Chhath Puja 2023: समय के साथ छठ मनाने का तरीका भले ही बदल गया, लेकिन श्रद्धा दिनोंदिन बढ़ती ही गयी. नदी-तालाबों की सोचनीय दशा ने छठ की दिशा बदल दी. अपार्टमेंट कल्चर ने एक अलग ही तरीका निकाल लिया. यहां तक कि कोरोना काल में भी छठ व्रत बंद नहीं होने पाया था. इस परंपरा को विदेशों में भी उसी श्रद्धा के साथ मनाने में हमारे प्रदेश के लोग सदैव अग्रणी रहे हैं, जिनके प्रयासों से आज छठ-पूजा ग्लोबल हो चुकी है.
कांच ही बांस के बहंगिया
बहंगी लचकत जाए…
पहिर ना सुरूज देव पियरिया
बहंगी घाटे पहुंचाय…
बाट जे पूछेला बटोहिया
ई दल केकरा के जाय…
तू त आन्हर होइबे रे बटोहिया
ई दल सूरूज बाबा के जाय…
कार्तिक महीना के चढ़ते ही यह गीत होठों पर बरबस ही अपना अधिकार जमा लेता है. माटी की सुगंध से सने इस गीत से मन का कोना-कोना चंदन हो उठता है. बचपन से छठ को देखते, समझते और जीते हुए आयी हूं. शरीर चाहे कितना भी कमजोर हो, छठ व्रत का ध्यान आते ही न जाने कैसे मन और तन में एक अद्भुत दिव्य शक्ति का संचार होने लगता है, जिसे मैं आज तक नहीं जान पायी. 36 घंटों तक निर्जल उपवास रखने का यह व्रत न केवल व्रतधारियों के लिए, बल्कि पूरे परिवार और समाज में एक पावन शुचिता की लहर फैला जाता है. हर किसी के हृदय में पवित्रता की कल-कल धार बहने लगती है, जिसके निनाद से पूरा वातावरण गुंजायमान हो उठता है.
रांची में रहूं और छठ न करूं, ऐसा विरले ही कभी हुआ होगा. पहले तो हम नदी-तालाबों पर पैदल ही जाते थे. बाबूजी और भइया सिर पर दउरा, केला के कान्ही और कंधे पर ईख लाद लेते और हम मां-बेटी हाथ में लोटा, दरी, पटाखा आदि लेकर निकल पड़ते थे. मां तो बिना चप्पल के ही महावर लगे पांवों से पूरा रास्ता पार करतीं. मुझे कहतीं- ‘ए बुचिया! तूहूँ गोड़ रंग लऽ… शादी से पहले मुझे याद है कि व्रत तो केवल मां ही करती थीं, पर हम सभी इतनी श्रद्धा से उनका साथ देते थे कि यह लगने लगता था कि हमने भी व्रत रखा है. गेहूं चुनते समय, उसे घर की चक्की में पिसवाते समय… सुबह-शाम हमारे होठ छठ-गीत गुनगुनाते रहते.
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आरे चढ़ते कतिकवा सूरूज बाबा
हदसी समाय!
आरे कइसे के पूरइबो सूरूज बाबा
रुउरी अरमान…
‘नहाय-खाय’ के दिन सेंधा नमक और शुद्ध घी के छौंक से जो ‘कद्दू-भात’ बनता था, उसमें ऐसा पावन स्वाद घुल जाता, जो साधारण दिनों में बनाने में नहीं मिलता. इस रहस्य को भी नहीं जान पायी. उसके बाद खरना का प्रसाद बनाने के लिए मिट्टी का चूल्हा और आम की लकड़ी का इंतजाम करना… चावल व गुड़ की खीर और रोटी या पूरी के साथ व्रती के खाने के बाद सबको प्रसाद रूप में बांटना और फिर सबसे अंत में स्वयं प्रसाद ग्रहण करना एक जिम्मेदारी का अहसास भर उठता था, जो मन को अप्रतिम खुशी दे जाता था. नाक से लेकर मांग तक सिंदूर की पवित्र लाल रेखा हर किसी को श्रद्धा से भर देती है.
छठ के गीतों में पूरे परिवार, संबंधियों एवं यहां तक कि समाज के लिए कभी बोझ मानी जानेवाली बेटियों के लिए भी मनौती और प्रार्थनाएं की जाती हैं. शायद ही विश्व में कोई ऐसा पर्व हो, जिसमें ‘रूनकी-झुनकी’ बेटी की मांग की जाती हो! ये गीत देखें-
चारों पहर राति जल-थल सेइला
सेइला चरन तोहार छठी मइया
रूनकी-झुनकी बेटी मांगीला
हो दीनानाथ…
पढ़ल पंडितवा दामाद हे छठि मइया…
हो दीनानाथ दर्शन दिहि ना आपन
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उगते सूरज को सभी सलाम करते हैं, किंतु छठ व्रत एकमात्र ऐसा पर्व है, जिसमें डूबते सूरज को भी उसी श्रद्धा के साथ सम्मान देते हैं, ताकि अगली सुबह वह पूरी ऊर्जा से उदित होकर संसार को उर्जस्वित कर सके! सनातन धर्म प्रारंभ से ही प्रकृति पूजक रहा है। प्रकृति के वे सारे घटक जिनकी सहायता से हमारा जीवन सुगमता से फलित होता है, इस तरह के व्रत और त्यौहार के रूप में हम उसके प्रति अपना आभार प्रकट करते हैं.
