गुरुओं की मूर्तियां हैं. शाम का वक्त हमने वहां के हस्तकला उद्योग को देखने में बिताया. यह यात्रा आज भी अविस्मरणीय है.
कवर स्टोरी – रीता गुप्ता