मुझे आज भी याद है… लगभग 30 वर्ष पहले शादी के बाद पहली बार ससुराल में मैंने छठ व्रत किया था. गांव में पर्दा प्रथा होने के कारण घूंघट में गांव के नहर तक जाना और घूंघट में ही नहाने से लेकर अर्घ्य देने तक सारी प्रक्रिया इतनी श्रद्धा से निभायी थी कि मेरी सासू मां सहित सबकी जुबान पर एक ही बात थी- “शहर में रहे वाली बीए पास लइकी घूंघट में सुरूज बाबा के अरघ दे के मन खुस कऽ देलस….” उन्हें लगता था कि धर्म-कर्म से मेरा कोई सरोकार नहीं होगा. इधर मैं अपनी मां को धन्यवाद दे रही थी, जिन्होंने इस श्रद्धा की मजबूत डोर से मुझे बांध दिया था.
समय के साथ शहर-दर- शहर बदलता गया, पर हृदय में अंकुरित छठ का पौधा कभी मुरझाने नहीं पाया. तरीका भले ही बदल गया, किंतु श्रद्धा दिनोंदिन बढ़ती ही गयी. नदी-तालाबों की सोचनीय दशा ने छठ की दिशा बदल दी. अपार्टमेंट कल्चर ने एक अलग ही तरीका निकाल लिया. चूंकि छठ सामूहिकता का पर्व है, अतः हमने अपार्टमेंट के कम्युनिटी हॉल की छत पर कृत्रिम तालाब का निर्माण किया. आटा चक्की वालों ने छठ की शुचिता को ध्यान में रख कर गेहूं सुखाने और आटा पिसाने का जिम्मा लेकर इस व्रत को थोड़ा आसान कर दिया. इस तरह हमने सामूहिक रूप से पूरे विधि-विधान से श्रद्धापूर्वक छठ व्रत का पालन किया. यहां तक कि कोरोना काल में भी छठ व्रत बंद नहीं होने पाया था. ऑनलाइन पूजा-सामग्री की व्यवस्था से छठ पर्व की कड़ी जुड़ी रही.
इस परंपरा को विदेशों में भी उसी श्रद्धा के साथ मनाने में हमारे प्रदेश के लोग सदैव अग्रणी रहे हैं, जिनके प्रयासों से आज छठ-पूजा ग्लोबल हो चुकी है. इस साल जब मैं बेंगलुरु शिफ्ट हुई, तो मुझे लगा शायद छठ की यह कड़ी टूट जायेगी!
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गृह-कार्यों की मेरी सहायिका ने छठ के लिए बिहार जाने की 20 दिनों की छुट्टी मांगी. मैंने खुशी-खुशी उसे छुट्टी के साथ कुछ अतिरिक्त पैसे भी दिये कि ‘मेरी तरफ से छठ का प्रसाद चढ़ा देना’. वह तो चली गयी, पर मेरे अंदर बेचैनी की एक घंटी भी बजा गयी कि वह छठ करने इतनी दूर बिहार जा सकती है, तो क्यों न मैं अपने प्रदेश को ही बेंगलुरु में बुला लूं! पर एक अनजाने शहर में अपरिचित लोगों के बीच अकेले इस व्रत को करने की हिम्मत नहीं हो रही थी. बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा, जिसे छठ मइया की कृपा ही कहूंगी. ह्वाट्सऐप में एक ग्रुप से मेसेज आया कि ‘इस बार बेंगलुरू के कनकपुरा स्थित आर्ट ऑफ लिविंग परिसर में छठ का सामूहिक आयोजन गुरुदेव रविशंकर जी की उपस्थिति में होने जा रहा है. इच्छुक श्रद्धालु इसमें भागीदारी सुनिश्चित करा सकते हैं’. फिर क्या… हमने तत्काल फॉर्म भर दिया. ईश्वर की इस कृपा पर हृदय प्रफुल्लित हो उठा. खुशी में मैंने एक छठगीत की भी रचना कर ली. पारंपरिक गीतों के साथ उसे भी गाऊंगी. यदि अवसर मिला, तो गुरुदेव को भी सुनाऊंगी.